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हिंदी में विज्ञानकथा और लेखिकाएं

विज्ञानकथा में स्त्री रचनाकारों का प्रवेश एक नये लोकप्रिय विधा को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों के जरिये समृद्ध करने का सुंदर प्रयास हो सकता था, लेकिन हिंदी में स्त्री लेखन का ध्यान इस तरफ कम है.

कथा लेखन के क्षेत्र में लेखिकाएं इस विधा के जन्म से साधनारत हैं. कह सकते हैं कि कई अर्थों में उपन्यास और कहानी स्त्री के अपने मन-मिजाज की विधा हैं. नानी-दादी की कहानियों से जुड़े बच्चों के हुंकारे और ‘माँ कह एक कहानी’ तक की यात्रा स्त्री कथा की वाचिक परंपरा का गंभीर संकेत देती हैं. जब आधुनिक युग में उपन्यास का जन्म हुआ, तो बड़ी संख्या में शिक्षित स्त्रियां कथा-उपन्यास लेखन के क्षेत्र में प्रवृत्त हुईं,

लेकिन विज्ञान कथा लेखन के क्षेत्र में न केवल स्त्रियों का, बल्कि पुरुषों का भी रचनात्मक रुझान कम ही हुआ. उपन्यास लेखन का अपना चरित्र, जो गद्य के विकास और जन-समाज के उदय, नये तरह के वर्ग संबंध, सार्वजनिक विचार मंचों के उदय, मनोरंजन के साधनों के उदय और जनतांत्रिक स्पेस की तलाश के साथ जुड़ा हुआ है, उपन्यास और कथा लेखन को अलग तेवर प्रदान करता है. पाश्चात्य संदर्भ की तुलना में अलग तरह के यथार्थबोध के कारण इसका भारतीय संदर्भ और भी महत्वपूर्ण हो उठता है.

यह यथार्थबोध औपनिवेशिक दासता का था, जिससे मुक्ति की छटपटाहट थी. अतिकल्पना और यथार्थबोध के बीच गहरे द्वंद्व से भारतीय उपन्यास, विशेषकर हिंदी उपन्यास, का जन्म होता है. एक तरफ तिलिस्म, ऐय्यारी तथा जासूसी उपन्यास की धारा थी, जिसे सही अर्थों में ‘नॉविल’ नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि वह ‘अंग्रेजी के ढंग’ का नहीं था. अंग्रेजी ढंग का पहला नॉविल 1882 में लाला श्रीनिवासदास का ‘परीक्षागुरु’ ही था.

आखिर हमारे सामने बाध्यता क्या थी अंग्रेजी ढंग पर नॉविल लिखने की? औपनिवेशिक ढंग का संस्कृति बोध उपनिवेश बनाये गये देशों की सृजनशीलता और स्वाभाविक लेखन के लिए सोख्ता कागज तो साबित नहीं हो रहे थे! भारत में अंग्रेजी शोषण, दमन और उत्पीड़न जनता की स्थिति को दयनीय बना रहे थे. इनका यथार्थ चित्रण चिंतन का स्वाभाविक फलक था, लेकिन उपन्यास और कथा साहित्य के अन्य रूपों के फलने-फूलने के लिए ये परिस्थितियां बहुत बड़ी बाधा सिद्ध हुईं, विशेषकर यथार्थ और कल्पना का जो अंतर्संबंध है, उसको इसने विच्छिन्न कर दिया.

उपन्यास और कथा साहित्य स्त्रियों की अपनी विधा थी. सामाजिक परिस्थितियों के कारण स्त्रियों की जो स्थिति और उनके अवकाश के क्षण थे, उसमें अगर उपन्यास लेखन के यथार्थवादी और अंग्रेजी ढंग की धारा को प्रोत्साहन न मिला होता, तो बहुत से प्रयोग और वैविध्य की संभावना थी. विज्ञान कथाओं का लेखन उनमें से एक होता.

एक अच्छी बात थी कि उपन्यास विधा को अपने पाठक-निर्माण में बहुत जल्दी सफलता मिली. स्त्रियां जब किसी विधा में बड़ी संख्या में मौजूद हैं और वह विधा लोकप्रिय है, तो उपन्यास और कथा साहित्य के स्ट्रक्चर में तोड़-फोड़ और परिवर्तन के लिए आधारभूमि मिल जाती है, लेकिन हिंदी में उपन्यास लेखिकाओं ने इस चुनौती का सही जवाब नहीं दिया.

उल्लेखनीय है कि महिलाओं ने उपन्यास और कथा के स्ट्रक्चर में अपनी कहानी और दुनिया को घुसा कर बहुत तोड़-फोड़ मचायी है. यथार्थवाद की कठोर संरचना में आहिस्ता से स्त्री की दुनिया और उसका भदेसपन चला आता है. ‘मानवीय’ संबंधों की जटिलता के साथ-साथ ‘स्त्री-पुरुष’ संबंधों के प्वाइंटेड सवाल चले आते हैं, लेकिन विज्ञान कथा की एक बहुत बड़ी दुनिया की तरफ हिंदी लेखिकाओं का ध्यान नहीं जाता.

विज्ञानकथा की संरचना में तकनीक और कल्पना पर बहुत जोर होता है. प्रस्तुति पक्ष के जरिये वातावरण निर्मित होता है. कल्पना की प्रधानता के कारण कोई भी चीज असंभव और अविश्वसनीय नहीं लगती. दरअसल विज्ञान कथा की दुनिया एक भोले अकृत्रिम विश्वास पर टिकी है कि कुछ भी संभव है, जो मनुष्य की कल्पना का विषय है.

विज्ञानकथा की दुनिया का कृत्रिम तनाव वास्तविक दुनिया के तनावों से राहत देने का भी काम करता है और पाठक को व्यस्त रखता है. यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सब परीकथाओं और भूत-प्रेत आदि के अतींद्रिय संसार से भिन्न है. विज्ञानकथा की दुनिया के निर्माण के पीछे कोई कपोल कल्पना या अंधविश्वास नहीं, बल्कि तर्क और बुद्धि है. विज्ञानकथा दरअसल मनुष्य की शक्ति और उसके विस्तार की कथा है.

ऐसे में विज्ञानकथा में स्त्री रचनाकारों का प्रवेश एक नये लोकप्रिय विधा को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों के जरिये समृद्ध करने का सुंदर प्रयास हो सकता था, लेकिन हिंदी में स्त्री लेखन का ध्यान इस तरफ कम है. अभी इस क्रम में अंग्रेजी से अनुदित होकर हिंदी में साधना शंकर का उपन्यास ‘आरोहण’ (2022) आया है. इस उपन्यास में स्त्री और पुरुष की संतति के लिए आपसी निर्भरता को खत्म कर मृत्यु जैसे दार्शनिक सवालों का भी विज्ञान के जरिये हल ढूंढ निकाला गया है.

उपन्यास को पढ़ते हुए स्पष्टतः एक स्त्री छुवन को महसूस किया जा सकता है. इसके जरिये समझा जा सकता है कि स्त्री जब विज्ञानकथा रचने में प्रवेश करती है, तो वह वैकल्पिक दुनिया रचती है, जो उसके उत्पीड़न और दमन के तमाम रूपों का नकार होता है और प्रतिरोध भी. विज्ञानकथा की इन संभावनाओं को हिंदी की स्त्री रचनाकारों को समझ कर इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में आना चाहिए.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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