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सेकुलर सिविल कोड का नया मंत्र

Secular Civil Code : चुनाव अभियान के दौरान भाजपा के नेता समान नागरिक संहिता को देश को एकताबद्ध करने के एकमात्र उपाय के रूप में देख रहे थे. अल्पसंख्यकों को मिलने वाले विशेषाधिकारों को मुद्दा बनाकर भाजपा लगातार नागरिक संहिता को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने के लिए हथियार बनाती रही है. अब मोदी ने बिना विवरण बताये सेकुलर बनाम कम्युनल कोड की बहस शुरू कर दी है.

By प्रभु चावला | August 27, 2024 7:59 AM
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Secular Civil Code : हलचल से भरी राजनीति में हैमलेट के शब्दों- ‘शब्द, शब्द, शब्द’ के अनेक अर्थ हैं. शब्द क्षणों और विचारधाराओं को परिभाषित करते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में एक ऐसा शब्द प्रयुक्त कर सभी को चौंका दिया, जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाता. उन्होंने ‘सेकुलर सिविल कोड’ के रूप में नयी अवधारणा दी. उन्होंने घोषित किया कि देश को धार्मिक आधार पर बांटने और भेदभाव पैदा करने वाले कानूनों के लिए आधुनिक समाज में कोई जगह नहीं है, इसलिए देश के लिए समय आ गया है कि वह एक सेकुलर सिविल कोड की मांग करे.

उन्होंने रेखांकित किया कि मौजूदा नागरिक संहिता सांप्रदायिक सिविल कोड है और विभाजनकारी है. अच्छे विवाद खड़े करना मोदी को पसंद है. यदि उनके नये नैरेटिव के पीछे उनका इरादा यह था कि इस पर बहस हो या इसे समर्थन मिले, तो यह उन्हें हासिल हुआ है. इससे भ्रम भी फैला है और संघ परिवार भी इस नये नागरिक संहिता के बारे में समझ बनाने की कोशिश कर रहा है. पहले जनसंघ और फिर भाजपा द्वारा हर चुनाव में समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठाया जाता रहा है. उसके घोषणापत्र में नागरिक संहिता और अनुच्छेद 370 हटाने के मसले पर कोई समझौता नहीं हो सकता था.
विपक्ष, जिसकी विचारधारा के केंद्र में धर्मनिरपेक्षता है, को लगता है कि इस शब्द से प्रधानमंत्री का औचक लगाव राजनीतिक विमर्श को निर्देशित करने की उनकी घटती ताकत का परिचायक है. दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के सर्वोच्च नेता द्वारा धर्मनिरपेक्षता को महत्व देने से उनके इरादे के बारे में सवाल उठ रहे हैं.

चुनाव अभियान के दौरान भाजपा के नेता समान नागरिक संहिता को देश को एकताबद्ध करने के एकमात्र उपाय के रूप में देख रहे थे. अल्पसंख्यकों को मिलने वाले विशेषाधिकारों को मुद्दा बनाकर भाजपा लगातार नागरिक संहिता को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने के लिए हथियार बनाती रही है. अब मोदी ने बिना विवरण बताये सेकुलर बनाम कम्युनल कोड की बहस शुरू कर दी है. उन्होंने या किसी मंत्री या भाजपा नेता ने अभी तक यह नहीं बताया है कि इस कोड में क्या-क्या होगा. ऐसे में संघ परिवार के सदस्यों में भ्रम की स्थिति है. जहां गूढ़ मंशा होगी, वहां कयास लगाया जाना स्वाभाविक है. मोदी के विरोधियों का मानना है कि ऐसी बातें तेलुगू देशम और जद(यू) जैसे सहयोगियों के साथ-साथ कांग्रेस को भी चुप कराने की रणनीतिक कवायद हैं. चूंकि प्रधानमंत्री के पास अभी बहुमत का हिसाब नहीं है, तो यह नया मुहावरा एजेंडा निर्धारित करने की उनकी छवि को फिर से हासिल करने का प्रयास है. उन्होंने गंभीर सेकुलर चर्चा की जरूरत को रेखांकित कर भाजपा की एक प्रमुख मांग को कुछ समय के लिए परे रख दिया है. उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा की भाजपा सरकारों ने समान नागरिक संहिता को पारित कर दिया है या इसकी मंशा जतायी है.


संघ के बड़े नेता अपनी आंतरिक बैठकों में इस पर जल्दी कुछ करने का निवेदन कर रहे हैं. भाजपा के लोग इस सेकुलर कवायद को मोदी का मास्टरस्ट्रोक बता रहे हैं, जिससे उनकी स्थिति सुदृढ़ होगी. इसीलिए इस बात में दम दिखता है कि अपनी कई पहलों पर पैर पीछे खींचने वाली सरकार इस मुद्दे पर कुछ ठोस करना चाहती है. प्रारूप पर काम चुनाव से पहले ही शुरू हो गया था क्योंकि भाजपा को प्रचंड बहुमत की आशा थी. सरकार को अपने सहयोगी दलों के विरोध के बाद वक्फ बोर्ड कानून में बदलाव का विधेयक संयुक्त संसदीय समिति को भेजना पड़ा. मोदी सरकार को लैटरल एंट्री के मामले में भी पीछे हटना पड़ा है. लैटरल एंट्री के तहत 45 अफसरों की भर्ती के लिए जो विज्ञापन निकाला गया था, उसमें आरक्षण का प्रावधान नहीं था. इस पर खूब विरोध हुआ. उसमें दिव्यांग लोगों के लिए एक श्रेणी थी. हाल के दिनों में इस श्रेणी में फर्जीवाड़े से भर्ती के अनेक मामले सामने आये हैं. निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को सरकार में लाने का यह विचार नीति आयोग का था, जिसने बिना आरक्षण के बड़ी संख्या में युवा पेशेवरों को भर्ती किया है. साल 2018 से 63 अधिकारियों को बिना आरक्षण के सीधे नियुक्त किया गया है. भाजपा को पूर्ण बहुमत था और विपक्ष मरणासन्न था, तो मोदी को इस मामले में कोई चुनौती नहीं मिली थी. लेकिन 2024 के जनादेश ने सत्ता के भगवा रंग को फीका कर दिया है. सहयोगी दल उन मुद्दों पर अपनी राय रख रहे हैं, जिनका उनके लिए वैचारिक महत्व है.


जैसे ही यह विज्ञापन आया, तो सबसे पहले विरोध के स्वर छोटे सहयोगी दलों के ही थे, कांग्रेस के नहीं. एलजेपी के चिराग पासवान ने इसे वापस लेने की मांग की. वे अपना वोट बैंक बनाये रखने और निर्णयों को प्रभावित करने की अपने पिता राम विलास पासवान की राजनीतिक रणनीति की राह पर चल रहे हैं. उन्होंने वीपी सिंह को मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने पर मजबूर किया था, जबकि वरिष्ठ पार्टी नेताओं और सहयोगियों की राय अलग थी. कुछ समय बाद वीपी सिंह का राजनीतिक अवसान हो गया, पर पासवान लंबे समय तक बने रहे. जद(यू) और तेलुगू देशम ने भी इस विज्ञापन को वापस लेने की सलाह दी. लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने संवैधानिक प्रावधानों को अनदेखा करने के लिए भाजपा की कड़ी निंदा की और सोशल मीडिया पर लिखा कि लैटरल एंट्री से खुलेआम आरक्षण छीना जा रहा है, पर भाजपा के लोग इसका खूब समर्थन कर रहे हैं. कुछ ही समय में केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने संघ लोक सेवा आयोग को विज्ञापन वापस लेने का निर्देश दे दिया. पहली बार सरकार अपने ही निर्णय को वापस लेने के लिए सामाजिक न्याय का हवाला दे रही थी.


मोदी के साथ सबसे अहम बात यह है कि उन्हें अपने निर्णयों की क्षमता पर पूरा भरोसा होता है. उनके लिए दबाव या डर से पीछे हटना कभी विकल्प नहीं रहा. हालिया महीनों में उनमें बदलाव देखा जा रहा है. उनके समर्थक अपने को यह कहकर सांत्वना दे रहे हैं कि माओ के ‘एक कदम पीछे, दो कदम आगे’ के सिद्धांत पर चलकर मोदी भविष्य में ताकतवर होने के लिए प्रयास कर रहे हैं, भले ही इस कोशिश में विचारों और विचारधारा से कुछ समय के लिए समझौता करना पड़े. प्रधानमंत्री मोदी ने धर्मनिरपेक्षता को एक ज्वलंत मुद्दा बना दिया है और उस आग को भड़का भी रहे हैं. राख से ही फिनिक्स पैदा होता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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