जब दिल्ली और उसके आसपास के दो सौ किलोमीटर के दायरे में सांसों पर संकट छाया और सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त नजरिया अपनाया, तो सरकार का एक नया शिगूफा सामने आ गया- कृत्रिम बरसात. वैसे भी दिल्ली के आसपास जिस तरह सीएनजी वाहन की अधिकता है, वहां बरसात नये तरीके का संकट ला सकती है. विदित हो कि सीएनजी दहन से नाइट्रोजन ऑक्साइड और ऑक्साइड ऑफ नाइट्रोजन का उत्सर्जन होता है. चिंता की बात यह है कि ऑक्साइड ऑफ नाइट्रोजन गैस वातावरण में मौजूद पानी और ऑक्सीजन के साथ मिलकर तेजाबी बारिश कर सकती है. जिस कृत्रिम बरसात का झांसा दिया जा रहा है, उसकी तकनीक को समझना जरूरी है. इसके लिए हवाई जहाज से सिल्वर आयोडाइड और कई अन्य रासायनिक पदार्थों का छिड़काव किया जाता है, जिससे सूखे बर्फ के कण तैयार होते हैं.
असल में सूखी बर्फ ठोस कार्बन डाइऑक्साइड ही होती है. सूखी बर्फ की खासियत होती है कि इसके पिघलने से पानी नहीं बनता और यह गैस के रूप में ही लुप्त हो जाती है. यदि परिवेश के बादलों में थोड़ी भी नमी होती है, तो ये सूखी बर्फ के कोनों पर चिपक जाती है और इस तरह बादल का वजन बढ़ जाता है, जिससे बरसात हो जाती है. एक तो इस तरह की बरसात के लिए जरूरी है कि वायुमंडल में कम से कम 40 प्रतिशत नमी हो, फिर यह थोड़ी सी देर की बरसात ही होती है. इसके साथ यह खतरा बना रहता है कि वायुमंडल में कुछ ऊंचाई तक जमा स्मॉग और अन्य छोटे कण फिर धरती पर आ जाएं.
साथ ही सिल्वर आयोडाइड, सूखी बर्फ के धरती पर गिरने से उसके संपर्क में आने वाले पेड़-पौधे, पक्षी और जीव ही नहीं, नदी-तालाब पर भी रासायनिक खतरा संभावित है. हमारे नीति निर्धारक आखिर यह क्यों नहीं समझ रहे कि बढ़ते प्रदूषण का इलाज तकनीक में तलाशने से ज्यादा जरूरी है प्रदूषण को कम करना. यह मसला केवल दिल्ली तक ही सीमित नहीं है, मुंबई, बेंगलुरु के हालात भी इससे बेहतर नहीं हैं. दिल्ली में अभी तक जितने भी तकनीकी प्रयोग किये गये, हकीकत में वे बेअसर ही रहे हैं. यह तो भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसकी एक टिप्पणी के चलते इस बार दिल्ली में वाहनों का सम-विषम संचालन थम गया. तीन वर्ष पहले एम्स के तत्कालीन निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया ने भी कहा था कि दूषित हवा से सेहत पर पड़ रहे कुप्रभाव का सम-विषम स्थायी समाधान नहीं है. क्योंकि ये उपाय उस समय अपनाये जाते हैं जब हालात पहले से ही आपात स्थिति में पहुंच गये होते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय भी कह चुका है कि जिन देशों में ऑड-ईवन लागू हैं, वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट काफी मजबूत और फ्री हैं. सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड भी अदालत को बता चुकी है कि ऑड-ईवन से प्रदूषण सिर्फ चार प्रतिशत कम हुआ है. इससे पहले हम स्मॉग टावर के हसीन सपनों को तबाह होते देख चुके हैं. दीवाली के पहले जब दिल्ली में वायु गुणवत्ता दुनिया में सबसे खराब थी, तब राजधानी में लगे स्मॉग टावर धूल खा रहे थे. वर्ष 2019 के 15 नवंबर को जब दिल्ली हांफ रही थी, तब सर्वोच्च न्यायालय ने तात्कालिक राहत के लिए प्रस्तुत किये गये विकल्पों में से स्मॉग टावर के निर्देश दिये थे. एक वर्ष बाद दिल्ली-यूपी सीमा पर 20 करोड़ लगाकर आनंद विहार में स्मॉग टावर लगाया गया.
इससे पहले 23 अगस्त को कनॉट प्लेस में पहला स्मॉग टॉवर 23 करोड़ खर्च कर लगाया गया था. इसके संचालन और रखरखाव पर शायद इतना अधिक खर्च था कि वे बंद कर दिये गये. इसी सप्ताह जब फिर सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली की हवा के विषैले होने पर चिंतित दिखा, तो टावर शुरू कर दिये गये. सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि इस तरह के टावर से समग्र रूप से कोई लाभ हुआ नहीं. महज कुछ वर्ग मीटर में थोड़ी सी हवा साफ हुई. असल में स्मॉग टावर बड़े आकार का एयर-प्यूरीफायर होता है, जिसमें हवा में मौजूद सूक्ष्म कणों को छानने के लिए कार्बन नैनोफाइबर फिल्टर की कई परतें होती हैं. इसमें बड़े एक्जास्ट पंखे होते हैं जो आसपास की दूषित हवा को खींचते है, उसके सूक्ष्म कणों को साफ कर हवा फिर से परिवेश में भेज देते हैं.
वैसे दिल्ली में वायु प्रदूषण के एक अन्य उपाय पर भी काम चल रहा है. जापान सरकार अपने एक विश्वविद्यालय के जरिये दिल्ली-एनसीआर में एक शोध-सर्वेक्षण करवा चुका है. इस सर्वेक्षण के जरिये आकलन किया गया है कि आने वाले 10 वर्षों में सार्वजनिक परिवहन और निजी वाहनों में हाइड्रोजन और फ्यूल सेल आधारित तकनीक के इस्तेमाल से उसे कितना व्यापार मिलेगा. हाइड्रोजन का ईंधन के रूप में प्रयोग करने को लेकर बीते पांच वर्षों में कई प्रयोग हुए हैं. बताया गया है कि इसमें शून्य कार्बन का उत्सर्जन होता है और केवल पानी निकलता है. इस तरह के वाहन महंगे तो होंगे ही, टायर घिसने और बैटरी के धुएं से स्मॉग बनाने की संभावना भी बनी रहेगी. शहरों में भीड़ कम हो, निजी वाहन कम हों, जाम न लगे, हरियाली बनी रहे- इसी से जहरीला धुंआ कम होगा. मशीनें मानवीय भूल का निदान नहीं होती हैं. हमें जरूरत है आत्म नियंत्रित करने वाली ऐसी प्रक्रिया अपनाने की जिससे वायु को विषैला बनाने वाले कारक ही जन्म न लें. तभी वायु स्वच्छ हो पायेगी. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)