रक्षा उद्योग में आत्मनिर्भरता जरूरी

देखना होगा कि प्राइवेट और लोकल इंडस्ट्री को इससे कैसे मदद मिलती है. कुल मिलाकर यह विचार अच्छा है. मेक इन इंडिया की बात पिछले पांच साल से चल रही है.

By अशोक मेहता | August 11, 2020 5:35 AM
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मेजर जनरल (रिटा.) अशोक मेहता, रक्षा विशेषज्ञ

delhi@prabhatkhabar.in

रक्षा उपकरणों को देश में निर्मित करने और आयात पर निर्भरता कम करने का निर्णय बहुत ही अच्छा है. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षामंत्री कृष्णा मेनन के कार्यकाल से ही यह कवायद चल रही है. लेकिन, आत्मनिर्भरता पर कभी तरीके से काम नहीं किया गया. जब 1962 में चीन से लड़ाई हुई, तो हमें अमेरिका से हथियारों की सहायता लेनी पड़ी.

शुरुआत से ही हमारी स्थानीय डिफेंस इंडस्ट्री पूर्ण रूप से सरकारी रही. हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल), डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (डीआरडीओ) और जो भी 40-45 ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां बनीं, वह स्थानीय स्तर पर विकसित की गयी थीं. चूंकि, हमने डीआरडीओ यानी रिसर्च एंड डेवलपमेंट में पैसा नहीं डाला, जिससे हमारी तकनीकी क्षमता विकसित नहीं हो पायी. हमारे पास जो भी ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां थीं, वे कपड़े, जूते, खाना-पीना बनाने के खातिर शुरू हुईं.

जहां तक एचएएल का सवाल है, तो वहां ज्यादातर उपकरण आयात और एसेंबल किया जाता रहा. स्थानीय स्तर पर तकनीकी दक्षता हासिल करने के बजाय हम दूसरों पर निर्भर रहे. पूर्ण से उपकरणों को बनाने के मामले में हम आत्मनिर्भर नहीं हो पाये. उच्च तकनीक आधारित हमने जो हथियार बनाये, उसमें एकमात्र ब्रह्मोस है, वह भी रूसी सहयोग पर आधारित है. स्पेस इंडस्ट्री में अपेक्षाकृति प्रगति हुई है. सेटेलाइट और स्पेस रिसर्च के मामले में देश को कामयाबी मिली है. रक्षा के क्षेत्र में रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए हम कुल रक्षा बजट का एक से दो प्रतिशत ही खर्च करते हैं.

जब तक आप तकनीक में निवेश नहीं करेंगे, तब तक आप एडवांस हाइटेक हथियार नहीं बना पायेंगे. हमारे यहां किसी एयरक्रॉफ्ट और टैंक का इंजन नहीं बन सकता. हम 30 साल से एयरक्रॉफ्ट का इंजन बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सफल नहीं हुए. दूसरी तरफ, हमने प्राइवेट इंडस्ट्री को शामिल करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं. प्राइवेट और पब्लिक साझेदारी के लिए सेमिनार तो 1995 से चल रही है. लेकिन, इसे लागू नहीं किया गया. फौज भी चाहती है कि आयात किये गये हथियारों को शामिल किया जाये.

पूर्व की सरकारों के जमाने में चुनाव का खर्च भी डिफेंस कांट्रैक्ट से निकलता था. मान लिया गया था कि जो भी सरकार आयेगी, वह चुनावी खर्चा इससे निकालेगी. इससे आयात बिल बढ़ा दिया जाता था और सरकारें उसमें कमीशन प्राप्त कर लेती थीं. उस जमाने में इसकी चर्चा खुलेआम की जाती थी.

यही वजह है कि रक्षा निर्माण के क्षेत्र में निवेश नहीं किया गया. आर एंड डी पर ध्यान नहीं दिया गया और न ही प्राइवेट सेक्टर को शामिल किया गया. हमने पूर्ण रूप से आयात पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया. हमने 7.62 मिमी की जो राइफल बनायी और श्रीलंका व नेपाल को बेची, वह उतनी कारगर साबित नहीं हुई. अन्य देश लाइट कॉम्बैट हेलीकॉप्टर, ध्रुव हेलीकॉप्टर और ब्रह्मोस को खरीदेंगे, लेकिन हमने उसे किसी को बेचा नहीं है.

क्योंकि उसमें रूस की भी भागीदारी है. हम उस स्थिति में पड़े हुए हैं कि जहां बातचीत तो बहुत की, लेकिन योजनाओं को लागू नहीं कर पाये. युद्ध के हथियार जैसे टैंक, एयरक्रॉफ्ट, शिप, आर्टिलरी ये सब आयात किये हुए हैं. वर्ष 1986-87 में मैं डिफेंस प्लानिंग स्टाफ में था, तो उस समय लाइट कॉम्बैट एयरक्रॉफ्ट (एलसीए) प्रोग्राम शुरू हुआ. अब हम इसे बना रहे हैं, जिसका इंजन हमें अमेरिका से मिलता है.

अभी 101 उपकरणों को रोकने की योजना बनायी गयी है. अभी 2020 से 2024 तक प्रतिबंध है, इसमें अलग-अलग आइटम शामिल हैं. काफी समय से मेक इन इंडिया की बात चल रही है. सीडीएस ने भी यह बात कही है कि अगर हमें फर्स्ट ग्रेड टेक्नोलॉजी नहीं मिल रही है, तो उससे थोड़ी कम भी स्वीकार करनी पड़ेगी. अगर ऐसा किया जाता है, तो कुछ लोगों का यह भी मानना है कि आप अपनी फौज को बेहतरीन उपकरण नहीं दे पायेंगे.

सैन्य आधुनिकीकरण के लिए बेस्ट इक्विपमेंट चाहिए, वह आप बना नहीं पाओगे, वह देश से बाहर बन रहा है. आप एफडीआइ को 80 प्रतिशत तक कर दें, तो भी तकनीकी दक्षता नहीं प्राप्त होगी. अमेरिकी आपको एफ-16 देना चाहते हैं, जो कई दशक पुराना है. पिछले वर्ष से मिग की जगह नयी तकनीक आधारित एयरक्राफ्ट को शामिल करने की बात चल रही है, उसमें अमेरिका आपको एफ-16 ट्रांसफर करने के लिए तैयार है.

आप पहली पीढ़ी या दूसरी पीढ़ी की तकनीक लेंगे. सीडीएस कह रहे हैं कि आत्मनिर्भरता के लिए ऐसी जो भी खरीद हो सकती है, वह हो रही है. राइफल, कार्बाइन, स्नाइपर आयात हो रहा है. अमेठी में रूस के सहयोग से फैक्ट्री तैयार हो रही है, वह स्टेट ऑफ द आर्ट नहीं होगी, लेकिन मेड इन इंडिया होगी. इस प्रक्रिया में समय लगेगा, जिससे सैन्य आधुनिकीकरण की प्रक्रिया लंबी खिंचेगी. क्योंकि, लोकल और प्राइवेट इंडस्ट्री को सक्षम बनने में समय लगेगा. एचएएल के रिकॉर्ड के मुताबिक एलसीए 15 साल पीछे है. इससे स्पष्ट है कि रक्षा आधुनिकीकरण की गुणवत्ता प्रभावित होगी.

पूंजी निवेश के लिए आपने 52,000 करोड़ रुपये तो आवंटित कर दिये हैं. उसमें देखना होगा कि प्राइवेट और लोकल इंडस्ट्री को इससे कैसे मदद मिलती है. कुल मिलाकर यह विचार तो अच्छा है. मेक इन इंडिया की बात पिछले पांच साल से चल रही है. आत्मनिर्भरता की बात डॉ कलाम साहब करते थे. उस समय 70 प्रतिशत आयात और 30 प्रतिशत स्थानीय की बात थी, जिसे 70 प्रतिशत स्थानीय और 30 प्रतिशत आयात के लक्ष्य तक ले जाना था. लेकिन वह लक्ष्य कभी हासिल नहीं हुआ.

यह लक्ष्य 15 साल पहले हासिल कर लेना चाहिए था. आपने यह फैसला ऐसे समय में लिया है, जब चीन और पाकिस्तान दोनों के साथ तनाव चरम पर है. सरकार यह मानकर चल रही है कि चीन के साथ युद्ध नहीं होगा, पाकिस्तान के साथ यह हो सकता है. इसलिए, यह रिस्क लिया जा रहा है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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