आत्मसम्मान युक्त हो आत्मनिर्भर भारत
आठ साल बाद भी पुराने भारत के काम करने का पुराना तरीका बदला नहीं है. नौकरशाही में संकुचन नहीं आया है. सरकारी खर्च में 2016 के 12.5 प्रतिशत की वृद्धि की तुलना में 2021 में 16 प्रतिशत से अधिक की बढ़त हुई है.
बीते वर्ष के शब्द बीते वर्ष की भाषा के हैं और नये साल में शब्द अलग आवाज की प्रतीक्षा में हैं.’ जब टीएस इलियट ने ये शब्द लिखे थे, तब शायद उनके ध्यान में नेता और धनिक थे क्योंकि इनमें से अधिकतर वर्तमान में कही बात को ठहराने के लिए पहले कही गयी बात भूल जाते हैं. वर्ष 2023 में प्रवेश करते हुए नये वर्ष और आगामी वर्षों को परिभाषित करने के लिए भारत पुराने के स्थान पर एक नये व्याकरण, नवोन्मेषी विशेषणों और नयी संज्ञाओं की अपेक्षा कर रहा है.
यदि 2022 आकांक्षाओं और निराशाओं का साल था, तो 2023 टकरावों और सहमतियों का सम्मिश्रण हो सकता है. जी-20 के भव्य समारोह भारत की महान विरासत और संस्कृति को दिखाने पर सहमति का कारण बनेंगे. राजनीतिक शब्दकोश से धर्मनिरपेक्षता शब्द गायब हो जायेगा. राष्ट्रवाद को गौरवपूर्ण स्थान मिलेगा. विधानसभा चुनाव टकराव की राजनीति को बढ़ायेंगे.
अच्छा अर्थशास्त्र मुनाफे वाली राजनीति के लिए जगह खाली कर देगा. मनोरंजन उद्योग बॉक्स ऑफिस पर अधिक कमाई के लिए पवित्र प्रतीकों का दोहन नहीं कर सकेगा और लालची उद्योगपति बैंकों से मनमाना धन नहीं उठा सकेंगे. लेकिन भविष्य किसी को अपने या दूसरों के लिए नये साल के संकल्प लेने से नहीं रोकता है.
न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन :
नये की रचना के लिए पुराने का ध्वंस जरूरी है. प्रधानमंत्री को अपनी शासन शैली और सामाजिक इंजीनियरिंग की समीक्षा करनी है और उनमें बदलाव करना है. उन्हें आठ साल पहले के नारे- न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन- जिसके साथ वे आये थे, को त्याग देना चाहिए. आठ साल बाद भी पुराने भारत के काम करने का पुराना तरीका बदला नहीं है. नौकरशाही में संकुचन नहीं आया है.
सरकारी खर्च में 2016 के 12.5 प्रतिशत की वृद्धि की तुलना में 2021 में 16 प्रतिशत से अधिक की बढ़त हुई है. केंद्रीय मंत्रियों की संख्या भी कम नहीं हुई है और उनके स्टाफ व कार्यालय के खर्च बेतहाशा बढ़े हैं. नि:संदेह शासन बेहतर हुआ है, पर इसका खर्च बहुत बढ़ गया है. वर्ष 2000 से यह सबसे भारी सरकार है, जिसमें बड़ी संख्या में सेवानिवृत्त नौकरशाहों को लगातार सेवा विस्तार दिया जाता रहा है.
एक प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी कर्मचारियों का वेतन भुगतान 2016 से दुगुना हो गया है. राज्य सरकारें भी अनुत्पादक गतिविधियों पर उदारता से खर्च कर रही हैं. अधिकारियों का शासन अभी भी जारी है. नये भारत में इस पर लगाम लगानी होगी.
खास सीईओ बाहर, आम कामगार अंदर: हमें बताया गया है कि हम आत्मनिर्भर भारत में हैं, जहां गुलामी के अवशेष को हटाने के सुनिश्चित संकेत के रूप में राजपथ का नामकरण कर्तव्य पथ किया गया है. फिर भी हमारे बीच भारतीय कॉर्पोरेट के रूप में नये साम्राज्यवादी हैं, जिनके नेता व्यक्तिगत रूप से औसत भारतीय से बहुत अधिक पैसा बनाते हैं. आर्थिक विषमता उतनी व्यापक कभी नहीं रही, जैसी पिछले साल रही. प्रकाशित अनुमानों के अनुसार, एक प्रतिशत भारतीयों के पास राष्ट्रीय संपत्ति का 33 प्रतिशत हिस्सा है.
भाजपा सरकार ने न केवल उदार वित्तीय छूटों से उन्हें आकर्षित किया, बल्कि विभिन्न मंचों पर उन्हें सम्मानित भी किया. जो दबाव में थे, उन्हें दिवालिया कानून के जरिये निकल जाने दिया गया. लेकिन रोजगार के अतिरिक्त अवसर पैदा करने, बेहतर कामकाजी माहौल बनाने या कामगारों के वेतन-भत्ते बढ़ाने जैसे कामों के समय वे नजर नहीं आये. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने भी 2019 में कहा था कि शानदार आर्थिक प्रगति के बावजूद दुनिया की संपत्ति कुछ लोगों द्वारा नियंत्रित हो रही है.
भारतीय कॉर्पोरेट जगत अपने विशेषाधिकार और दुलारे सीईओ के दौर के खात्मे की घोषणा कर सकता है तथा आम संपत्ति निर्माताओं के लिए जगह दे सकता है. कर्मचारियों को सबसे अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए. खेलो भारत: खेल सकारात्मक रूप से प्रतिस्पर्द्धात्मक भी होता है और समावेशी भी. ऐसा भारत में नहीं होता, जहां इसके व्यावसायीकरण ने खेलों को वर्गों में बांट दिया है. कई राज्यों में फुटबॉल या हॉकी के मैदानों से अधिक गोल्फ कोर्स हैं.
दूसरी ओर, मध्य और निर्धन वर्गों से आने वाले एथलीट राष्ट्रीय पहचान और अपनी उपलब्धियों के लिए समुचित मानदेय के लिए संघर्षरत हैं. मैन ऑफ द सीरिज होने पर जितना विराट कोहली कमा लेते हैं, उसका दशांश भी ओलिंपिक में गोल्ड मेडल लाने वाले को नहीं मिलता. भारतीय उद्योगपति करोड़ों रुपयों में क्रिकेटरों को खरीदने की होड़ में हैं, पर कोई भी पीटी उषा को एक करोड़ रुपये देने के लिए तैयार नहीं है कि वे अपने जैसे दस और धावक तैयार कर सकें. वर्ष 2023 में उद्योगपतियों को हॉकी, पहलवानी, फुटबॉल, तैराकी और तीरंदाजी की एक-एक टीम को गोद लेना चाहिए. यह ओलिंपिक में सौ गोल्ड मेडल जीतने के लिए काफी होगा और इससे बड़ी संख्या में लोगों की भागीदारी होगी.
बहिष्कार का बहिष्कार : मनोरंजन भी एकजुट करने वाला तत्व है. फिल्म से लोक कला तक पूर्ण मनोरंजन सबको आनंद प्रदान करता है, चाहे किसी की विचारधारा या पहचान कुछ भी हो. बहुत अधिक सामाजिक और धार्मिक छानबीन के कारण कुछ साल से कला को भी विभाजक बना दिया गया है. लगभग हर दिन सोशल मीडिया पर बॉलीवुड के बहिष्कार की बातें होती हैं.
हर पोशाक, संवाद और गीत को सांप्रदायिक सुविधा या राजनीतिक दृष्टि से देखा जा रहा है. ऐसी व्यापक धारणा है कि भारतीय आस्था और विरासत के हर प्रतीक पर तंज किया जा रहा है. भारतीय सिनेमा को धर्म, सेक्स और महिलाओं व बच्चों के विरुद्ध हिंसा का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए. इस सिनेमा और इसके दर्शकों का मूल तत्व बहिष्कार का बहिष्कार होना चाहिए. चक दे भारत के लिए चक दे इंडिया को छोड़ देना चाहिए.
नया भारत बनाओ, इंडिया भगाओ : स्वतंत्रता के बाद के 75 वर्ष बहुत समय होते हैं उस नये समाज की चुनौतियों के साथ सहज होने के लिए, जो संस्कृति और राजनीति के नये गैर-नेहरूवादी मॉडल की तलाश में है. लालकृष्ण आडवाणी के राम मंदिर अभियान से ऐसे राजनीतिक हिंदू का उद्भव हुआ, जिसने धर्मनिरपेक्षता के कांग्रेस ब्रांड को खारिज कर दिया.
भारत विविधता में एकता का देश है, लेकिन संविधान में वर्णित ‘इंडिया डैट इज भारत’ दो अलग पहचानों को प्रोत्साहित करता है. हमें इंडिया छोड़कर नये भारत के लिए प्रयासरत होना चाहिए, जहां कोई जाति, समुदाय या वर्ग न हो. आत्मनिर्भर भारत को आत्मसम्मान से युक्त भी होना चाहिए.