भारत संयुक्त राष्ट्र को आश्वस्त कर चुका है कि 2030 तक हमारा देश कार्बन उत्सर्जन की मौजूदा मात्रा को 33-35 फीसदी घटा देगा, लेकिन असल समस्या उन देशों के साथ है, जो मशीनी विकास व आधुनिकीकरण के चक्र में दुनिया को कार्बन उत्सर्जन का दमघोंटू बक्सा बना रहे हैं तथा आर्थिक प्रगति के मंथर होने के भय से पर्यावरण के साथ हो रहे खिलवाड़ को थामने को राजी नहीं हैं.
जलवायु परिवर्तन को लेकर विकसित देश नारे तो बड़े-बड़े लगा रहे हैं, पर कार्बन की मात्रा खुद घटाने के बजाय भारत और अन्य विकासशील देशों पर दवाब बना रहे हैं. चूंकि भारत में अभी भी बड़ी संख्या में परिवार खाना पकाने के लिए लकड़ी या कोयले के चूल्हे इस्तेमाल करते हैं, सो अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां परंपरागत ईंधन के नाम पर भारत पर दबाव बनाती रहती हैं, जबकि विकसित देशों में कार्बन उत्सर्जन के अन्य कारण ज्यादा घातक हैं. कार्बन की मात्रा बढ़ने का दुष्परिणाम है कि जलवायु परिवर्तन व धरती के गरम होने जैसे प्रकृतिनाशक बदलाव हम झेल रहे हैं.
पेड़ प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानी पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते हैं. अमेरिका सर्वाधिक 1.03 करोड़ किलो टन से ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित करता है, जो वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है. उसके बाद कनाडा (प्रति व्यक्ति 15.7 टन) और रूस (प्रति व्यक्ति 12.6 टन) का स्थान है.
जापान, जर्मनी, दक्षिण कोरिया आदि औद्योगिक देशों में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है. भारत महज 20.70 लाख किलो टन यानी प्रति व्यक्ति 1.7 टन कार्बन डाईऑक्साइड ही उत्सर्जित करता है. प्राकृतिक आपदाएं देशों की भौगोलिक सीमाएं देख कर नहीं आती हैं. चूंकि भारत नदियों का देश है और अधिकतर ऐसी नदियां पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही चाहिए.
कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने के लिए हमें एक तो स्वच्छ इंधन को बढ़ावा देना होगा. हमारे देश में रसोई गैस की कमी है नहीं, पर सिलिंडर बनाने के लिए स्टील उपलब्ध कराना, वितरण के लिए आंचलिक क्षेत्रों तक नेटवर्क विकसित करना और गरीब लोगों को बेहद कम दाम पर गैस मुहैया कराना बड़ी चुनौती है. कार्बन उत्सर्जन घटाने में सबसे बड़ी बाधा वाहनों की बढ़ती संख्या, मिलावटी पेट्रो पदार्थों की बिक्री, घटिया सड़कें, छोटे कस्बों तक यातायात जाम होने जैसी समस्याएं हैं.
कचरे का बढ़ता ढेर व उसके निपटान की माकूल व्यवस्था न होना भी कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की बड़ी बाधा है. कूड़ा सड़ने से निकलतीं बड़ी मात्रा में मीथेन, कार्बन मोनो व डाई ऑक्साइड गैसें कार्बन घनत्व को बढ़ाती हैं. साथ ही, बड़े बांध, नहरों आदि के विस्तार से भी कार्बन डाईऑक्साइड पैदा होता है.
ग्रीन हाउस गैसों को सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं. इनमें कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और वाष्प है. सबसे अधिक उत्सर्जन कार्बन डाइऑक्साइड का होता है. ये गैसें वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इससे ओजोन परत की छेद का दायरा बढ़ता ही जा रहा है. पृथ्वी के चारों ओर का वायुमंडल मुख्यतः नाइट्रोजन (78 प्रतिशत ), ऑक्सीजन (21 प्रतिशत ) तथा शेष एक प्रतिशत में सूक्ष्ममात्रिक गैसों (ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये बिल्कुल अल्प मात्रा में उपस्थित होती हैं) से मिलकर बना है,
जिनमें ग्रीन हाउस गैसें भी शामिल हैं. ये ग्रीनहाउस गैसें आवरण का काम करती है एवं इसे सूर्य की पराबैंगनी किरणों से बचाती हैं. पृथ्वी की तापमान प्रणाली के प्राकृतिक नियंत्रक के रूप में भी इन्हें देखा जा सकता है. ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह है. ग्रीन हाउस गैसें सूरज की गर्मी को भी अवशोषित करती हैं.
यह मान्यता रही है कि पेड़ कार्बन डाईऑक्साइड को सोख कर ऑक्सीजन में बदलते हैं. सो, जंगल बढ़ने से कार्बन का असर कम होगा. यह एक आंशिक तथ्य है. कार्बन डाईऑक्साइड पेड़ों की वृद्धि में सहायक है. लेकिन यह तभी संभव होता है, जब पेड़ों को नाइट्रोजन सहित सभी पोषक तत्व सही मात्रा में मिलते रहें. खेतों में बेशुमार रसायनों के इस्तेमाल से बारिश का बहता पानी कई गैरजरूरी तत्वों को लेकर जंगलों में पेड़ों तक पहुंचता है और इससे वहां के जमीन के नैसर्गिक तत्वों का गणित गड़बड़ा जाता है.
तभी शहरी पेड़ या आबादी के पास के जंगल कार्बन नियंत्रण में बेअसर रहते हैं. यह भी जानना जरूरी है कि जंगल या पेड़ वातावरण में कार्बन की मात्रा को संतुलित करने भर का काम करते हैं, वे न तो कार्बन को संचित करते हैं और न ही उसका निराकरण. दो दशक पहले कनाडा में यह सिद्ध हो चुका था कि वहां के जंगल कार्बन उत्सर्जित कर रहे थे. कार्बन की बढ़ती मात्रा दुनिया में भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं को न्योता है.
इससे जूझना दुनिया का फर्ज है, लेकिन भारत में मौजूद प्राकृतिक संसाधन व पारंपरिक ज्ञान इसका सबसे सटीक निदान है. छोटे तालाब व कुएं, पारंपरिक मिश्रित जंगल, खेती व परिवहन के पुराने साधन, कुटीर उद्योग का सशक्तीकरण ऐसे प्रयास हैं, जो कार्बन पर नियंत्रण कर सकते हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)