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बढ़ती जनसंख्या की गंभीर चुनौती

माना जा रहा है कि देश की आबादी लगभग 135 करोड़ के आसपास होगी. बढ़ती आबादी का असर बहुआयामी है. जनसंख्या का देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ता है.

पिछले सप्ताह दुनिया की जनसंख्या आठ अरब के पार हो गयी. यह आंकड़ा 2030 तक 8.5 अरब, 2050 तक 9.7 अरब और 2100 तक 10.4 अरब हो सकता है. हाल में आयी संयुक्त राष्ट्र वार्षिक विश्व जनसंख्या रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि 1950 के बाद से आबादी धीमी दर से बढ़ रही है. यह आबादी 2037 तक नौ अरब तक पहुंच जायेगी. चौंकाने वाला तथ्य यह है कि अगले दो से तीन दशकों में आधी आबादी आठ देशों में रह रही होगी.

रिपोर्ट के अनुसार, 2050 तक भारत, पाकिस्तान, कॉन्गो, मिस्र, इथियोपिया, नाइजीरिया, फिलीपींस और तंजानिया में दुनिया की 50 प्रतिशत आबादी रह रही होगी. वृद्धि के लिहाज से चीन को इस साल पीछे छोड़ कर भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जायेगा. जनसंख्या बढ़ोतरी का मुख्य कारण दुनिया में हो रही कम मौतें और बढ़ता जीवनकाल है. इसका एक अर्थ यह भी है कि दुनिया में बुजुर्गों की आबादी भी बढ़ रही है, जो एक अलग चुनौती है.

सदियों तक जनसंख्या वृद्धि को सामाजिक नजरिये से देखा जाता था, लेकिन ब्रिटिश अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस ने 1798 में इसे आर्थिक नजरिये से देखा और जनसंख्या के सिद्धांत के रूप में इसके प्रभावों की व्याख्या की. माल्थस ने कहा कि जनसंख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ती है, जबकि संसाधनों में सामान्य गति से ही वृद्धि होती है. उनका कहना था कि हर 25 वर्ष बाद जनसंख्या दोगुनी हो जाती है. इससे जनसंख्या एवं खाद्य सामग्री में असंतुलन पैदा हो जाता है, जिसे प्रकृति अपने अनुसार अकाल, आपदाएं, युद्ध, महामारी के द्वारा नियंत्रित करती है.

उनका कहना था कि जनसंख्या इसी रफ्तार से बढ़ती रही, तो मानव के अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न हो सकता है. माल्थस ने तब ये बातें कहीं थीं, जब इंग्लैंड में चिंतन चल रहा था कि तरक्की करने के लिए जनसंख्या वृद्धि जरूरी है. माल्थस की बातों का असर दुनिया पर लंबे समय तक रहा. कई पश्चिमी देशों में तो जबरन नसबंदी जैसी बातें जोर पकड़ने लगीं, लेकिन माल्थस का सिद्धांत समय की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका.

माल्थस ने यह नहीं सोचा था कि खेती में वैज्ञानिक तौर-तरीके अपनाये जायेंगे और हरित क्रांति और श्वेत क्रांति जैसे बदलाव होंगे, जिससे पैदावार कई गुना बढ़ जायेगी, लेकिन माल्थस की सारी बातों को खारिज नहीं किया जा सकता है. इसमें दो राय नहीं हो सकती है कि जनसंख्या तथा संसाधनों के बीच गहरा संबंध है. जनसंख्या वृद्धि दर संसाधनों की वृद्धि दर से अधिक होती है और आबादी बढ़ने से संसाधनों पर दबाव बढ़ता है.

कुछ वर्षों बाद भारत दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जायेगा. देश के विकास की राह में यह बड़ी चुनौती है. जितनी तेजी से देश की जनसंख्या बढ़ रही है, उतनी तेजी से संसाधनों का विकास संभव नहीं है. आजादी के बाद पहली जनगणना 1951 में हुई थी और तब देश की आबादी थी 36 करोड़. साल 1961 की जनगणना में आबादी लगभग 44 करोड़ और 1971 में 55 करोड़ हो गयी. साल 1981 की जनगणना में यह आंकड़ा 68 करोड़ हो गया.

साल 1991 में हमारे देश की आबादी बढ़ कर 85 करोड़ थी, तो 2001 में यह 100 करोड़ पार कर गयी. दस साल बाद 2011 में जनसंख्या 121 करोड़ हो गयी. अब माना जा रहा है कि देश की आबादी लगभग 135 करोड़ के आसपास होगी. बढ़ती आबादी का असर बहुआयामी है. जनसंख्या का देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ता है. इसके कारण खाद्यान्न का संकट उत्पन्न होता है और बेरोजगारी बढ़ती जाती है.

इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए रोजगार के अवसर उत्पन्न करना नामुमकिन है. इस कारण अनेक सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं. जमीन पर बोझ बढ़ा है, जिसने पारिवारिक संघर्ष को जन्म दिया है. जनसंख्या के पक्ष में एक तर्क दिया जाता है कि इसने हमें दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार बना दिया है, जिसके कारण हर विदेशी कंपनी भारत आना और निवेश करना चाहती है.

जागरूकता फैलाने में केंद्र और राज्य सरकारें पहल कर सकती हैं, लेकिन एक सीमा के आगे इस संवेदनशील विषय पर सरकार की भूमिका सीमित हो जाती है. लोग स्वयं ही एक या दो बच्चे ही पैदा करें, तो बेहतर होगा. लोगों में यह भाव पैदा हो कि छोटा परिवार रखना भी एक तरह से देशभक्ति है. जनसंख्या का सीधा संबंध शिक्षा से भी है. अधिकतर शिक्षित परिवारों में आप बच्चों की संख्या सीमित ही पायेंगे, लेकिन शिक्षा के अभाव में जितने हाथ, उतनी अधिक कमाई जैसा तर्क चल पड़ता है और अशिक्षित माता-पिता अधिक बच्चे पैदा करने लगते हैं.

चार राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल में आबादी का घनत्व सबसे ज्यादा है. एक और अहम तथ्य है कि दो हिंदी भाषी राज्यों- बिहार और उत्तर प्रदेश- में 30.4 करोड़ से ज्यादा लोग बसते हैं यानी देश की एक-चौथाई आबादी केवल दो राज्यों में है. यह तथ्य चौंकाता तो नहीं है, लेकिन हालात की गंभीरता की ओर जरूर इशारा करता है.

बड़ी जनसंख्या राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकती है, लेकिन इससे उत्पन्न होने वाली समस्याएं अत्यंत गंभीर हैं. यूपी और बिहार जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों में हम अभी बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर पाये हैं. अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड प्रति व्यक्ति आय के मामले में पिछड़े हुए हैं. हम अब भी शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी की समस्या से जूझ रहे हैं.

इतिहास के पन्ने पलटे तो हम पायेंगे कि इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए जबरन नसबंदी करने की कोशिश की थी. पुष्ट आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन अनुमान है कि लगभग 60-65 लाख लोगों की नसबंदी कर दी गयी थी. नतीजा यह निकला कि इंदिरा गांधी की सरकार चली गयी, लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान यह हुआ कि नेता जनसंख्या नियंत्रण का नाम लेने से ही भय खाने लगे.

अरसे बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले से घोषणा कर जनसंख्या नियंत्रण को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाये. उन्होंने कहा कि तेजी से बढ़ती जनसंख्या पर हमें विचार करना होगा. सीमित परिवार से हम अपना ही नहीं, बल्कि देश का भी भला करेंगे. आज स्थिति यह है कि किसी भी दल के एजेंडे में बढ़ती जनसंख्या नहीं है और न ही यह कोई चुनावी मुद्दा है. समाज में भी इसको लेकर कोई विमर्श नहीं है. यदि इसी तरह से जनसंख्या बढ़ती रही, तो अनेक गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो जायेंगी.

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