हिंदी में ‘नयी कविता’ आंदोलन के बाद युयुत्सावाद का प्रवर्तन करने वाले ‘बगावत के बोहेमियन कवि’ शलभ श्रीराम सिंह की नज्म ‘नफस-नफस कदम-कदम’ देखते ही देखते, उनके जीवनकाल में ही, आंदोलनों का प्रयाण गीत बन गयी, तो अभिभूत आलोचकों ने यहां तक कह डाला था कि शलभ इसके बाद कुछ न रचें, तो भी लंबे वक्त तक याद किये जायेंगे. नागार्जुन मानने लगे थे कि शलभ से हिंदी कविता का नया गोत्र आरंभ होता है. आज हम कह सकते हैं कि वे आलोचक गलत नहीं थे.
साल 1938 में पांच अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद (अब अंबेडकरनगर) जिले के मसोढ़ा गांव में जन्मे शलभ को माता-पिता ने श्रीराम नाम दे रखा था. कवि बनने की प्रक्रिया में उन्हें लगा कि श्रीराम को उनके भाइयों शत्रुघ्न, लक्ष्मण और भरत से दूर रखना ठीक नहीं, तो उन्होंने अपने नाम में श्रीराम से पहले शलभ जोड़ लिया था. उनके 16-17 साल के होते-होते पिता रामखेलावन ने एक रूपगर्विता कन्या से उनका विवाह तय कर दिया. उन दिनों के रिवाज के अनुसार इस विवाह के लिए न शलभ की सहमति ली गयी, न ही उक्त कन्या की. विवाह के दिन यह देखकर कन्या पर बिजली सी गिर पड़ी कि दूल्हे का रंग काला है. विवाह तो हुआ, पर लेकिन सुहागरात में ही उनके काले रंग को लेकर कन्या ने इतना अपमानित किया कि उन्हें घर छोड़कर कोलकाता भाग जाने में ही निस्तार दिखा.
कोलकाता में उन्हें मूनलाइट थियेटर में चाय पिलाने वाले लड़के का काम मिला. वहां कवियों व कलाकारों की संगति में रहते-रहते उनके भीतर भी काव्य-प्रतिभा जाग उठी और उन्होंने ‘शलभ फैजाबादी’ नाम से शायरी शुरू कर दी. उन्होंने वहां दूसरा विवाह कर घर भी बसाया. उन्हीं की मानें, तो उन्होंने 1962 से कवि-कर्म को गंभीरता से स्वीकारा और मसिजीवी कहलाने में गर्व का अनुभव करने लगे. वहीं एक गोष्ठी में 1963 में वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह से उनकी भेंट हुई.
विजय बहादुर सिंह बताते हैं कि हिंदी के कई दूसरे साहित्यकारों की तरह शलभ के सृजन की शुरुआत भी उर्दू से हुई और उन्होंने क्लासिक के साथ फैज, फिराक व मजाज के टेंपरामेंट वाली अनेक गजलें रचीं. गजल के फॉर्म को लेकर वे जिगर मुरादाबादी से बहुत प्रभावित थे. आगे चलकर शलभ ने भाषा और छंद की कोई भी बंदिश या कैद अस्वीकार कर दी और खुद को हिंदी-उर्दू की पूरी परंपरा का वारिस और उसका नया अध्याय मानकर दोनों के बीच पूरी शक्ति से संचरण करने लगे. वे उन आलोचकों से बहुत चिढ़ते थे, जो कवियों को उनके कालक्रम के मुताबिक अलग-अलग दशकों में बांटकर किसी को इस तो, किसी को उस दशक का कवि बताते थे.
निजी जीवन में ‘अराजक’ होने के बावजूद शलभ अपनी कविताओं की भाषा, छंद और कल्पनाओं को बेहद सधी हुई, सटीक व व्यवस्थित रखते थे. वे हर तरह के अन्याय व अत्याचार के प्रति असहिष्णु थे और उनकी स्वाधीन काव्यदृष्टि निर्मम सत्ताओं या व्यवस्थाओं से लोहा लेने में किंचित भी आगा-पीछा नहीं करती थी. गीत हो, नवगीत हो, नयी कविता, पारंपरिक गजल, बदलावधर्मी नज्म या फिल्मी गीत- सबकी रचना में शलभ एक जैसी विशिष्टता के साथ बेलौस होकर सामने आते थे. विजय बहादुर सिंह बताते हैं कि उन्होंने अपना पहला गीत ‘मेघदूत’ से प्रभावित होकर लिखा था और अपनी गजलों के संस्कार के लिए अपने पैतृक जनपद के शायर अनवर जलालपुरी के कृतज्ञ थे.
उनकी पहली रचना कोलकाता के दैनिक ‘सन्मार्ग’ में शलभ फैजाबादी नाम से छपी थी. जल्दी ही धर्मयुग, कल्पना, कादम्बिनी और साप्ताहिक हिन्दुस्तान समेत उन दिनों की प्रायः सारी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी धूम मच गयी थी. कादंबिनी ने अपनी 1963 की गीत प्रतियोगिता में उनके ‘गीत और बांसुरी’ को पुरस्कृत किया, तो धर्मयुग ने अपनी ‘नये गीत हस्ताक्षर’ शृंखला में पांचवें हस्ताक्षर के तौर पर छापा था और नरेश सक्सेना को उनके बाद जगह दी थी. साल 1979 में वे फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाने मुंबई चले गये, जहां कुलभूषण खरबंदा के साथ भी कुछ वक्त गुजारा था. लेकिन फिल्मों की दुनिया उन्हें कुछ रास नहीं आयी.
मुंबई से लौटकर वे पहले कोलकाता, फिर विदिशा और अंत में अपने गांव मसोढ़ा चले गये. वहीं 23 अप्रैल, 2000 को उन्होंने रहस्यमय परिस्थितियों में इस संसार को अलविदा कहा. उस वक्त वे ‘अवांतर’ नाम से एक मासिक के प्रकाशन की योजना बना रहे थे. उनके संपादन में निकली ‘अनागता’, ‘परंपरा’ और ‘रूपांबरा’ जैसी पत्रिकाएं खूब चर्चा बटोर चुकी थीं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)