नौवें दशक की बात है. बेरोजगार घूम रहा था और कई मीडिया संस्थानों में जगह न मिलने से पैदा हुई निराशा से मनोबल टूट रहा था. ऐसे में अयोध्या (तब फैजाबाद) से प्रकाशित दैनिक ‘जनमोर्चा’, जिसकी जनपक्षधरता की अंचल में तूती बोलती थी, से इंटरव्यू के लिए बुलावा आया, तो भी अंदर से बहुत उत्साह नहीं जागा. सौ किलोमीटर की यात्रा कर जनमोर्चा के दफ्तर पहुंच कर किसी से पूछा कि संपादक जी (यानी शीतला सिंह) कहां बैठते हैं, तो उसने सामने वाली कुर्सी की ओर इशारा किया. यह कैसे संपादक हैं! न ढंग का कमरा, न केबिन, न इंतजार करते मिलने वाले, न उन्हें रोकने को चपरासी, न समय लेने और स्लिप भिजवाने का झंझट!
मैंने मन ही मन सोचा और अंदाजा लगाया कि यह बंदा जरूर किसी और मिट्टी का बना है. बहरहाल, मैंने परिचय दिया, तो बोले- हां, बायोडाटा देख लिया है आपका. लिखने-पढ़ने वाले आदमी लगते हैं आप, लेकिन जनमोर्चा में आपकी नौकरी इस पर निर्भर करेगी कि आपकी शादी हुई है या नहीं. जाड़े के दिन थे, लेकिन उनकी बात सुन कर मुझे पसीना छूटने लगा. हिम्मत कर कहा- मेरी शादी हो गयी है सर, लेकिन इस नौकरी का मेरी शादी से भला क्या संबंध? वे हंसे और बोले- तुम्हें नहीं मालूम कि शादीशुदा आदमी कितना जिम्मेदार होता है! आज्ञापालन की कितनी आदत होती है उसे!
कई साल बाद पता चला मुझे कि उस रोज वे मुझे नहीं, अपने गुरु महात्मा हरगोविंद को ‘सता’ रहे थे, जिन्होंने इसलिए शादी नहीं की थी कि उन्हें लगता था कि शादी से स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी सक्रियता में बाधा आयेगी. फिर उन्होंने अपने जीवन के दो और लक्ष्य निर्धारित कर लिये थे- मुक्तिकामी लेखन और लोगों को जागरूक करने वाली पत्रकारिता.
गजब यह कि शीतला सिंह बाल-बच्चेदार होने के बावजूद उनके अनुयायी थे. जनमोर्चा में काम करते हुए मुझे शीतला सिंह के संपादकीय व्यक्तित्व की दो और बातें बहुत अच्छी लगीं- उनसे किसी भी समय किसी भी काम के लिए मिला जा सकता था और उनसे कहा जा सकता था कि आपसे असहमति है. एक दिन तो गजब ही हो गया. एक बड़े दैनिक ने मुझसे उनका इंटरव्यू करने के लिए कहा. वे बड़ी मुश्किल से राजी हुए, पर कहा- अपने सारे सवाल लिख लाओ.
मैं लिख कर ले गया, तो आदेश दिया- अब इनका जवाब भी लिखो. मुझे हतप्रभ-सा देख कर कहने लगे- दो दशक मेरे साथ काम करके भी तुम मुझे नहीं समझ पाये, तो तुम पर भी लानत है और मुझ पर भी. मरता क्या न करता, मैंने जवाब भी लिखे. उन्हें दिखाने ले गया तो बोले- ये हुई न बात! उन्होंने थोड़ा-बहुत संशोधन किया और मुझे लौटा दिया.
एक बातचीत में उन्होंने बेधड़क अपने विचार व्यक्त किये थे. कहा था- ‘आज की तारीख में यह देख कर बहुत अफसोस होता है कि पत्रकारिता की मार्फत जितनी जन-जागरूकता हम लाना चाहते थे, नहीं ला पाये. लेकिन फिर सोचता हूं कि यह असफलता मेरी अकेले की नहीं, सामूहिक है. इस क्षेत्र में व्यावसायिकता और लाभ का सारी नैतिकताओं से ऊपर होते जाना देख कर भी अफसोस होता है.
मेरे देखते ही देखते मूल्य आधारित और जनपक्षधर पत्रकारिता की अलख जगाने वाले संपादकों की पीढ़ी समाप्ति के कगार पर पहुंच गयी और अपनी निजी उपलब्धियों के लिए चिंतित रहने वाले लोग चारों ओर छा गये. सबसे अफसोसनाक यह है कि अब संपादक नाम की संस्था ही लुप्त होने की कगार पर है.’
गत मंगलवार को अयोध्या के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली, तो मैं उनकी इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए सोचता रहा कि हिंदी पत्रकारिता ने उनके जीवन के साथ क्या-क्या खो दिया है और वह कितनी निर्धन हो गयी है, पर मैं अब भी यह नहीं सोच पा रहा कि उनके द्वारा ‘जनमोर्चा’ के मार्फत विकसित की गयी अनूठी वस्तुनिष्ठ व प्रतिरोधी पत्रकारिता का आगे क्या होगा. शीतला सिंह कोई साठ साल ‘जनमोर्चा’ के संपादक रहे. संभवतः वे दुनिया में सबसे अधिक समय तक संपादक रहने वाले व्यक्ति थे.
उनका यह कार्यकाल 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान ‘जनमोर्चा’ के एक संपादकीय को सरकार के युद्ध प्रयत्नों में बाधक करार देकर उसके संस्थापक संपादक महात्मा हरगोविंद को जेल भेजे जाने के बाद की बेहद असामान्य परिस्थितियों में शुरू हुआ था. वे कोई चार दशक तक अयोध्या में समाजवादी विचारक डॉ राममनोहर लोहिया की परिकल्पना वाले रामायण मेलों के आयोजन के सूत्रधार और चार बार प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के सदस्य रहे.
अयोध्या विवाद की उग्रता के दिनों में उसके समाधान के प्रयासों का हिस्सा होने के कारण वे उसकी रग-रग से वाकिफ हो चले थे. उनकी यह वाकफियत ऐसी थी कि कई लोग उन्हें उस मामले का विशेषज्ञ करार देने लगे थे. लेकिन अपनी नैतिकता के तहत उन्होंने इसका कोई लाभ उठाने से हमेशा परहेज बरता. प्रवाह के विपरीत तैरने की शीतला सिंह की आदत आखिरी क्षणों तक बनी रही. उनकी एकमात्र इच्छा थी कि वे आखिरी सांस तक सक्रिय रहें. मंगलवार को अपने आखिरी दिन भी वे जनमोर्चा कार्यालय आये थे.