Loading election data...

निखरते पर्यावरण के सबक

कोरोना के कहर से दुनिया के अनेक विकसित और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर आघात के आसार हैं. दुर्भाग्य से दुनिया का सबसे बड़ा लॉकडाउन झेलने को अभिशप्त हमारा देश भी इनमें शामिल है

By कृष्ण प्रताप | April 13, 2020 10:55 AM

कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

kp_faizabad@yahoo.com

कोरोना के कहर से दुनिया के अनेक विकसित और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर आघात के आसार हैं. दुर्भाग्य से दुनिया का सबसे बड़ा लॉकडाउन झेलने को अभिशप्त हमारा देश भी इनमें शामिल है. हालांकि, इस लॉकडाउन से कई हलकों में फायदों की भी बात कही जा रही है. खास कर नौकरीपेशा तबके का एक बड़ा हिस्सा खुश है कि वर्क फ्रॉम होम के कारण दफ्तर आने-जाने में जाया होनेवाला समय बच रहा है. उसे अपनी लाइफस्टाइल सुधरने की भी उम्मीद है. सेवा-नियोजकों के लिहाज से अच्छी बात यह है कि ‘वर्क फ्रॉम होम’ के कारण काम से कोई समझौता नहीं हो रहा और कर्मचारियों को घर से काम करने की आदत बनने लगी है. लॉकडाउन के कारण वाहन और ट्रेनें नहीं चल रहीं, तो उनसे होनेवाली दुर्घटनाएं भी थम गयी हैं.

अखबार जान-माल के नुकसानों की खबरों से भरे हुए नहीं आ रहे, तो न्यूज चैनलों पर मौतों की प्रायः खबरें कोरोना के ही नाम हैं. दिल्ली पुलिस की मानें, तो राजधानी क्षेत्र में आपराधिक गतिविधियों में 42 प्रतिशत की कमी आयी है. लेकिन, सच पूछिए तो लॉकडाउन का सबसे बड़ा लाभ हमारे पर्यावरण को हुआ है- बड़े शहरों की आबोहवा, जो मनुष्य के प्रकृति-विरोधी क्रियाकलापों के कारण बिगड़ती जा रही थी और अब हर सुबह कुछ नयी दिख रही है. हवा-पानी पर लॉकडाउन का असर और अच्छा होता, अगर गत पांच अप्रैल को करोड़ों लोग प्रधानमंत्री मोदी की अपील पर रात नौ बजे लाइटें बुझा कर दीये, मोमबत्तियां और मोबाइल की फ्लैश लाइटें वगैरह जलाने से आगे नहीं बढ़ जाते. प्रधानमंत्री ने लोगों से शांति के साथ एकजुटता का प्रदर्शन करने को कहा था.

किन, उन्होंने आतिशबाजी भी की और पटाखे भी फोड़ डाले. इसका बुरा असर देखने में आया कि दिल्ली के आनंद विहार इलाके में पांच अप्रैल का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआइ) 92 छह अप्रैल को लंबी छलांग लगा कर 137 हो गया. इसी तरह गाजियाबाद में एक्यूआई 174 से 223 यानी खराब स्तर तक पहुंच गया. साफ है कि इन सभी शहरों में हवा की गुणवत्ता में गिरावट आयी है. इस बात पर संतोष जताया जा सकता है कि अरबों रुपये के ‘नमामि गंगे’ जैसे अभियानों के बावजूद जो गंगा नदी अविरल व साफ नहीं हो पा रही थी, वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार वह अधिकांश स्थानों पर कम-से-कम नहाने लायक हो गयी है. दिल्ली में जो यमुना गंदा नाला बन गयी थी, उसका पानी साफ हो गया है.

पिछले दिनों पंजाब में जालंधर के लोगों ने अपने घरों से ही बर्फ से आच्छादित धौलाधार की पहाड़ियों को देखा. इसे देखने के लिए दूर-दूर से पर्यटक हिमाचल के धर्मशाला शहर पहुंचते हैं. हरिद्वार में सुनसान सड़कें पाकर हाथी पवित्र स्नानस्थल हर की पौड़ी तक पहुंच रहे हैं और कई स्थानों पर तेंदुओं और हिरणों को इंसानी इलाकों में विचरण करते देखा जा रहा है. चीन, इटली व स्पेन आदि देशों में जनजीवन ठप होने के बाद आसमान में तारे स्पष्ट नजर आये हैं, जो पहले धुंध व धूल के चलते ठीक से नजर नहीं आते थे. कई देशों में अनेक नदियों का पानी मछलियों व अन्य जीवों के लिए अनुकूल हुआ है. निस्संदेह यह स्थिति अस्थायी है. लॉकडाउन खत्म होते ही दुनिया पुरानी राह पर चल पड़ेगी, जिससे पर्यावरण के हालात पूर्ववत हो जायेंगे. लेकिन, स्थिति पर एक और नजरिये से सोचा जा सकता है.

ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्डियन’ ने लिखा है कि जैसे हर बड़ी आपदा के बाद दुनिया की राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक समझ व सिद्धांतों में बदलाव आते हैं, कोरोना से लड़ाई के बाद भी आयेंगे, जिसमें भयभीत इंसानी बुद्धि की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. उम्मीद की जा सकती है मनुष्यों की सोच में बदलाव आयेगा. उनकी समझ बन गयी है कि यह समूची धरती सिर्फ मनुष्यों के लिए है. मनुष्य मानने लगें कि धरती जैव विविधता (उत्परिवर्तन जिसका बड़ा कारण है) से ही बनी है और उसी से सुरक्षित व संरक्षित रहेगी, तो ये बदलाव मनुष्यता के हित में और सार्थक सिद्ध होंगे. मनुष्य यह समझ ले कि स्वार्थी दोहन के लिए बंधनों में जकड़ने की कोशिशें प्रकृति को उकसाती रहती हैं और इसी कारण वह कभी इबोला, कभी स्वाइन फ्लू, कभी ड़ेगू, कभी मार्श तो कभी कोरोना को जन्म देती रहती है.

संक्रमणजनित रोगों पर हुए अध्ययन भी बताते हैं कि प्रदूषित क्षेत्रों में वायरसों का ज्यादा प्रकोप होता है. फिलहाल, का सबसे बड़ा सबक यही है कि अगर हमें कोरोना जैसे संकटों को सिर मढ़नेवाला प्रतिगामी विकास नहीं चाहिए, तो अपने साथ पर्यावरण और प्रकृति का भी ख्याल रखें. कहने का आशय यह नहीं कि हम कोरोना से डर कर लॉकडाउन जैसी पाबंदियों को अपनी नियति बना लें, लेकिन उस संदेश को तो सुनना ही होगा, जो प्रकृति कोरोना के बहाने पैदा हुई परिस्थितियों की मार्फत हमें दे रही है. निस्संदेह, यह संदेश विकास की परिभाषा तय करने का है. समझने का कि हमने विकास की आकांक्षा को नये सिरे से परिभाषित नहीं किया, तो आगे और संकट हमारी अगवानी करते मिल सकते हैं. महात्मा गांधी ने गलत नहीं कहा था कि यह धरती मां के तौर पर जरूरतें तो हर किसी की पूरी कर सकती है, मगर किसी एक व्यक्ति की भी हवस के लिए कम है.

Next Article

Exit mobile version