लोकसभा चुनाव में जीत के बावजूद भाजपा के लिए झटका

भाजपा अपने दम पर ढाई सौ का आंकड़ा भी पार करती नहीं दिख रही है. भाजपा को सबसे ज्यादा उम्मीद जिस उत्तर प्रदेश से रही है, वहां वह चालीस से भी नीचे जाती दिख रही है.

By उमेश चतुर्वेदी | June 5, 2024 8:43 AM
an image

लोकसभा चुनाव नतीजों में भाजपा भले ही सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी हो, लेकिन यह उसके लिए बड़ा झटका ही माना जायेगा. साल 2014 में जब वह 283 सीटों के साथ अपने दम पर बहुमत हासिल कर सत्ता में आयी थी, तब कहा गया था कि मतदाता प्रबुद्ध हो गया है और उसे अस्थिर सरकारें मंजूर नहीं हैं. पिछले आम चुनाव ने इसी धारणा को आगे बढ़ाया और ब्रांड मोदी स्थापित हो गया. पर 2024 में स्थितियां बदली हैं.

ये पंक्तियां लिखने के वक्त तक भाजपा अपने दम पर ढाई सौ का आंकड़ा भी पार करती नहीं दिख रही है. भाजपा को सबसे ज्यादा उम्मीद जिस उत्तर प्रदेश से रही है, वहां वह चालीस से भी नीचे जाती दिख रही है. बिहार में भी वह सबसे बड़ा दल होती थी, लेकिन इस बार जद (यू) आगे निकल गया है. पश्चिम बंगाल में उसे बड़ी जीत की उम्मीद थी, लेकिन वैसा नहीं हुआ, उलटे सीटें भी घट गयीं. राजस्थान में भी ऐसी ही स्थिति है. उसे हरियाणा में भी झटका लगा है. लेकिन प्रज्ज्वल रेवन्ना कांड के बाद जिस कर्नाटक से उसे सबसे ज्यादा झटके की उम्मीद थी, वहां से उसे उतना नुकसान नहीं हुआ है. भाजपा भले ही तमिलनाडु से बहुत आशा कर रही थी, लेकिन वहां भी उसके सहयोगी दल को महज एक सीट पर ही जीत मिलती दिख रही है. पार्टी को महाराष्ट्र में भी बड़ा नुकसान हुआ है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भाजपा को उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, बिहार और हरियाणा से बड़ा झटका लगा है. सबसे ज्यादा समर्थन उसे मध्य प्रदेश से मिला है और गुजरात में भी उसका गढ़ बचा हुआ है. असम, अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल में भी भारतीय जनता पार्टी का जादू कायम है.

बहुमत न हासिल होने की स्थिति में अब संगठन की अहमियत बढ़ेगी. एक संदेश यह भी है कि संगठन को जमीनी लोगों पर भरोसा करना होगा. भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि तीसरी बार वह सत्ता पर काबिज होगी. उसने उन राज्यों में भी अपनी उपस्थिति बनाने में कामयाबी हासिल की है, जहां वह नहीं थी.

फौरी तौर पर देखें, तो उत्तर प्रदेश में भाजपा के कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण युवाओं का गुस्सा माना जा रहा है. राज्य में बार-बार परीक्षाओं के पेपर आउट होते रहे. इस वजह से युवाओं की नौकरियां लगातार दूर जाती रहीं. अग्निवीर योजना को लेकर विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सपा नेता अखिलेश यादव, ने जिस तरह मुद्दा बनाया, उसने युवाओं में भाजपा के खिलाफ गुस्सा भर दिया. राम मंदिर निर्माण के बाद समूचा देश जिस तरह राममय हुआ था, उससे भाजपा को उम्मीद थी कि पार्टी को रामभक्तों का बहुत साथ मिलेगा. पर उत्तर प्रदेश में ही राम की लहर नहीं चल पायी. राज्य के मौजूदा हालात के चलते 1999 का आम चुनाव याद आ रहा है. तब उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश का हिस्सा था और सीटों की कुल संख्या 85 थी. साल 1998 के चुनाव में भाजपा को 52 सीटें मिली थीं, लेकिन बाद में कल्याण सिंह ने बागी रुख अपना लिया, तो अगले ही साल हुए चुनाव में उसकी 23 सीटें घट गयीं. कुछ ऐसी ही स्थिति इस बार दिख रही है. पार्टी अपना आकलन तो करेगी, लेकिन मोटे तौर पर माना जा रहा है कि राज्य में भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान युवाओं के गुस्से, राज्य सरकार के स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार न रोक पाने और गलत उम्मीदवार देने की वजह से हुआ. मसलन, बलिया से नीरज शेखर की उम्मीदवारी पर पार्टी के ही लोगों को सबसे ज्यादा एतराज रहा. खुद प्रधानमंत्री मोदी भी डाक मतपत्रों में छह हजार से ज्यादा वोटों से पीछे रहे. इसका मतलब साफ है कि लोगों के गुस्से को भांपने में पार्टी नाकाम रही.

बिहार के बारे में माना जा रहा था कि नीतीश को नुकसान होगा, पर वे अपनी ताकत बचाये रखने में कामयाब हुए हैं. राज्य में अब जनता दल (यू) सबसे बड़ा संसदीय दल है. तो क्या यह मान लिया जाए कि 2020 के विधानसभा चुनाव में कमजोर किये जाने की कथित कोशिश को उन्होंने पलट दिया है! भाजपा को महाराष्ट्र में शायद अजीत पवार को साथ लाना उसके वोटरों को पसंद नहीं आया. भाजपा ही उन्हें राज्य की सिंचाई घोटाले का आरोपी मानती रही और उन्हें ही उपमुख्यमंत्री बनाकर ले आयी. जब कोई विपक्षी व्यक्ति पार्टी या गठबंधन में लाया जाता है, तो सबसे ज्यादा जमीनी कार्यकर्ता को परेशानी होती है. वह पसोपेश में पड़ जाता है कि कल तक वह अपनी पार्टी लाइन के लिहाज से जिसका विरोध करता रहा, उसका अब कैसे समर्थन करेगा. महाराष्ट्र का कार्यकर्ता इसीलिए निराश रहा, जिसका असर नतीजों पर दिख रहा है. हरियाणा के प्रभुत्वशाली जाट वोटरों को सबसे ज्यादा गुस्सा अग्निवीर योजना और शासन में उनकी घटती भागीदारी को लेकर रहा. इसकी वजह से अधिसंख्य मतदाता पार्टी से नाराज हुआ और नतीजा सामने है. राजस्थान में भाजपा का कार्यकर्ता ही मुख्यमंत्री भजनलाल को स्वीकार नहीं कर पा रहा है. दिग्गज नेता वसुंधरा को किनारे लगाये जाने ने भी भाजपा की अंदरूनी राजनीति पर असर डाला. इसका नतीजा है कि पार्टी राज्य में अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पायी. पश्चिम बंगाल में ममता अपने किला बचाने में सफल रहीं. ओडिशा में भाजपा का जबरदस्त प्रदर्शन रहा, जहां राज्य सरकार के साथ ही संसद की ज्यादातर सीटों पर वह काबिज हो चुकी है.

इस चुनाव ने यह भी संदेश दिया है कि गठबंधन की राजनीति खत्म नहीं हुई. दो बार अपने दम पर बहुमत हासिल करने के चलते मोदी-शाह की जोड़ी लगातार अपने एजेंडे को लागू करती रही, पर अब गठबंधन की सरकार होगी, इसलिए अब इस जोड़ी को पहले की तरह काम करना आसान नहीं होगा. एक धारणा यह भी बन गयी थी कि जिस संगठन के चलते भाजपा की पहचान थी, वह धीरे-धीरे किनारे होता चला गया. लेकिन बहुमत न हासिल होने की स्थिति में अब संगठन की अहमियत बढ़ेगी. एक संदेश यह भी है कि संगठन को जमीनी लोगों पर भरोसा करना होगा. भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि तीसरी बार वह सत्ता पर काबिज होगी. उसने उन राज्यों में भी अपनी उपस्थिति बनाने में कामयाबी हासिल की है, जहां वह नहीं थी.

Exit mobile version