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चीन-अमेरिका तनातनी नुकसानदेह

श्विक महामारी के सर्वनाशी दौर कै पहले से ही अमेरिका और चीन के संबंध तनावपूर्ण रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों ही हठी और उग्र देशप्रेमी हैं. दोनो के ही लिए अपने राष्ट्रहित सर्वोपरि हैं, जिनमें समझौता नहीं किया जा सकता है.

By पुष्पेश पंत | April 20, 2020 9:46 AM

प्रो पुष्पेश पंत

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार

pushpeshpant@gmail.com

कोविड वैश्विक महामारी के सर्वनाशी दौर कै पहले से ही अमेरिका और चीन के संबंध तनावपूर्ण रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों ही हठी और उग्र देशप्रेमी हैं. दोनो के ही लिए अपने राष्ट्रहित सर्वोपरि हैं, जिनमें समझौता नहीं किया जा सकता है. इसी कारण जब अमेरिका ने चीन पर तरह तरह के आरोप लगाते हुए उसके विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगाये, तो चीन ने इनके जबाब में अमेरिकी उत्पादों पर कड़े शुल्क लगाने का ऐलान कर दिया था. यह एक वाणिज्य युद्ध की शुरुआत थी. ट्रंप को लगता था कि चीन पहले पलक झपकायेगा, वहीं चीन का मानना था कि जितनी निर्भरता अमेरिका की चीनी आयात, बाजार और कुशल कारीगरों पर है, उतनी चीन की अमेरिका से आयात पर नहीं. विडंबना यह है कि अमेरिका और चीन विश्व के बीच उभयपक्षीय व्यापार का आंकड़ा कई खरब डॉलर को पार कर चुका है, सो ऐसे आचरण से दोनों को ही नुकसान होने की संभावना है.

अन्य देशों पर इसके असर की पड़ताल से पहले यह देखना जरूरी है कि दोनों देशों के परस्पर आरोपों की असलियत क्या है? अमेरिका के अनुसार चीन बौद्धिक संपत्ति की चोरी करती है, अमेरिकी पेटेंटों का उल्लंघन कर तस्करी करता है, अपनी कंपनियों को गुप्त अनुदान देता है और पर्यावरण को प्रदूषित करनेवाली सस्ती उत्पादन प्रणाली से अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के निर्यातों की प्रतिस्पर्धा क्षमता नष्ट करता है. वह लागत से कम कीमत पर चीजों का निर्माण करता है और इसे बाजार में झोंकता रहता है प्रतियोगियों को ध्वस्त करने के लिए. वह श्रमिकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है और अंतरराष्ट्रीय कानून की अवहेलना करता है.

रही बात बौद्धिक संपदा की चोरी और नकलची उत्पादों की तस्करी की, तो तीसरी दुनिया के अनेक देशों की जायज शिकायत है कि अपनी राजनीतिक ताकत का दुरुपयोग कर अमेरिका ने जो पेटेंट प्रणाली प्रतिष्ठित की है, वह दूसरों के लिए मैदान नहीं छोड़ती. प्राणरक्षक औषधियों के उत्पादन तक को एकाधिकारी नियंत्रण में रखा जाता है. विवादों के निपटारे के बारे में अमेरिका विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्था को चुनौती देता रहा है और अपने किसानों, पशुपालन उद्योग को संरक्षण देने के लिए अनुदान देने में पीछे नहीं रहा है. मौसम बदलाव के विज्ञान को ट्रंप अमेरिकाद्वेषी फरेब समझते हैं और पर्यावरण संरक्षण की लेशमात्र चिंता इस प्रशासन को नहीं रही है. अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन और मानवाधिकारों की अवहेलना में अमेरिका चीन से पीछे नहीं कहा जा सकता.

दुर्भाग्य यह है कि शेष विश्व को इन दोनों से अपने हित साधन के लिए कुछ न कुछ नाता रखने की मजबूरी है. कोविड-19 के संक्रमण ने इन दोनों देशों का चेहरा बेनकाब कर दिया है. ट्रंप ने भारत के साथ खास दोस्ती का जो मुखौटा पहना था, वह उस वक्त बुरी तरह फट गया, जब उन्होंने मलेरिया की दवाई के भारत से निर्यात पर रोक को हटाने के लिए धमकी देने की जरूरत समझी. बाद में चाहे लाख लीपापोती की जाए, इस बात को भुलाना असंभव होगा कि यह बाजू मरोड़ने जैसी हरकत थी. इस घड़ी भारत चीन का आभारी है कि उसने कई लाख टेस्टिंग किट हमें भेजा है. पर यहां बात याद रखने लायक है कि यह परोपकार नहीं.

इस वक्त चीन कटघरे में खड़ा है. अमेरिका ने उस पर यह आरोप लगाया है कि वुहान शहर में जब यह महामारी प्रकट हुई, तो चीन ने इसे छुपाया ताकि उसकी अर्थव्यवस्था को नुकसान न हो. कुछ आक्रामक दक्षिणपंथी तो यह भी कहने लगे हैं कि चीन ने इस जैविक हथियार का उपयोग अमेरिका तथा पश्चिम की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए ही किया था. साजिश की बात को दरकिनार भी करें, तो यह नजरंदाज़ नहीं किया जा सकता कि चीन ने बीमारी के संकट को घटा कर बताया था. ट्रंप का मानना है कि चीन के दबाव में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने समय से चेतावनी देने में लापरवाही/कोताही बरती.

इसी कारण देर-सबेर कोविड संकट से मुक्त होने के बाद सारी ध्वस्त हो चुकी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का पुनर्निर्माण जरूरी होगा. इस घड़ी ऐसा प्रतीत होता है कि संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन, पर्यावरणीय समझौते कचरे के डब्बे में डाल दिये गये हैं. हर राष्ट्र अपने अकेले हित में काम कर रहा है. श्रमिकों, पूंजी, उत्पादों के लिए जो अंतरराष्ट्रीय राजमार्ग पिछले तीन चार दशक से खुले थे (भले ही वह समान रूप से सभी के लिए अबाध कभी नहीं रहे) अब बंद हैं. विश्व को आर्थिक मंदी से उबरने में बरसों लग सकते हैं. सबसे घातक प्रभाव यूरोपीय समुदाय तथा ब्रिटेन पर पड़ेगा. शैंजेन वीजा प्रणाली एवं यूरोजोन मुद्रा क्षेत्र शरणार्थियों के बोझ से पहले ही बुरी तरह चरमरा रहा था. क्षेत्रीय एकीकरण का यह प्रयोग अब पटरी पर दोबारा लाना कठिन है.

अफ्रीका तथा दक्षिणी अमेरिका के देशों को अलग अलग करना आसान है- खासकर अमेरिका के लिए. पर सामरिक संकट यह है कि इसका सीधा लाभ चीन को तत्काल मिलेगा. जहां तक अमेरिका का प्रश्न है, वहां मृतकों की संख्या चीन की मौतों से काफी ज्यादा है. पर जिस तरह के मतिमंद तुनकमिजाज तेवर ट्रंप दिखला रहे हैं, उनके चलते यह नुकसान बड़े पैमाने पर हो सकता है. दिल दहलानेवाली बात यह है कि अमेरिका में मरने वालों में अधिकांश अश्वेत और निर्धन हिस्पानी मूल के गोरे हैं. अन्य देशों भी इस बीमारी की मार गरीबों पर ज्यादा पड़ी है. अशक्त मसीहानुमा नेतृत्व का उदय चीन, अमेरिका, ब्राजील, तुर्की से लेकर भारत तक दिखायी दे रहा है. यह मानसिकता संकट के समय स्वाभाविक है, पर इसके दूरगामी परिणाम जनतंत्र और समतापूर्ण समाज के लिए घातक ही हो सकते हैं. कुल मिलाकर अमेरिका तथा चीन की तनातनी उनसे अधिक दूसरों के लिए क्लेषदायक साबित हो सकती है.

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