रईसी की मृत्यु के बाद पश्चिम एशिया की स्थिति
साल 2021 से इब्राहिम रईसी की विदेश नीति में पड़ोसी देशों से संबंध बेहतर करना, एशियाई ताकतों, चीन और रूस से रिश्तों को गहरा करना तथा अमेरिका से 2015 में हुए परमाणु समझौते को फिर से लागू करने के लिए प्रयास करना प्रमुख तत्व थे.
ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की मृत्यु ऐसे समय में हुई है, जब इस्राइल के विरुद्ध फिलिस्तीनी संघर्ष का वास्तविक नेतृत्व ईरान के हाथ में आ गया है. हालांकि स्थितियों को देखते हुए ऐसा लगता है कि उनकी अनुपस्थिति का कोई प्रभाव ईरान की रक्षा और विदेश नीति की दिशा पर नहीं पड़ेगा क्योंकि वहां सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के रूप में संस्थागत व्यवस्था है, जो सर्वोच्च नेता अली खामनाई के अधीन है.
परिषद राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति से संबंधित निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था है. राष्ट्रपति चुनाव के लिए 28 जून की तारीख तय की गयी है, तब तक मोहम्मद मोखबर कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेंगे, जो 2021 से देश के प्रथम उपराष्ट्रपति हैं. यदि रईसी का निधन नहीं हुआ होता, तो राष्ट्रपति चुनाव अगले साल होता. माना जाता है कि कुजेस्तान प्रांत के गवर्नर रह चुके मोखबर सर्वोच्च नेता खामनई के विश्वासपात्र हैं. वे खामनई के अधीन काम करने वाली एक ताकतवर आर्थिक संस्था के प्रभारी रह चुके हैं.
ईरान की रक्षा एवं विदेश नीतियों में इब्राहिम रईसी के व्यक्तिगत योगदान पर नजर डालते हैं. जब 2021 में वे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे, तब उनके पास विदेश नीति का कोई अनुभव नहीं था क्योंकि उनका पूरा आधिकारिक करियर न्यायिक सेवा में रहा था और वे ईरान के मुख्य न्यायाधीश भी रहे थे. रूढ़िवादी खेमे की ओर से उन्होंने 2017 में राष्ट्रपति चुनाव लड़ा था, पर ‘उदारवादी’ हसन रूहानी से हार गये थे. साल 2021 में वे 63 प्रतिशत मतों के साथ जीते. उदारवादियों ने तब चुनाव में धांधली के आरोप भी लगाये थे.
साल 1988 में वे एक आयोग से उप प्रमुख अभियोजक के रूप में जुड़े थे, जिसे ‘मौत का आयोग’ भी कहा जाता है. उस आयोग ने बड़ी संख्या में वैसे राजनीतिक विरोधियों को मौत की सजा सुनायी थी, जो अयातुल्ला खुमैनी के क्रांति के समर्थक रहे थे. उस फैसले का अयातुल्ला हुसैन अली मुंतजरी ने विरोध किया था, जो खुमैनी के घोषित उत्तराधिकारी थे. इस विरोध को खुमैनी ने खारिज कर दिया और मुंतजरी को नजरबंद कर दिया गया. रईसी के राष्ट्रपति के कार्यकाल में 2022 के सरकार विरोधी प्रदर्शन का कठोरता से दमन किया गया था.
इन प्रदर्शनों की मुख्य वजह आर्थिक परेशानी और सरकार द्वारा खर्च में कटौती थी. जब 13 सितंबर, 2022 को पुलिस हिरासत में एक कुर्द महिला माशा अमीनी की मौत हो गयी, तो प्रदर्शनों ने नया रुख ले लिया. माशा अपने भाई के साथ रिश्तेदारों से मिलने तेहरान आयी ही थी कि उसे ठीक से हिजाब नहीं पहनने के आरोप में कथित नैतिक पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. लोगों ने आरोप लगाया कि पुलिस ने उसे पीट-पीटकर मार डाला. उसके बाद पूरे देश में बड़े-बड़े प्रदर्शन होने लगे, जिनके बारे में इतिहासकारों ने रेखांकित किया है कि 1979 की क्रांति के बाद ईरान में वैसे प्रदर्शन कभी नहीं हुए. निश्चित रूप से ये प्रदर्शन 2009 में तत्कालीन राष्ट्रपति महमूद अहमदीनिजाद के विरुद्ध हुए ‘ग्रीन मूवमेंट’ के प्रदर्शनों से बहुत बड़े थे.
साल 2021 से इब्राहिम रईसी की विदेश नीति में पड़ोसी देशों से संबंध बेहतर करना, एशियाई ताकतों, चीन और रूस से रिश्तों को गहरा करना तथा अमेरिका से 2015 में हुए परमाणु समझौते को फिर से लागू करने के लिए प्रयास करना प्रमुख तत्व थे. जर्मन इंस्टिट्यूट ऑफ ग्लोबल स्टडीज द्वारा नवंबर 2021 में प्रकाशित अध्ययन में इसे ‘व्यावहारिक क्रांतिकारिता’ कहा गया तथा इसे अली खामनई के बाद युवा क्रांतिकारी पीढ़ी के लिए ऐतिहासिक ‘द्वितीय चरण’ के प्रारंभ की संज्ञा दी गयी. रईसी की नीति का मतलब था- अमेरिका और इस्राइल के विरुद्ध लड़ रहीं प्रतिरोधी शक्तियों का समर्थन करना तथा इस क्षेत्र से अमेरिकी सेना का हटाना. इस नीति की व्यावहारिकता में क्षेत्रीय समस्याओं के लिए क्षेत्रीय समाधान, पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों (संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, तालीबान आदि) से तकरार घटना तथा चीन जैसी एशियाई शक्तियों से रणनीतिक निकटता बढ़ाना शामिल थे.
पर्यवेक्षकों का कहना है कि परमाणु समझौते के अलावा रईसी ने अपने सभी उद्देश्यों को हासिल किया. इस महीने प्रकाशित यूएस इंस्टिट्यूट ऑफ पीस के एक पत्र में कहा गया है कि बड़ी मात्रा में हथियार देकर ईरान ने यूक्रेन युद्ध में आगे बढ़ने में रूस की मदद की है. चीन की मध्यस्थता के जरिये ईरान ने सऊदी अरब से कैसे अपने संबंध सुधारे, इसका अध्ययन बताता है कि वास्तविक धरातल पर ‘व्यावहारिक क्रांतिकारिता’ ने कैसे काम किया. साल 2011 में शिया बहुल पूर्वी प्रांत में हुए विद्रोह के लिए सऊदी अरब ने जनवरी 2016 में एक प्रमुख शिया मौलाना शेख निम्र को 47 अन्य लोगों के साथ मौत की सजा दे दी. इसके विरोध में प्रदर्शनकारियों ने तेहरान और मशहद में सऊदी दूतावासों में भारी तोड़-फोड़ की, जिसके बाद दोनों देशों के कूटनीतिक संबंध टूट गये.
ईरान ने 2016 में हज में हिस्सा लेना स्थगित कर दिया. इसके जवाब में सऊदी अरब ने हज के प्रसारण के लिए फारसी भाषा का एक टीवी चैनल ही शुरू कर दिया. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2018 में ईरान परमाणु समझौते से अलग होने की एकतरफा घोषणा कर दी. सऊदी अरब के तेल संयंत्रों पर 2019 में हुए हूथी हमलों ने भी दोनों देशों के रिश्ते बिगाड़ने में योगदान दिया.
अगले वर्ष जब बगदाद में अमेरिकी हमले में ईरान के उच्च सैन्य अधिकारी कासिम सुलेमानी की मौत हुई, तो आधिकारिक सऊदी मीडिया में इस पर खुशी जतायी गयी. पर रईसी के पदभार संभालने के साथ धीरे-धीरे स्थिति सुधरने लगी. उन्होंने मतभेद खत्म करने के लिए बातचीत की पेशकश की. साल 2022 तक दोनों देशों के बीच पांच गोपनीय बैठकें हो चुकी थीं. दिसंबर 2022 में जब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग सऊदी अरब गये, तो उन्हें मध्यस्थता करने का निवेदन किया गया. उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया तथा सऊदी अरब के संदेश को ईरान तक पहुंचा दिया.
ईरान ने भी चीन की मध्यस्थता को स्वीकार कर लिया. फरवरी 2023 में ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी चीन के राजकीय दौरे पर पहुंचे और वहां उन्होंने ईरान की स्वीकृति की सूचना चीनी नेतृत्व को दी. जॉर्ज टाउन विश्वविद्यालय के एक लेख में चीनी मध्यस्थता के कारणों को रेखांकित किया गया है. साल 2021 में चीन और अरब देशों का द्विपक्षीय व्यापार 300 अरब डॉलर हो गया, जिसमें चीन, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात का व्यापार 200 अरब डॉलर था. अमेरिकी पाबंदियों के बावजूद सऊदी अरब और रूस के बाद चीन का तीसरा सबसे बड़ा तेल निर्यातक है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)