देश में जनसंख्या की थमती रफ्तार
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि देश की कुल प्रजनन दर में कमी आयी है और यह 2.2 से घट कर 2.0 हो गयी है.
दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती जनसंख्या है. कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनिया की आबादी बढ़ कर 7.7 अरब हो गयी है, जबकि 2018 में यह आबादी 7.6 अरब थी. पिछले एक दशक में अपने देश की जनसंख्या में भी तेज बढ़ोतरी हुई है. अपने देश में भी यह एक बड़ी चुनौती है. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि देश के विकास की राह में यह सबसे बड़ी बाधा है.
जिस तेजी से हमारे देश की जनसंख्या बढ़ रही है, उतनी तेजी से संसाधनों का विकास संभव नहीं है, लेकिन हाल में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा जारी आंकड़े राहत देने वाले हैं. इस सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि देश की कुल प्रजनन दर में कमी आयी है और यह 2.2 से घट कर 2.0 हो गयी है. इसे प्रति महिला से होने वाले बच्चों की औसत संख्या के रूप में मापा जाता है और उसमें गिरावट दर्ज की गयी है. उल्लेखनीय है कि मुस्लिम समुदाय में भी प्रजनन दर घट कर 2.36 हो गयी है. सर्वे के अनुसार सबसे तेज गिरावट इसी समुदाय में आयी है. यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस विषय को राजनीतिक मुद्दे के रूप में जब तब इस्तेमाल किया जाता है.
रिपोर्ट के अनुसार देश में गर्भनिरोधक उपायों को लेकर भी जागरूकता बढ़ी है. जनसंख्या नियंत्रण की दृष्टि से इन आंकड़ों को उत्साहजनक माना जा सकता है. जनसंख्या में बढ़ोतरी की रफ्तार को संतुलित रखने के लिए प्रति महिला औसत जन्म दर 2.1 होनी चाहिए. प्रति महिला औसत जन्म दर के दो तक आ जाने का अर्थ है कि देश की जनसंख्या जितनी है, उतनी बनी रहने के लिए भी जरूरी जन्म दर नहीं रही.
इसका नतीजा यह होगा कि कुछ वर्षों में हमारी आबादी में युवाओं का अनुपात कम होने लगेगा. भारत में अभी औसत उम्र 28 वर्ष है, जो 2026 तक बढ़ कर 30 वर्ष और 2036 तक 35 वर्ष हो जायेगी. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में 28 राज्यों और आठ केंद्रशासित प्रदेशों के 707 जिलों से लगभग 6.37 लाख परिवारों से सैंपल लिये गये.
इसमें 7.24 लाख महिलाओं और 1.01 लाख पुरुषों को शामिल किया गया. विशेषज्ञों ने पाया कि बढ़ती जनसंख्या की रोकथाम को लेकर लोग अधिक जागरूक हुए हैं. देश में केवल पांच राज्य ऐसे हैं, जो 2.1 के प्रजनन दर के ऊपर हैं. इनमें बिहार (2.98), मेघालय (2.91), उत्तर प्रदेश (2.35) और झारखंड (2.26) और मणिपुर (2.17) शामिल है.
एक और उल्लेखनीय बात सामने आयी है कि पिछले चार वर्षों में भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में कमी आयी है. इससे इंगित होता है कि बच्चों के पोषण और देखभाल में पहले की अपेक्षा सुधार हुआ है. सर्वे के अनुसार बढ़ता मोटापा एक नयी चुनौती बन कर उभर रहा है. महिला और पुरुष, दोनों में मोटापा तेजी से बढ़ा है.
महिलाओं में मोटापा 21 फीसदी से बढ़ कर 24 फीसदी और पुरुषों में 19 फीसदी से बढ़ कर 23 फीसदी हो गया है. स्वास्थ्य की दृष्टि से इस दर को काफी चुनौतीपूर्ण माना जा रहा है. केरल, आंध्र प्रदेश, गोवा, सिक्किम, मणिपुर, दिल्ली, तमिलनाडु, पुडुचेरी, पंजाब और चंडीगढ़ में एक तिहाई से अधिक महिलाएं अधिक वजन से ग्रस्त पायी गयी हैं. हम सभी यह भली-भांति जानते हैं कि बढ़ता मोटापा कई प्रकार के रोगों का कारण बन सकता है और इसको लेकर सतर्क रहने की जरूरत है.
समय-समय पर होने वाली जनगणना से पता चलता है कि देश की आबादी से तेजी से बढ़ी है. आजादी के बाद देश में पहली जनगणना 1951 में हुई थी और उस समय देश की आबादी थी 36 करोड़. इसके बाद हुई जनगणना में देश की जनसंख्या में लगातार वृद्धि हुई है. साल 1961 में हुई जनगणना में देश की आबादी बढ़ कर लगभग 44 करोड़ हो गयी. साल 1971 मे देश की जनसंख्या बढ़ कर 55 करोड़ हो गयी. वर्ष 1981 की जनगणना में पता चला कि देश की आबादी 68 करोड़ हो गयी है तथा 1991 में हुई जनगणना में यह आबादी बढ़ कर 85 करोड़ हो गयी.
साल 2001 में हुई जनगणना में देश की आबादी 100 करोड़ पार कर गयी. इसके 10 साल बाद 2011 में देश में जनगणना हुई, जिसमें देश की जनसंख्या 121 करोड़ आंकी गयी थी. अब माना जा रहा है कि देश की आबादी लगभग 135 करोड़ के आसपास होगी. बढ़ती आबादी का असर बहुआयामी है.
जनसंख्या का देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ता है. इसके कारण खाद्यान्न संकट उत्पन्न होता है, बेरोजगारी की समस्या पैदा होती है. इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए रोजगार के अवसर उत्पन्न करना नामुमकिन है. इसके कारण अनेक सामाजिक समस्याएं भी पैदा हुई हैं. जमीन पर बोझ बढ़ा है, जिसने पारिवारिक संघर्ष को जन्म दिया है. जनसंख्या के पक्ष में एक तर्क दिया जाता है कि इसने हमें दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार बना दिया है, जिस कारण हर विदेशी कंपनी भारत में आना चाहती है और निवेश करना चाहती है.
इतिहास के पन्ने पलटें, तो हम पायेंगे कि इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए व्यापक पैमाने पर जबरन नसबंदी करने की कोशिश की थी. पुष्ट आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन अनुमान है कि तब लगभग 60 से 65 लाख लोगों की नसबंदी कर दी गयी थी. देशभर में जबरन नसबंदी हुई, नतीजा यह निकला कि इंदिरा गांधी की सरकार चली गयी, लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान यह हुआ कि नेता जनसंख्या नियंत्रण के नाम से ही भय खाने लगे और उन्होंने इसका जिक्र ही बंद कर दिया.
लंबे समय तक देश के विमर्श से जनसंख्या नियंत्रण गायब रहा. अरसे बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले से घोषणा कर जनसंख्या नियंत्रण को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाये. इसमें कोई शक नहीं है कि जनसंख्या पर नियंत्रण रखना लोगों की जिम्मेदारी है. जागरूकता फैलाने में केंद्र और राज्य सरकारें पहल कर सकती हैं, लेकिन एक सीमा के आगे इस संवेदनशील विषय पर सरकार की भूमिका सीमित हो जाती है.
लोग स्वयं ही एक या दो बच्चे पैदा करें, तो बेहतर होगा. लोगों में यह भाव पैदा हो कि छोटा परिवार रखना भी एक तरह से देशभक्ति है. जनसंख्या का सीधा संबंध शिक्षा से भी है. अधिकांश शिक्षित परिवारों में आप बच्चों की संख्या सीमित ही पायेंगे, लेकिन शिक्षा के अभाव में जितने हाथ, उतनी अधिक कमाई जैसा तर्क चल पड़ता है और अशिक्षित माता-पिता अधिक बच्चे पैदा करने लगते हैं. हमें इस ओर भी ध्यान देना होगा.