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उच्च शिक्षण संस्थानों में सामाजिक भेदभाव

दर्शन सोलंकी के परिजनों का आरोप है कि दर्शन को दलित होने की वजह से प्रताड़ित किया गया और यह आत्महत्या का मामला नहीं है, बल्कि यह एक सुनियोजित हत्या है. दर्शन सोलंकी ने तीन महीने पहले ही आइआइटी मुंबई में दाखिला लिया था

पंकज चौरसिया

शोधार्थी, जामिया मिलिया इस्लामिया

मशहूर समाजशास्त्री इमाइल दर्खाइम ने अपनी किताब ‘ले सुसाइड’ में ‘आत्महत्या का सिद्धांत’ प्रस्तुत करते हुए बताया कि आत्महत्या एक सामाजिक घटना है. उनके अनुसार आत्महत्या व्यक्ति पर समाज एवं समूह के अस्वस्थ दबाव का प्रतिफल है. ऐसा ही मामला आइआइटी मुंबई के 18 वर्षीय छात्र दर्शन सोलंकी की आत्महत्या का है. आइआइटी जैसे संस्थानों में अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के साथ व्यवहार तथा प्रबंधन की कार्यक्षमता पर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं.

दर्शन सोलंकी के परिजनों का आरोप है कि दर्शन को दलित होने की वजह से प्रताड़ित किया गया और यह आत्महत्या का मामला नहीं है, बल्कि यह एक सुनियोजित हत्या है. दर्शन सोलंकी ने तीन महीने पहले ही आइआइटी मुंबई में दाखिला लिया था. आत्महत्या से कुछ समय पहले उसने फोन पर बताया था कि उसके पिछले महीने घर वापस आने से कुछ समय पहले ही अपने सहपाठियों से दलित होने के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा. सोलंकी ने आरोप लगाया कि उसकी जाति जानने के बाद उसके दोस्तों का व्यवहार बदल गया और वे उससे ‘बेहद ईर्ष्या’ करने लगे क्योंकि उनका मानना है कि वह मुफ्त में पढ़ रहा था.

केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने पिछले वर्ष संसद में बताया था कि पिछले सात वर्षों के दौरान उच्च शिक्षा संस्थानों में 122 छात्रों ने आत्महत्या की है. इनमें ज्यादातर छात्र दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम विद्यार्थी हैं. वर्ष 2014 से 2021 के बीच आदिवासी समुदाय के तीन छात्रों और दलित समुदाय के 24 छात्रों ने आत्महत्या की है, जबकि ओबीसी के 41 और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के तीन छात्रों ने आत्महत्या की है.

देश के शिक्षण संस्थानों में आत्महत्या को लेकर सबसे बड़ा बवाल तब हुआ था, जब 17 जनवरी, 2016 को हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधार्थी रोहित वेमुला ने विश्वविद्यालय प्रशासन पर आरोप लगाते हुए आत्महत्या कर ली थी. वर्ष 2019 में मेडिकल की आदिवासी छात्रा पायल तड़वी ने अपनी सहकर्मियों पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए आत्महत्या कर ली थी. माना जा रहा था कि इन दोनों की आत्महत्या के बाद उठे तूफान से शिक्षण संस्थाओं में स्थिति सुधरेगी, लेकिन दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के लिए देश के उच्च शिक्षण संस्थान कब्रगाह बनते जा रहे हैं.

भाजपा सांसद किरीट पी सोलंकी की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट (2019-20) के मुताबिक, जातिगत भेदभाव के कारण एससी और एसटी के छात्रों को एमबीबीएस की परीक्षाओं में बार-बार फेल किया जाता है. रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि शैक्षणिक पदों के लिए आवेदन करते समय भी दलित और आदिवासी समुदायों के लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है तथा आरक्षित सीटें इसी तर्क के आधार पर खाली छोड़ दी जाती हैं कि ‘उपयुक्त उम्मीदवार’ नहीं मिले.

राज्यसभा में चार फरवरी, 2021 को तत्कालीन शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने सूचना दी थी कि उच्च स्तर के विज्ञान शिक्षण संस्थानों के पीएचडी कार्यक्रमों में दलित, आदिवासी एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों की उपस्थिति बहुत कमजोर हुई है. भारत के सर्वोच्च विज्ञान शिक्षण संस्थान बेंगलुरु के आइआइएससी में 2016 से 2020 के बीच पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिला लेने वाले उम्मीदवारों में केवल 21 प्रतिशत उम्मीदवार एसटी वर्ग से, नौ प्रतिशत एससी से और आठ प्रतिशत ओबीसी वर्ग से थे.

देश के 17 आइआइआइटी में कुल पीएचडी उम्मीदवारों में से बमुश्किल 1.7 प्रतिशत एसटी, नौ प्रतिशत अनुसूचित जाति और 27.4 प्रतिशत छात्र ओबीसी श्रेणियों से थे. भारत के 31 राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों और सात भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थानों में आरक्षित श्रेणी के पीएचडी उम्मीदवारों की संख्या भी बहुत कम है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 2016 के आंकड़ों के अनुसार, कक्षा एक से 12 में नामांकित अनुसूचित जाति के छात्रों का अनुपात 2014-15 में राष्ट्रीय औसत से अधिक था, पर वे उच्च शिक्षा में राष्ट्रीय औसत से पीछे हैं.

उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों का राष्ट्रीय औसत 24.3 है, जबकि दलितों का औसत 19.1 है. लोकसभा में शिक्षा मंत्रालय ने बताया कि 54 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से केवल एक में अनुसूचित जाति से कुलपति हैं. केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 फीसदी, अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी, ओबीसी के लिए 27 फीसदी और ईडब्ल्यूएस के लिए 10 फीसदी सीटें तय हैं. इस फॉर्मूले के आधार पर 54 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 1,005 प्रोफेसरों में से कम से कम 75 अनुसूचित जनजाति से होने चाहिए, लेकिन केवल 15 हैं.

अनुसूचित जाति के प्रोफेसरों की संख्या कम से कम 151 होनी चाहिए, लेकिन अभी केवल 69 हैं. कुछ दिनों पूर्व प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने दलित व आदिवासी छात्रों के आत्महत्या के मामलों को लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों के हालात पर अहम टिप्पणी में कहा, ‘वंचित समुदायों के छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं आम होती जा रही हैं. ये आंकड़े मात्र नहीं हैं, ये सदियों के संघर्ष को बयान करने वाली कहानियां हैं.’ आज आजादी का अमृत महोत्सव मनाते वक्त क्या हम इस स्थिति के प्रति गंभीर हो सकेंगे?

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