11.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

स्त्रियों के प्रति समाज बदले नजरिया

आज भी कुछ पुरुषों में कहीं न कहीं यह भय है कि स्त्रियां यदि घर से बाहर निकलेंगी, तो बहुत सारा विघटन परिवार, समाज, राजनीति और बाहरी दुनिया में होगा, इस भय से पुरुषों को उबरना चाहिए.

आधुनिक समय में दो महत्वपूर्ण परिघटनाएं हुई हैं- नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन. नवजागरण की आधारभूमि पर राष्ट्रीय आंदोलन का ढांचा खड़ा है. नवजागरण को जिस तरह से पुरुष रचनाकारों, समाज सुधारकों के यहां देखा गया, अगर आप उसे स्त्री संदर्भ से देखने का प्रयास करें, तो उसका पूरा पैराडाइम बदल जाता है. नवजागरण में जितनी सुधार की आकांक्षाएं थी, वे लगभग स्त्री जीवन से ही जुड़ी हुई थीं तथा स्त्री की सामाजिक हैसियत पारिवारिक संदर्भों, रीति-रिवाजों से जुड़ी हुई थी.

मोटे तौर पर देखा जाए, तो ऐसा प्रतीत होता है कि नवजागरण की सारी चिंता स्त्री केंद्रित चिंता है, लेकिन उसे स्त्री संदर्भ से नहीं देखा गया. इस तरह देखने से नवजागरण का पुंसवादी चेहरा हमारे समक्ष प्रकट होता है. नवजागरण की अगली कड़ी के रूप में लेखिकाएं राष्ट्रीय आंदोलन की भूमिका को देखती हैं. गौरतलब है कि भारतीय स्त्रीवाद को दो तरह के तनावों से गुजरना पड़ता है.

वे तनाव क्या हैं? पहला तनाव यह था कि भारतीय स्त्रीवाद को अपनी भारतीयता सिद्ध करनी थी. पश्चिमी स्त्रीवाद का पर्याय न समझ लेने की चुनौती ने उसे इतना आतंकित, डरा हुआ और तनावग्रस्त कर दिया कि भारतीय स्त्रीवाद की ऊर्जा इस बात में सर्वाधिक खर्च हुई कि उसकी भारतीयता किस प्रकार सिद्ध की जाए. हालांकि स्त्री के प्रश्न हमेशा से अंतरराष्ट्रीय, सर्वजनीन, वैश्विक तथा समय, देशकाल, संदर्भ के अंतर के साथ कमोबेश एक जैसे थे.

बावजूद इसके भारतीय स्त्रीवाद के समक्ष चुनौती थी कि वह अपने को भारतीय पक्ष और संदर्भ से प्रस्तुत करे और उस पर पश्चिम की नकल होने का टैग न लग जाए. भारतीय स्त्रीवाद के सामने दूसरा तनाव यह था कि जिस तरह राष्ट्रीय आंदोलन की निर्मिति की जा रही थी और राष्ट्रीय आंदोलन के बड़े बैनर के तहत स्त्री और हाशिये के समाज के प्रश्नों को पीछे धकेला जा रहा था,

उस तनाव व संकट से भारतीय स्त्रीवाद स्वयं को बचा कर भारतीय स्त्रियों की समस्याओं को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में उभार कर लाने में सफल हो. ऐसे में महादेवी वर्मा ने राष्ट्र और नवजागरण, साहित्य और स्त्री के साथ उसके संबंध को जिस तरह देखा है, अगर हम उसे दोबारा देखें और समझने का प्रयास करें, तो एक नये तरह का पाठ तैयार होता दिखता है.

पहले अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया कि भारतीय स्त्री भारतीय संस्कृति और भारतीय शिक्षा के ही अनुसार तैयार की जाए. संगठित आंदोलन द्वारा रखे गये पहले कदम में भी ‘स्त्री शिक्षा’ एक महत्वपूर्ण प्रश्न था. साथ ही, उसमें भारतीयता के चिह्नों को बचाये रखने का दबाव भी था.

इस दबाव में भारतीय स्त्री की तनावग्रस्तता को भारतीय आंदोलन और संघर्षों की तनावग्रस्तता के साथ मिला कर अच्छी तरह समझा जा सकता है. स्त्री के नागरिक अधिकारों को चिह्नित करना तथा राष्ट्रीय नवजागरण के संदर्भ में स्त्री द्वारा किये गये संघर्ष व उसकी कुर्बानियों को याद करना स्वाधीनता आंदोलन की लेखिकाओं द्वारा राष्ट्र और राष्ट्रवाद के विश्लेषण का एक अहम हिस्सा है. स्त्री के पक्ष से राष्ट्र की एक वैकल्पिक विवेचना तैयार करना आसान नहीं.

स्त्री को नागरिक के रूप में देखे बिना इस पर बात नहीं की जा सकती. जब तक स्त्री को दया की अधिकारिणी मानते रहेंगे, तो जो कुछ उसे मिला वह उसके प्राप्य के रूप में नहीं, बल्कि दया या मनुष्य मात्र समझे जाने की गुहार के प्रत्युत्तर के रूप में प्रतीत होगा. उसकी वंदना को समझना सहज नहीं होगा,

यानी इस बिंदु से हम आरंभ करें कि स्त्री नागरिक है, तो बहुत सारे प्रवाद, बहुत सारी प्रवंचनाएं अपने-आप छंट जाती हैं और स्त्री पितृसत्ता के फ्रेमवर्क से भी बाहर आती है. स्त्री को जब खाली पारिवारिक संबंधों (मां, बहन, पत्नी, प्रेमिका या अन्य किसी रूप) में कैद करके देखते हैं, तो इस तरह के संबंध अंततः उसे पितृसत्ता के फ्रेमवर्क के भीतर धकेल देते हैं. पितृसत्ता के फ्रेमवर्क को तोड़कर बाहर आने का एक मात्र संगत और वैज्ञानिक तरीका है स्त्री को नागरिक के रूप मे देखना.

राष्ट्र के निर्माण में स्त्री और पुरुष दोनों का समान सहयोग रहा है. स्त्री के अस्तित्व के बिना समाज और राष्ट्र के निर्माण की परिकल्पना नहीं की जा सकती. आज भी कुछ पुरुषों में कहीं न कहीं यह भय है कि स्त्रियां यदि घर से बाहर निकलेंगी, तो बहुत सारा विघटन परिवार, समाज, राजनीति और बाहरी दुनिया में होगा, इस भय से पुरुषों को उबरना चाहिए.

अगर आदिम समाज, आदिम संघर्ष काल में पुरुषों के साथ खड़ी होकर स्त्रियों ने सभ्यता के विकास में अपना महत्वपूर्ण अवदान किया, तो आज भी हर तरह से उन्नत होकर साथ चलती और नेतृत्व करती स्त्री समाज का कोई अपकार नहीं करेगी. भारत की अपनी परंपरा, प्राचीन साहित्य और व्यवहार में यह बात गहरे पैबस्त है, केवल उसे पुनः याद करने और अमल में लाने की जरूरत है. किसी भी राष्ट्र के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना राष्ट्र के निर्माण और गठन में एक कदम भर है. इसके बाद का बड़ा दायित्व है सहमेल और सहअस्तित्व के जरिये आपसी आदान-प्रदान पर जोर दिया जाए और स्वतंत्रता की चेतना को पुख्ता बनाया जाए.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें