संतानों की राजनीति और कांग्रेस

कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार तो उत्तराधिकार हासिल करता है, पर यही अधिकार पार्टी के अन्य बड़े नेताओं को नहीं दिया जाता. बाहरी मामलों में राजनीति बच्चों का खेल है.

By प्रभु चावला | April 19, 2023 7:57 AM

पिता की विरासत बेटे के लिए अक्सर वरदान होती है. कभी-कभी यह बोझ भी बन जाती है. यदि हम सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद के बगावती व्यवहार को देखें, तो लगता है कि डीएनए दिशा तय कर रहा है. उनके पिता राजेश पायलट, माधवराव सिंधिया एवं जितेंद्र प्रसाद भरोसेमंद कांग्रेस नेता और गांधी परिवार के विश्वासपात्र थे. सिंधिया और प्रसाद शाही पृष्ठभूमि से थे.

मध्य वर्गीय पायलट राष्ट्रीय नेता बन गये थे. हालांकि पार्टी ने उन्हें उदारता से पुरस्कृत किया था, पर उन्होंने गांधी परिवार को चुनौती दी. अब उनकी संतानें उनके पदचिह्नों पर चल रही हैं. इनमें से दो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गये हैं और पायलट अभी तक कांग्रेस में हैं.

सचिन पायलट ने बीते हफ्ते वसुंधरा राजे की जांच कराने में हिचक रहे अशोक गहलोत के खिलाफ भूख हड़ताल की. मंच पर सोनिया या राहुल गांधी की नहीं, महात्मा गांधी की तस्वीर लगी थी, जो हर उस कांग्रेसी के प्रतीकात्मक संत हैं, जो अपनी अंतरात्मा का प्रदर्शन करते हैं. पार्टी ने उन्हें देश का सबसे कम उम्र का सांसद, मंत्री, राज्य इकाई अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री बनाया.

उन्हें भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया गया, पर गहलोत ने पद हासिल कर लिया. पार्टी अध्यक्ष के रूप में पायलट ने 2018 की जीत में बड़ी भूमिका निभायी थी. वे पार्टी नेतृत्व के लिए गांधी परिवार की व्यक्तिगत पसंद थे और शायद मुख्यमंत्री पद के लिए भी पहली पसंद थे. पर पुराने खिलाड़ी गहलोत ने बाजी मार ली और तब से दोनों में तनातनी है. सचिन का दावा है कि गांधी परिवार और मल्लिकार्जुन खरगे ने उनसे छल किया है.

जुलाई, 2020 में 30 विधायकों के समर्थन के साथ उन्होंने लगभग सरकार गिरा ही दी थी. दिल्ली से भेजे मध्यस्थों ने उन्हें पार्टी में रहने और इंतजार करने के लिए मना लिया था. जब सितंबर, 2022 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हुआ, तो भी गहलोत ने पद नहीं छोड़ा और बाद में पायलट के लिए रास्ता देने का वादा किया. पार्टी नियम के अनुसार, एक व्यक्ति मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष, दोनों पदों पर नहीं रह सकता.

इससे 2023 में राज्य चुनाव में पार्टी के नेतृत्व करने की पायलट की आशा धराशायी हो गयी. पार्टी उन्हें चुनाव तक रुकने का आग्रह कर रही है. क्या वे गांधी परिवार को त्याग देंगे? उनके पास अपने पिता वायु सैनिक पायलट राजेश्वर प्रसाद बिधूड़ी उर्फ राजेश पायलट के लड़ाकू तेवर हैं.

राजेश पायलट केवल 35 साल की आयु में कांग्रेस से सांसद बन गये थे. छह बार सांसद रहे पायलट एक बड़े गुर्जर नेता और राष्ट्रीय चेहरा बने. वे कांग्रेस कार्यसमिति में भी थे. राव सरकार में आंतरिक सुरक्षा के राज्य मंत्री के रूप में उन्होंने राव के करीबी कुख्यात चंद्रास्वामी को जेल भेज दिया था.

जब राव पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और सोनिया गांधी द्वारा छद्म विद्रोह हुआ, तब पायलट उस समूह में थे, जो विकल्प तलाश रहा था. बाद में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए सीताराम केसरी के खिलाफ पायलट ने दावेदारी पेश की, पर जब सोनिया गांधी ने केसरी का समर्थन किया, तो वे अचंभित रह गये. दुर्भाग्य से एक कार दुर्घटना में 11 जून, 2000 को उनकी मृत्यु हो गयी. दो दशक बाद उनका बेटा अपने वैधानिक अधिकार हासिल करने के लिए गांधी परिवार का समर्थन मांग रहा है.

राजेश पायलट की तरह माधवराव सिंधिया भी राष्ट्रीय नेता थे और उनमें प्रधानमंत्री बनने की क्षमता थी. एक हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु के कोई दो दशक बाद उनके पुत्र और वर्तमान में केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गांधी परिवार से किनारा कर भाजपा का दामन पकड़ लिया. वर्ष 1971 में जनसंघ सांसद के रूप में 26 साल की उम्र में राजनीतिक करियर शुरू करने वाले माधवराव नौ बार लोकसभा सांसद रहे थे.

आपातकाल में वे देश छोड़ गये और 1977 में जनता लहर में निर्दलीय सांसद के रूप में निर्वाचित हुए. साल 1980 में वे कांग्रेस में आये और चार साल बाद अटल बिहारी वाजपेयी को परास्त किया. बाद में जैन हवाला कांड में नाम आने पर कैबिनेट से हटाये जाने पर वे नरसिम्हा राव से नाराज रहे. फिर उन्हें वापस लिया लिया गया क्योंकि राव अपने विरोधी अर्जुन सिंह को निकालना चाहते थे.

कांग्रेस का सेकुलर चेहरा बनकर उभरने के बाद भी उन्हें अहम राष्ट्रीय भूमिका नहीं मिली. उन्होंने अपनी पार्टी बनाकर 1996 में कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव लड़ा. राव के अध्यक्ष पद से हटने के बाद उनकी घर वापसी हुई. जब 1998 में सोनिया पार्टी अध्यक्ष हुईं, तो उन्होंने सिंधिया को लोकसभा में कांग्रेस का उपनेता बनाया. साल 2002 में ज्योतिरादित्य गुना से भारी मतों से जीते. वे 2004 और 2009 में भी जीते.

पिता की तरह वे भी गांधी परिवार के बेहद नजदीक रहे. वे मनमोहन सरकार में मंत्री रहे और चुनाव हारने के बाद भी पार्टी के महासचिव बनाये गये तथा प्रियंका गांधी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश के प्रभारी भी रहे. लेकिन वरिष्ठ नेताओं के साथ उनकी नहीं बनी. कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने गांधी परिवार को समझा दिया कि सिंधिया वोट नहीं जुटा सकते, तो उन्हें राज्यसभा का टिकट नहीं मिला.

पिता की तरह, ज्योतिरादित्य ने बदला लेते हुए कमलनाथ सरकार को गिरा दिया और उसी नागरिक उड्डयन मंत्रालय की कमान संभाली, जिसे नब्बे के दशक के शुरू में उनके पिता संभालते थे. योगी आदित्यनाथ सरकार में कैबिनेट मंत्री जितिन प्रसाद ने अपने करियर की शुरुआत पिता के देहांत के बाद युवा कांग्रेस से की थी.

जितेंद्र प्रसाद महत्वपूर्ण ब्राह्मण नेता थे और राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, सीताराम केसरी और सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार रहे थे. फिर भी उन्होंने 2000 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में सोनिया गांधी को चुनौती दी क्योंकि वे पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र में भरोसा रखते थे और मानते थे कि कांग्रेस प्रमुख के तौर पर गांधी परिवार का एकाधिकार नहीं होना चाहिए.

पर उन्होंने पार्टी नहीं छोड़ी. मनमोहन सरकार में मंत्री और पश्चिम बंगाल में पार्टी के चुनाव प्रभारी रहे उनके बेटे अपने राजनीतिक विकास के लिए पार्टी के भरोसे नहीं रहे. जब तक राहुल गांधी से बात होती रही, जितिन रुके रहे.

वे पार्टी में लोकतांत्रीकरण की मांग के लिए लिखे पत्र पर दस्तखत करने वाले 23 लोगों में थे. आखिरकार उन्होंने पाला बदल लिया. कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार तो उत्तराधिकार हासिल करता है, पर यही अधिकार पार्टी के अन्य बड़े नेताओं को नहीं दिया जाता. बाहरी मामलों में राजनीति बच्चों का खेल है. तब विरासत बहुत अहम हो जाती है.

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