पिछले दिनों दक्षिण एशिया और विश्व राजनीति में खूब हलचल रही. चीन के विदेशमंत्री भारत की यात्रा पर आये, लेकिन उससे पहले वे पाकिस्तान और अफगानिस्तान भी जा चुके थे. भारत की यात्रा के बाद चीनी विदेशमंत्री नेपाल भी गये. उसी दौरान दक्षिण एशिया के कुछ देशों में आफत मची हुई थी. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की विदाई की पटकथा लिखी जा रही थी, वहीं दूसरी ओर श्रीलंका पिछले एक महीने से गंभीर आर्थिक समस्या से जूझ रहा है.
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर श्रीलंका और मालदीव की यात्रा पर थे. अगर इन तमाम घटनाओं को एक शृंखला में जोड़कर देखा जाये, तो कई बातें उभरकर सामने आती हैं. पहली यह कि दक्षिण एशिया महज एक भूमि का टुकड़ा भर नहीं है जिसे औपनिवेशिक शक्तियों ने राष्ट्र-राज्य के नाम पर एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में स्थापित कर दिया और उसकी सांस्कृतिक चेतना को पूरी तरह से विखंडित कर दिया. पुनः अकादमिक चित्रण के जरिये यह सिद्धांत विकसित किया गया कि दक्षिण एशिया के देशों को असुरक्षा केवल भारत से है, भारत कभी भी उनकी भलाई नहीं चाहता.
इस तरह से उन देशों में भारत विरोध की चेतना राजनीतिक हथकंडों के जरिये विकसित की गयी. शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और उसके बाद चीन उस सोच को आगे बढ़ा रहा है. राजनीतिक विरोध की वजह से दक्षिण एशिया के देश बाहरी शक्तियों के नक्शे कदम पर चलते रहे. नतीजा छह दशकों बाद सामने है. पाकिस्तान पूरी तरह से एक विफल राष्ट्र बनने के मुहाने पर खड़ा है. श्रीलंका के चीन प्रेम ने उसके अस्तित्व बोध को अधर में लटका दिया है. मालदीव की पटकथा भी वैसी ही है. वहीं, परस्पर बेहतर तालमेल के चलते भारत, बांग्लादेश दुनिया में विशिष्ट पहचान बना रहे हैं.
प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या दक्षिण एशियाई देशों की प्रगति भारत विरोध की कीमत पर होगी या भारत के प्रेम के साथ. इन देशों का भारत के साथ सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जुड़ाव रहा है. श्रीलंका की मिट्टी और पानी में बौद्ध तथा हिंदू संस्कृति की अमिट छाप है. उस पहचान को आधुनिक भू-राजनीति नजरअंदाज नहीं कर सकती. वही परछाई नेपाल, भूटान और बांग्लादेश में भी है.
पाकिस्तान भी इससे अलग नहीं है. सांस्कृतिक विरासत के साथ आर्थिक सोच और व्यवस्था भी भारत की सोच से मिलती है, इसलिए भी इन देशों के विकास का कोई भी रास्ता भारत की ओर से ही निकलता है.
श्रीलंकाई राष्ट्रपति के सचिवालय को बुधवार को हजारों की भीड़ ने घेर लिया. पूरी तरह कर्ज में डूबे देश में महंगाई और दैनिक उपभोग की वस्तुओं की भारी कमी से परेशान लोग राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे का इस्तीफा चाहते थे. आखिर श्रीलंकाई नेतृत्व से कुछ ही समय में यह विश्वास खत्म कैसे हो गया? कुछ साल पहले तक आर्थिक प्रगति के ठीक रास्ते पर चल रहे श्रीलंका में ऐसी स्थिति कैसे पैदा हो गयी? इसके पीछे ड्रैगन की कर्ज नीति के जाल का मुख्य योगदान है.
उसने एक फलते-फूलते देश को ऐसा जकड़ा कि अब श्रीलंकाई लोग भूख से तड़प रहे हैं और देश ड्रैगन के पंजे से छूटने के लिए छटपटा रहा है. पूर्व राष्ट्रपति महेंद्रा राजपक्षे विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद चीन की योजनाओं पर दस्तखत करते गये. यहीं से श्रीलंका के दुर्दिन की नींव रखी गयी.
हंबनटोटा से प्रस्तावित कोलंबो पोर्ट सिटी तक चीन की मौजूदगी है. श्रीलंका के कुल विदेशी कर्ज का करीब 10 फीसदी हिस्सा चीन ने रियायती ऋण के नाम पर दे रखा है. चीन के सरकारी बैंकों ने कॉमर्शियल लोन भी दिये हैं. वित्तीय संकट के कारण श्रीलंका ने हंबनटोटा पोर्ट का नियंत्रण 99 साल के लिए चीन को दे दिया है. श्रीलंका की सरकार ने पिछले अगस्त में राष्ट्रीय आर्थिक आपातकाल की घोषणा की थी और तभी दुनिया को यहां के वित्तीय संकट का पता चला.
जनवरी में चीन के विदेशमंत्री वांग यी के दौरे के समय आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए लगभग पांच अरब डॉलर के चीनी ऋण भुगतान को री-शिड्यूल करने की मांग उठी थी. लेकिन, चीनी विदेशमंत्री ने मुंह फेर लिया. यह चीन की नीयत को स्पष्ट करता है. चीन का ऋण सामान्य रूप से एशियाई विकास बैंक की 2.5 प्रतिशत की दर की तुलना में 6.5 प्रतिशत की दर पर लिया गया है. इसमें से 1.4 अरब डॉलर हंबनटोटा बंदरगाह के निर्माण पर खर्च की गयी धनराशि है.
चीन ने श्रीलंका को ऋण जाल में फंसाने के लिए ही वहां दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा बंदरगाह बनाया था, जिस पर माल की कोई आवाजाही ही नहीं थी. बिना आय के श्रीलंका इसके ऋण का भुगतान नहीं कर सका. इसके बाद भी हालात सुधर नहीं सके. ऋण चुकाने के लिए देश को पिछले साल चीन से एक अरब डॉलर और ब्याज पर लेने पड़े.
समस्या और चुनौती भारत के लिए भी है. कैसे विदेशी हस्तक्षेप को कम किया जाये. चीन भारत का पड़ोसी और सबसे बड़ा दुश्मन भी है. दक्षिण एशिया के देश चीन के मकड़जाल से निकलने के लिए बेचैन हैं. इसमें भारत की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है, इसलिए विदेश मंत्री श्रीलंका और मालदीव गये. नेपाल के प्रधानमंत्री को भारत आने का न्योता भी दिया गया. चीन की विस्तारवादी सोच पर लगाम के लिए जरूरी है कि भारत अपनी सांस्कृतिक कूटनीति की धार को तेज करे.
जरूरी शक्ति का प्रयोग भी आवश्यक है. सॉफ्ट पावर के सिद्धांतकार जोसफ नाई ने भी माना है कि केवल सॉफ्ट पावर से बात नहीं बनती. स्मार्ट पावर के लिए मूलभूत शक्ति की जरूरत है. जिस तरीके से बाहरी शक्तियां सदियों से भारत की सांस्कृतिक विरासत को खंडित करने की कोशिश करती रही हैं, उससे हिंदू संस्कृति अपनी ही जमीन पर उपेक्षित होती गयी और विदेशी को अनुकरणीय समझा जाने लगा.
लेकिन, भारत में एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था बनी है, जो खंडित संस्कृति को पुनः स्थापित करने की कोशिश कर रही है. दरअसल, यह संस्कृति दक्षिण एशिया के विकास की संस्कृति है. श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और अफगानिस्तान जैसे देश इसी संस्कृति में पुष्पित और पल्लवित हुए हैं. पुनः 54 देशों में इसका विस्तार भी संभव है. इसमें एशिया और अफ्रीका के देश है, क्योंकि उनकी जड़ों में हिंदू संस्कृति की पहचान है. एक ऐसा विश्व जहां शांति और आपसी मित्रता की तर्ज पर हिंसा मुक्त विश्व की सोच को बल मिलेगा.