फिल्म पाइरेसी रोकना एक जरूरी पहल है
सात साल या तेरह साल के बच्चे के लिए माता-पिता की संरक्षण में ही इस बदलाव को सुचारु ढंग से अमलीजामा पहनाया जा सकता है. जिस तरह से आज बच्चों के हाथों में मोबाइल और लैपटॉप आ गया है ये प्रावधान बेहद जरूरी हैं,
सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने पिछले दिनों लोकसभा में सिनेमैटोग्राफ संशोधन विधेयक के बारे में जोर देकर कहा कि ‘फिल्म उद्योग को इस बिल से आने वाले सौ-दो सौ सालों तक पाइरेसी से मुक्ति मिलेगी.’ संसद के दोनों सदनों से इस विधेयक को मंजूरी मिल गयी है. मनोरंजन और राष्ट्र-निर्माण में सिनेमा जैसे जनसंचार माध्यम की महत्ता को समझते हुए आजादी के तुरंत बाद सरकार ने सिनेमा के प्रचार-प्रसार में रुचि ली थी.
इसी उद्देश्य से वर्ष 1949 में सिनेमा उद्योग की वस्तुस्थिति की समीक्षा के लिए जवाहरलाल नेहरू ने ‘फिल्म इंक्वायरी कमेटी’ का गठन किया था. इस समिति ने सिनेमा के विकास के लिए कई सुझाव दिये थे. बहरहाल, वर्ष 1952 में देश में सिनेमैटोग्राफ कानून लागू किया गया था, जिसका मूल उद्देश्य फिल्मों के प्रदर्शन के लिए प्रमाण पत्र जारी करना था. देश में सिनेमा का इतिहास 110 साल पुराना है. जब कानून बना था तब सिनेमा को लेकर आज की तरह दीवानगी नहीं थी, ना ही इसकी पहुंच देश के कोने-कोने तक ही थी.
आज करीब 50 भाषाओं में सबसे ज्यादा फिल्मों का निर्माण भारत में होता है. पिछले दशकों में जहां तकनीकी क्रांति ने सिनेमा के उत्पादन और प्रसारण में सहूलियत दी है, वहीं तकनीक की सहायता से फिल्में सिनेमाघरों में रिलीज होते ही इंटरनेट, सोशल मीडिया के माध्यम से चोरी-छिपे देश-दुनिया में पहुंच जाती है.
दूसरे शब्दों में, सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान फिल्मों की चोरी-छिपे कॉपी कर ली जाती है. इससे सिनेमा और मनोरंजन उद्योग से जुड़े लाखों लोगों प्रभावित होते हैं. जाहिर है पाइरेसी का खामियाजा निर्माता-निर्देशकों को भुगतना पड़ता है. इसे रोकने की मांग फिल्म उद्योग से जुड़े लोग वर्षों से कर रहे थे. नये कानून का मुख्य ध्येय इस पाइरेसी पर रोक लगाना ही है.
अनुराग ठाकुर ने कहा कि पाइरेसी की वजह से हर साल फिल्म उद्योग को 20 हजार करोड़ का नुकसान उठाना पड़ता है. इस आंकड़े पर बहस हो सकती है, पर इससे इंकार नहीं कि पाइरेसी का मुद्दा महज भारत तक ही सीमित नहीं है. तकनीक क्रांति और भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया एक गांव में बदल चुकी है. सिनेमाघरों की बात अलग है, पर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जब कोई फिल्म रिलीज होती है, वहां से कॉपी करना या डाउनलोड करना मुश्किल नहीं है. आज कई ऐसे गैर-कानूनी वेबसाइट हैं जहां पर विभिन्न भाषाओं की दुनियाभर की नयी-पुरानी फिल्में, डॉक्यूमेंट्री, फीचर आसानी से उपलब्ध है.
ऐसे में सवाल है कि क्या पाइरेसी को रोकना आज के दौर में संभव है? न सिर्फ फिल्म बल्कि महंगी किताबें, शोध ग्रंथ, अकादमिक जर्नल भी एक बार प्रकाशित होने के बाद ऑनलाइन, ‘फ्री एक्सेस’ के लिए उपलब्ध हो जाते हैं. पिछले कुछ सालों से महंगी वैज्ञानिक जर्नलों की मुफ्त में उपलब्धता को लेकर दुनियाभर में बहस जारी है. नये कानून लागू करने वाली एजेंसियों को ध्यान रखना होगा कि पाइरेसी के तहत बेवजह प्रताड़ना न हो.
सवाल यह भी है कि क्या सरकार के पास देश में हर कोने में चल रहे सिनेमाघरों पर नजर रखने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं? पिछले वर्षों में, खास कर कोविड के बाद सिनेमाघरों को ओटीटी प्लेटफॉर्म से चुनौती मिल रही है. स्मार्टफोन पर सस्ते डाटा पैक की आसान उपलब्धता से ओटीटी का कारोबार बढ़ा है. इन प्लेटफॉर्म पर कंटेंट में विविधता भी आयी है.
नयी पीढ़ी भी मनोरंजन के लिए नये विषय-वस्तु और पटकथा की तलाश में हमेशा रहती है, जो विभिन्न ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने वाली वेब सीरीज और फिल्मों की खासियत है. यहां प्रयोग करने की गुंजाइश है. कई प्रयोगशील फिल्मकार आज सिनेमाघरों के बदले ओटीटी को तरजीह दे रहे हैं. सवाल यह भी है कि क्या सिनेमा प्रदर्शन के हर प्लेटफॉर्म, मसलन ओटीटी पर नजर रखना संभव है?
इस विधेयक में पाइरेसी के अतिरिक्त, विभिन्न आयु वर्गों को लेकर नयी श्रेणियां बनायी गयी हैं. जहां मूल सिनेमैटोग्राफ कानून के तहत यू (यूनिवर्सल) और ए (एडल्ट) प्रमाणपत्र जारी करने का प्रावधान था, संशोधन विधेयक में अब विभिन्न आयु वर्गों को ध्यान में रखते हुए सात, 13 और 16 वर्ष की आयु से ऊपर के बच्चों के लिए सिनेमा सामग्री देखने-दिखाने की श्रेणी बनायी गयी है. इसे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी लागू किया जायेगा. साथ ही, केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड इन फिल्मों के टेलीविजन या अन्य माध्यमों पर प्रदर्शन के लिए अलग से प्रमाण पत्र भी जारी कर सकता है.
प्रसंगवश, सेंसर बोर्ड पहले फिल्मों को 10 वर्ष के लिए प्रमाण पत्र जारी करता था. यह समयावधि अब समाप्त कर दी गयी है. प्रमाण पत्र अब हमेशा के लिए मान्य होगा. बहरहाल, सात साल या तेरह साल के बच्चे के लिए माता-पिता की संरक्षण में ही इस बदलाव को सुचारु ढंग से अमलीजामा पहनाया जा सकता है. जिस तरह से आज बच्चों के हाथों में मोबाइल और लैपटॉप आ गया है ये प्रावधान बेहद जरूरी हैं, लेकिन घर में विभिन्न आयु वर्ग के बच्चे सामूहिक रूप से ऑनलाइन कंटेंट का उपभोग करते पाये जाते हैं. हर समय उन पर नजर रखना कहीं सेंसरशिप का रूप न ले ले? साथ ही मनोवैज्ञानिक रूप से भी ‘नजरबंदी’ बच्चों के लिए क्या सही होगा?