अपराधियों पर सख्त लगाम
उदारवादी पुलिस-बल के खतरनाक इस्तेमाल पर नाराज हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि पीड़ितों को भी मर्यादा के साथ जीने का अधिकार है.
प्रभु चावला, एडिटोरियल डायरेक्टर, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस.
prabhuchawla @newindianexpress.com
हृदयभूमि की अनुर्वर मिट्टी में जहां अपराध पाठ्यक्रम लिखता है, जाति पाठ्यक्रम का हिस्सा है, हत्याएं अध्याय बनती हैं और पुलिस परीक्षा लिखती है. पुलिसवाले अपने आपराधिक और राजनीतिक सहपाठियों से भारतीय दंड संहिता में शिक्षाएं ग्रहण करते हैं. बीते शुक्रवार की सुबह कुख्यात गैंग सरगना और अपनी जाति का क्षत्रप विकास दुबे हत्या के सबक में असफल साबित हो गया.
अपराध के उसके पाताललोक में वापस ले आ रही उत्तर प्रदेश पुलिस की एक टीम ने उसे मार गिराया. कुछ दिनों पहले दुबे को अपनी पुलिस कठपुतली द्वारा आसन्न छापे की चेतावनी मिल गयी थी और उसने आठ पुलिसवालों की हत्या कर दी थी. इसके बाद दुबे के आधा दर्जन सहयोगियों को पुलिस ने अलग-अलग मुठभेड़ में ढेर कर दिया.
हर जगह और हर मामले में पुलिस द्वारा एक ही तरीका अपनाया गया- गैंगस्टर को पकड़ा गया, पुलिस के वाहन में डाला गया, गाड़ी को कहीं खड़ा किया गया या कोई हादसा हुआ, गैंगस्टर ने पुलिस का पिस्टल छीनकर उन्हीं पर हमला किया और पुलिसकर्मियों ने आत्मरक्षा में उसे मार गिराया. इस तरह की प्रक्रिया और कानून के उल्लंघन के बावजूद जनता जबरदस्त ढंग से सरकार व पुलिस के पक्ष में खड़ी नजर आयी.
दुबे की मौत पर उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी उदारवादी उत्साह में राजनीति-पुलिस-अपराधिक गठजोड़ पर बहस शुरू की गयी. विकास दुबे कोई शौकिया दुस्साहसी नहीं था. वह ताकतवर आपराधिक वर्ग का प्रतिनिधि था, जिसे सामाजिक, राजनीतिक और सामुदायिक संरक्षण प्राप्त था. वह राजनेताओं और पुलिस के लिए उपयोगी था. यहां तक कि हत्या के कई मामलों में अभियुक्त होने के बावजूद वह जमानत पर बाहर था.
उसका घर आपराधिक लोकतंत्र था- जहां समृद्ध, ताकतवर और गरीबी के लिए जगह थी. चूंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति और समाज में जाति की खास अहमियत है, दुबे कानपुर और आसपास के मध्यम और निचले तबके के ब्राह्मण समुदाय का बेताज महाराजा था. यह कोई संयोग नहीं है कि उसके ज्यादातर सहयोगी, जो पुलिस द्वारा मारे गये या जिन पुलिसवालों की उसने हत्या की, वे सभी एक ही समुदाय से थे. मुख्य रूप से इससे दुबे की राजनीतिक सांठगांठ और कानून की अनदेखी का पर्दाफाश हुआ.
बिना किसी दिखावे के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आगे बढ़कर नेतृत्व कर रहे हैं. उम्मीद यह थी कि गुंडे-बदमाश खुद ही छिप जायेंगे. लेकिन गुटों में बंटी और जातिवादी पुलिस बल व नौकरशाही का पक्षपाती व्यवहार सत्ता की लालसा तथा अपने विरोधियों को पंगु बनाने की आदत से संक्रमित है.
एनकाउंटर के माहौल में दुबे जैसे मामलों में जाति एक घातक पहलू है. चूंकि योगी ठाकुर हैं, तो ब्राह्मणों के खिलाफ ज्यादती के आरोप में उनकी सरकार के खिलाफ अभियान छेड़ दिया गया. सरकार को चुनौती दे रही अन्य जातियों को एक मौका मिल गया. हृदयभूमि का कई क्रूर खलनायकों से भरा लंबा इतिहास रहा है, जो खून और गोली के साथ राजनीति खेलते रहे हैं. अस्सी के दशक के शुरुआती सालों में कई राजनीतिक डॉनों का उभार हुआ. जातिवादी नेताओं ने सत्ता हासिल करने और विपक्षियों को दबाने के लिए इनका इस्तेमाल किया.
फरवरी, 1981 में बैंडिट क्वीन फूलन देवी ने ऊंची जाति के 20 लोगों की हत्या कर दी थी. इसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री वीपी सिंह को इस्तीफा देना पड़ा था. वीपी सिंह एनकाउंटर की इजाजत देनेवाले पहले मुख्यमंत्री थे. उनके छोटे से कार्यकाल में पुलिस ने 50 अपराधियों को मार गिराया था. उस नरसंहार के 40 साल बाद भी 39 आरोपियों में से किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया है. उस हत्याकांड में शामिल फूलन देवी समेत 35 लोगों की मौत हो चुकी है. जेल से बाहर आने के बाद साल 1996 में वे समाजवादी पार्टी के सांसद के रूप में लोकसभा में पहुंची.
जातिवाद की लड़ाई में 2001 में उनकी भी हत्या हो गयी. वर्ष 1980 से 2000 के बीच मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने के लिए विभिन्न दलों ने समुदाय और जाति साख वाले स्थानीय डॉन का इस्तेमाल किया. पूर्वी उत्तर प्रदेश में हरिशंकर तिवारी प्रभावी तौर पर उभरे और वे खुद भी नीति-निर्माता बने. अस्सी के मध्य में राम मंदिर मामले में यूपी का ध्रुवीकरण हुआ. उसी दौरान मुस्लिम गैंगस्टर नेताओं अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी का उभार हुआ. वे बसपा और सपा के लिए वोट जुटाने में मददगार बने.
गोरखपुर के संन्यासी ने सुधार में बाधक बन रहे अपराधियों को खत्म करने में अपनी प्रतिबद्धता दिखायी है. कार्रवाई की खुली छूट मिलने से पुलिस अपराधियों के खिलाफ सख्ती से निपट रही है. पिछले साल जब पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने प्रदेश में कानून-व्यवस्था के बिगड़ने की बात कही, तो पुलिस ने उसी लहजे में जवाब दिया.
योगी को केंद्रीय नेतृत्व का पूर्ण समर्थन प्राप्त है. पिछले वर्ष एक रैली में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि सपा और बसपा के शासन के दौरान राज्य में अपराधी खुलेआम घूमते थे. योगी के आने के बाद अपराधियों के गले में पट्टा (गिरफ्तार कर लो, लेकिन एनकाउंटर मत करो) पड़ चुका है. दुबे का अंत अपराध की संस्कृति को शांत करने और कानून के लिए भय व सम्मान बहाल करने का सुनहरा अवसर है. अन्यथा, कई दुबे और अहमद राज्य में उगते रहेंगे, जैसा कि पूर्व में हुआ.
योगी के विरोधी उन पर गैर-ठाकुर जातियों को निशाना बनाने का आरोप लगाते हैं. लेकिन वे इसे सिरे से नकारते हैं. पुलिस के मुताबिक गंभीर अपराधों के आरोपी और नामजद कई ताकतवर ठाकुर नेताओं को जेल भेजा जा चुका है. अपनी कानून-व्यवस्था की रणनीति पर योगी को कोई खेद नहीं है. भ्रष्ट जांच तंत्र और निष्क्रिय न्याय व्यवस्था के कारण लंबित मामलों का ढेर लगा हुआ है.
दुनियाभर के उदारवादी पुलिसबल के खतरनाक इस्तेमाल पर नाराज हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि पीड़ितों को भी मर्यादा के साथ जीने का अधिकार है. लोगों की हत्या और उन्हें विक्षत करनेवाले अपराधियों को विलासिता की अनुमति नहीं प्रदान की जा सकती है. ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ को भी विश्वसनीयता मिलती है, जब वह व्यापक जनहित में हो, न कि हत्या के गुनहगार को बचाने के लिए हो.
(ये लेखक के िनजी विचार हैं)