Subhash Chandra Bose birth anniversary : वह चार जुलाई, 1944 का दिन था, जब आजाद हिंद फौज के सुप्रीम कमांडर के तौर पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने बर्मा (अब म्यांमार) में ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ के नारे के साथ भारतीयों से आजादी की कीमत चुकाने का आह्वान किया. उस वक्त उनके शब्द थे, ‘अपनी कमर कस लें. यहां किसी को भी आजादी का आनंद लेने के लिए जीने की इच्छा नहीं होनी चाहिए. एक लंबी लड़ाई हमारे सामने है. आज हमारे अंदर बस एक ही इच्छा होनी चाहिए- मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके, ताकि आजादी के रास्ते शहीदों के खून से प्रशस्त हो सकें. दोस्तों! आज मैं इस बात पर आप सभी से एक बड़ी मांग करता हूं, खून की मांग. केवल खून ही है जो आजादी की कीमत चुका सकता है. तुम मुझे खून दो और मैं तुमसे आजादी का वादा करता हूं.’
अनंतर, उन्होंने एक इससे भी बड़ी बात कही थी. यह कि आजादी दी नहीं जाती, ली जाती है और जो लोग अपने लिए आजादी चाहते हैं, उनका कर्तव्य है कि उसकी कीमत अपने खून से चुकाएं. इससे पहले उनके नेतृत्व में न सिर्फ निर्वासित आजाद हिंद सरकार का गठन किया जा चुका था, बल्कि इस सरकार की इसी नाम की फौज ने अपने सैन्य अभियान का पहला चरण सफलतापूर्वक पूरा कर लिया था और अपने ऐतिहासिक ‘दिल्ली चलो’ अभियान की कामयाबी के विश्वास से भरी हुई थी. परंतु विडंबना कि इसके कुछ ही दिनों बाद भारत की एक-एक इंच भूमि को फिरंगियों के कब्जे से आजाद कराने की उसकी उम्मीदों पर घोर तुषारापात का दौर आरंभ हो गया और कोहिमा में चार अप्रैल, 1944 से 22 जून, 1944 के बीच तीन चरणों में लड़े गये विकट युद्ध में हाथ आयी पराजय ने उसकी धुन व सपने, दोनों का अंत कर दिया.
ऐसा नहीं हुआ होता तो निस्संदेह, आज हमारे देश का इतिहास कुछ और होता. वह तब भी कुछ और ही होता, अगर हमने असमय नेता जी को खो नहीं दिया होता. क्योंकि यह मानने के अनेक कारण हैं कि वे इस एक पराजय से विचलित होकर फिरंगियों का प्रतिरोध त्याग देने वाले नहीं थे और जय और पराजय को जीवन संघर्ष का अभिन्न अंग मानते थे. वे कहते थे कि अगर जीवन में संघर्ष न रहे और किसी भय का सामना न करना पड़े, तो जीवन का आधा स्वाद ही समाप्त हो जाता है. ‘वास्तव में यह संघर्ष ही है जिसने मुझे मनुष्य बनाया और मुझमें आत्मविश्वास पैदा किया. साथ ही बताया कि जब आप कुछ पाना चाहते हैं, तो उसके बदले में आपको कुछ देना भी होगा.’
जानकारों के अनुसार, फिरंगियों की गुलामी और उस गुलामी के पैदा किये नाना प्रकार के शोषणों, अत्याचारों और गैरबराबरियों को लेकर नेताजी के मन में बचपन से ही बहुत से उद्वेलन पल रहे थे. इनके चलते वे लगातार उनके प्रतिकार के उपाय और उनमें अपनी भूमिका की बाबत सोचते रहते थे. गैरबराबरी को लेकर तो उनका चिंतन इस मोड़ तक पहुंच गया था कि कई बार वे स्वयं से ही पूछते थे- यदि हमारे समाज में एक भी व्यक्ति ऐसा है जो अपनी आवश्यकताएं पूरी नहीं सकता तो मुझे सुखी जीवन जीने का क्या अधिकार है? अपने छुटपन में वे अपने घर के सामने भीख मांगकर गुजारा करने वाली एक वृद्धा के कष्ट देखकर बहुत विचलित हो जाते और सोचने लगते कि देश में यह कैसी व्यवस्था है जिसमें उसे दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती और वह जाड़े, बरसात, धूप और आंधी-तूफान से बचने के लिए सिर छुपाने की जगह की भी मोहताज है? उन्हें उसकी समस्या का तत्काल कोई निदान नहीं सूझा तो बस के बजाय पैदल कॉलेज जाना शुरू कर दिया और इससे बचने वाले पैसों से उसकी मदद करने लगे थे. आगे चलकर संभवतः इसी तरह के सवालों के जवाब ढूंढते-ढूंढते उन्होंने उन दिनों की सबसे प्रतिष्ठित इंडियन सिविल सर्विस में अपने चुनाव के बावजूद उसके फलस्वरूप मिलने वाली सुख-समृद्धि व सुविधाओं वाला जीवन त्याग दिया और स्वतंत्रता संघर्ष का कांटों भरा रास्ता चुन लिया.
आजादी के लिए खून देने के आह्वान से किसी को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वे बहुत खून-खराबा पसंद व्यक्ति थे. आजादी के लिए अपने कलेजे को उन्होंने जरूर पत्थर का बना लिया था, पर पत्थरदिल या संवेदनहीन वे कतई नहीं थे. उनकी सहृदयता की एक मिसाल यह थी कि छात्र जीवन में उनके हॉस्टल के एक मित्र को चेचक हो गयी. उन दिनों चेचक लाइलाज और जानलेवा हुआ करती थी. दूसरे छात्रों को जैसे ही इसका पता चला, वे हॉस्टल में मित्र को उसके हाल पर छोड़कर चले गये. लेकिन सुभाष ने मित्र की सेवा-सुश्रूषा शुरू कर दी. यह जानकर उनके पिता ने उनसे कहा कि इससे तुम्हें भी चेचक हो सकती है. इसलिए तुम्हें सावधान रहने की जरूरत है. इस पर सुभाष का दो टूक उत्तर था- अब तो जो भी हो, मैं अपने मित्र को अकेला नहीं छोड़ सकता. जवाब सुनकर पिता भाव-विभोर हो उठे थे. कहा था, ‘मुझे गर्व है कि तुम मेरे बेटे हो.’ निसंदेह, बाबा नागार्जुन भी अपनी ‘उनको प्रणाम’ कविता में नेता जी जैसे नायकों के लिए यह पंक्ति लिखते हुए उतने ही भाव-विभोर रहे होंगे- ‘थी उग्र साधना पर जिनका जीवन नाटक दुखांत हुआ.’ (ये लेखक के निजी विचार हैं.)