सीरिया में असली चुनौती अब शुरू होगी

Syria News : सीरिया में शांति और स्थिरता कायम करने के अलावा लोगों की बेहतरी के लिए भी काम करना पड़ेगा. वहां की 90 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे बतायी जाती है. दशकों के गृहयुद्ध को देखते हुए उसके पास अपने संसाधन बहुत कम बचे हैं.

By अनिल त्रिगुणायत | December 11, 2024 8:19 AM

Syria News : सीरिया पर एचटीएस यानी हयात तहरीर अल-शाम के नेतृत्व में विद्रोहियों का कब्जा और तानाशाह बशर-अल-असद का सत्ता छोड़कर भागना पश्चिम एशिया में पिछले कुछ समय से जारी उथल-पुथल में एक नया मोड़ है. इस घटनाक्रम ने दो बातों की याद दिला दी है. एक बात तो अरब विद्रोह से ही जुड़ी हुई है. वर्ष 2011 में हुए अरब विद्रोह का आखिरी केंद्र सीरिया था. तब आंदोलनकारियों ने मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया और यमन में सत्ता पलट दी थी. उस समय सीरिया के तानाशाह असद को सत्ता से बाहर करने की कोशिश का सफल होना तो दूर, उल्टे आंदोलनकारियों को उसका खामियाजा भुगतना पड़ा था. लेकिन 2011 में शुरू हुई लड़ाई 2024 में अपने अंजाम पर पहुंची, और असद को सत्ता छोड़नी पड़ी.


दूसरी बात यह कि असद के परिवार समेत भाग जाने के बाद विद्रोहियों की भीड़ जिस तरह राजधानी दमिश्क और अलेप्पो स्थित असद के राजमहलों में घुस गयी, उसने श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे और बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के सरकारी निवासों में भीड़ के घुसने की याद ताजा कर दी है. विद्रोहियों ने महलों से जो तसवीरें और वीडियो शेयर किये हैं, उनसे असद की आलीशान जीवनशैली की झलक मिलती है. असद को रूसी राष्ट्रपति पुतिन का निरंतर सहयोग तो मिलता ही रहा था, ईरान के अलावा आतंकी संगठन हिजबुल्लाह के लिए भी सीरिया एक बड़ा रणनीतिक केंद्र था. लेकिन यूक्रेन के साथ युद्ध में अपनी पूरी ऊर्जा लगा लेने के कारण सीरिया को दी जा रही रूसी मदद में कमी आने लगी थी. असद के कमजोर पड़ने का यह एक कारण है.

हालांकि अब भी उसे रूस का समर्थन मिला हुआ है. सीरिया से भागे असद के रूस में शरण लेने की बात कही जा रही है. इसके बावजूद सीरिया से तानाशाह असद का भागना रूस और ईरान के लिए बड़ा रणनीतिक झटका तो है ही. इससे रूस के लिए जहां पश्चिम एशिया में अपना मजबूत आधार खत्म हो गया है, वहीं ईरान के लिए हिजबुल्लाह से संपर्क साधने का रास्ता बंद हो गया है. बल्कि सीरिया के इस घटनाक्रम ने ईरान के लिए नयी चुनौती खड़ी कर दी है. दूसरी तरफ, सीरिया से असद की विदाई अमेरिका और तुर्की के लिए बड़ी सफलता है. हालांकि सच तो यह है कि सीरिया में असद के पांव उखड़ जाने का अंदाजा अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को भी नहीं था. उनका आकलन था कि इस बार भी असद विद्रोहियों को तितर-बितर करने में सफल हो ही जायेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

पश्चिम एशिया के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो सीरिया का घटनाक्रम इस्राइल के लिए भी राहत प्रदान करने वाला है, लेकिन फर्क यह है कि इस्राइल को इससे सीधे कोई लाभ नहीं मिलने वाला. सीरिया में हुए बदलाव पर असंख्य लोग खुश हैं. इनमें सीरिया के नागरिक तो खैर हैं ही, जो दशकों से असद परिवार की तानाशाही झेल रहे थे. लंबे समय से जारी गृहयुद्ध के कारण लगभग 15 लाख सीरियाई देश छोड़कर लेबनान भाग गये थे. वे लोग सीरिया के घटनाक्रम से बहुत खुश हैं और अपने देश लौटना चाहते हैं.


लेकिन कायदे से देखें, तो सीरिया के लिए चुनौती अब शुरू हुई है. कुछ लोग कह रहे हैं कि जिस तरह मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया और यमन में जन आंदोलन से सत्ता परिवर्तन का कोई लाभ नहीं हुआ, उसी तरह तानाशाह असद से छुटकारा पाने के बाद सीरिया अब नयी मुश्किलों में फंस सकता है. हालांकि ऐसा लगता तो नहीं है, क्योंकि सीरिया में असद के खिलाफ लड़ाई में जितने भी विद्रोही गुटों ने भाग लिया, कमोबेश उन सबका लक्ष्य सीरिया को असद की तानाशाही से देश को मुक्त करना था. ऐसे में, फौरी तौर पर कोई विद्रोही संगठन सीरिया पर तानाशाही थोपेगा, इसकी आशंका कम ही है. लेकिन यह भी सही है कि असद के खिलाफ जिन विभिन्न समूहों ने लड़ाई लड़ी, उन सबके बीच एकता और तालमेल बनाने का काम बहुत आसान नहीं होने वाला.

सीरिया में रहने वाले विभिन्न समुदायों, नस्ली समूहों और विभिन्न धार्मिक आस्था में यकीन रखने वाले लोगों को एकजुट करने के लिए धैर्य और दूरदृष्टि की जरूरत पड़ेगी. फिर अमेरिका से लेकर तुर्की तक ने असद के खिलाफ लड़ाई में चूंकि साथ दिया, ऐसे में, तख्तापलट के बाद नयी सत्ता में उनके भी अपने स्वार्थ हो सकते हैं. खासकर तुर्की की भूमिका इसमें बड़ी हो सकती है. हालांकि विद्रोहियों का नेतृत्व करने वाले अबू मोहम्मद अल-जुलानी ने कहा है कि यह घटनाक्रम इस इस्लामी देश के लिए बड़ी जीत है और सीरिया अब स्वास्थ्य लाभ कर रहा है. पर असलियत में विद्रोहियों के लिए एक देश के रूप में सीरिया को एकजुट करने का काम ही बहुत मुश्किल होने वाला है. विद्रोहियों के कब्जे के बाद दशकों से असद की कैद में रहे लोगों की रिहाई सबसे बड़ा काम है. तानाशाह असद ने आम नागरिकों के अलावा बड़ी संख्या में मानवाधिकारवादियों को जेलों में बंद कर रखा था. दशकों से जारी व्यवस्था को बदलने में भी, जाहिर है, समय लगने वाला है.

सीरिया में शांति और स्थिरता कायम करने के अलावा लोगों की बेहतरी के लिए भी काम करना पड़ेगा. वहां की 90 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे बतायी जाती है. दशकों के गृहयुद्ध को देखते हुए उसके पास अपने संसाधन बहुत कम बचे हैं. सीरिया दुनिया के चंद उन देशों में है, जिसके नागरिक दशकों से जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं. ऐसे में, वैश्विक मदद के बगैर तो सीरिया खड़ा हो ही नहीं सकता. असद के भाग जाने के बाद पलायन कर चुके लाखों लोग सीरिया वापस लौटना चाहते हैं. उनके पुनर्वास की व्यवस्था करनी पड़ेगी. बताया जा रहा है कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कहीं भी अमेरिकी सैन्य या आर्थिक मदद देने के इच्छुक नहीं हैं. पर सीरिया में शांति और स्थिरता की बहाली अमेरिकी मदद के बिना संभव नहीं होगी.

हालांकि यह देखने के लिए इंतजार करना पड़ेगा कि सीरिया में आया बदलाव आने वाले दिनों में क्या मोड़ लेता है, अमेरिका समेत विकसित विश्व इसकी मदद के लिए किस तरह आगे आता है. फौरी तौर पर लगता है कि सीरिया के घटनाक्रम का भारत पर असर नहीं पड़ने वाला. पर ऐसा है नहीं. चूंकि असद की सत्ता के खिलाफ लड़ने वालों में अनेक आतंकी संगठन थे, ऐसे में, विपक्ष के सत्ता में आने से वहां आतंकी समूहों के मजबूत होने की आशंका है. आइएसआइएस यदि फिर मजबूत हुआ, तो भारत के लिए खतरा बढ़ सकता है. कच्चे तेल की आपूर्ति के लिहाज से पश्चिम एशिया हमारे लिए महत्वपूर्ण क्षेत्र है. इसके अलावा लगभग एक करोड़ भारतीय वहां काम करते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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