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शिक्षकों को भी बदलना होगा

देश के भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का समाज ने भी सम्मान करना बंद कर दिया है. उन्हें समाज में दोयम दर्जे का स्थान दिया जाता है. आप गौर करें, तो पायेंगे कि टॉपर बच्चे पढ़ लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी तो बनना चाहते हैं, लेकिन कोई भी शिक्षक नहीं बनना चाहता है.

शिक्षक दिवस आ रहा है. हम हर साल पांच सितंबर को भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं. डॉ राधाकृष्णन की इच्छा थी कि उनका जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए. उनकी स्मृति में शिक्षक दिवस एक पर्व की तरह मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य शिक्षकों के मान-सम्मान को बढ़ाना है. आप गौर कीजियेगा कि इस दिन सोशल मीडिया पर संदेशों की बाढ़ आ जायेगी.

व्हाट्सएप पर गुरु की महत्ता से संबंधित संदेशों का खूब आदान-प्रदान होगा. अनेक स्कूलों में बच्चे शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए गुलाब के फूल लेकर भी जायेंगे, लेकिन हकीकत यह है कि शिक्षकों का जैसा सम्मान समाज में होना चाहिए, वैसा अब नहीं होता. किसी वक्त देश में गुरु-शिष्य परंपरा थी. गुरुओं की महिमा का वृत्तांत हमारे प्राचीन ग्रंथों में खूब मिलता है. उन्हें पथ प्रदर्शक माना जाता था और उनका दर्जा भगवान से भी ऊपर रखा गया है.

कबीर दास जी कहते हैं- गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय. हमारे ग्रंथों में एकलव्य के गुरु द्रोणाचार्य को अपना मानस गुरु मान कर उनकी प्रतिमा को सामने रख धनुर्विद्या सीखने का उल्लेख मिलता है. गुरु को इस श्लोक में परम ब्रह्म भी बताया गया है- गुरु ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः. यह सच्चाई भी है कि इस दुनिया में हमारा अवतरण माता-पिता के माध्यम से होता है, लेकिन समाज में रहने योग्य हमें शिक्षक ही बनाते हैं. शिक्षकों से अपेक्षा होती है कि वे विद्यार्थी को शिक्षित करने के साथ-साथ, सही रास्ते पर चलने के लिए उनका मार्गदर्शन भी करें.

मौजूदा दौर में शिक्षकों का काम आसान नहीं रहा है. बच्चे, शिक्षक और अभिभावक शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ियां हैं. इनमें से एक भी कड़ी के ढीला पड़ने पर पूरी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है. शिक्षक शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है. शिक्षा के बाजारीकरण के इस दौर में न तो शिक्षक पहले जैसा रहा और न ही छात्रों से उसका पहले जैसा रिश्ता रहा. पहले शिक्षक के प्रति न केवल विद्यार्थी, बल्कि समाज का भी आदर और कृतज्ञता का भाव रहता था. अब तो ऐसे आरोप लगते हैं कि शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते हैं.

इसमें आंशिक सच्चाई भी है कि बड़ी संख्या में शिक्षकों ने दिल से काम करना छोड़ दिया है. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें एक शिक्षिका धार्मिक आधार पर छात्रों को अपने सहपाठी को मारने के लिए कहती नजर आती है. वीडियो वायरल होने के बाद पुलिस ने शिक्षिका के खिलाफ केस दर्ज कर लिया, लेकिन जो नुकसान होना था, वह हो गया.

इस वीडियो ने शिक्षकों को छवि को जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी क्षति पूर्ति होना संभव नहीं है. जाहिर है, शिक्षक-शिक्षिकाओं को भी सचेत रहना होगा कि सोशल मीडिया के इस दौर में उनकी एक गलती पूरे शिक्षक समाज पर भारी पड़ सकती है. दूसरी ओर यह भी सच है कि लगभग हर राज्य का प्रशासन लगातार शिक्षकों का इस्तेमाल गैर-शैक्षणिक कार्यों में करता है. प्रशासनिक अधिकारी शिक्षा और शिक्षकों को हेय दृष्टि से देखते हैं.

देश के भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का समाज ने भी सम्मान करना बंद कर दिया है. उन्हें समाज में दोयम दर्जे का स्थान दिया जाता है. आप गौर करें, तो पायेंगे कि टॉपर बच्चे पढ़-लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी तो बनना चाहते हैं, लेकिन कोई भी शिक्षक नहीं बनना चाहता है. यह इस देश का दुर्भाग्य है कि शिक्षा कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती है. इस उपेक्षा ने हमारी शिक्षा को भारी नुकसान पहुंचाया है.

यह जगजाहिर है कि किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है. राज्यों के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है. शिक्षा की वजह से ही हिंदी पट्टी के राज्यों के मुकाबले दक्षिण के राज्य हमसे आगे हैं. हम सब यह बात बखूबी जानते हैं, लेकिन बावजूद इसके पिछले 76 वर्षों में हमने अपनी अपनी शिक्षा व्यवस्था की घोर अनदेखी की है. शिक्षा और रोजगार का चोली-दामन का साथ है. यही वजह है कि बिहार और झारखंड में माता-पिता बच्चों की शिक्षा को लेकर बेहद जागरूक रहते हैं.

उनमें एक ललक है कि उनका बच्चा अच्छी शिक्षा पाए, ताकि उसे रोजगार मिल सके. यहां तक कि वे बच्चों की शिक्षा के लिए अपनी पूरी जमा पूंजी लगा देने को तैयार रहते हैं. बिहार और झारखंड में श्रेष्ठ स्कूलों का अभाव तो नहीं है, लेकिन इनकी संख्या बेहद कम है. किसी वक्त हर जिले के जिला स्कूल में प्रवेश के लिए मारामारी रहती थी और ये माध्यमिक शिक्षा के श्रेष्ठ केंद्र हुआ करते थे. अब इन्होंने अपनी चमक खो दी है. इनके स्तर में भारी गिरावट आयी है.

कुछ समय पहले शिक्षा को लेकर सर्वे करने वाली संस्था ‘प्रथम एजुकेशन फांडेशन’ ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट ‘असर’ यानी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट जारी की थी. यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है. इसके अनुसार प्राथमिक स्कूलों की हालत तो पहले से ही खराब थी, और अब जूनियर स्तर का भी हाल कुछ ऐसा होता नजर आ रहा है. शिक्षा संबंधी एक वैश्विक सर्वे में भी भारत के बच्चों को लेकर एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आयी थी. इसमें बताया गया कि भारत के बच्चे दुनिया में सबसे ज्यादा, 74 फीसदी बच्चे, ट्यूशन पढ़ते हैं.

इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का ट्यूशन पढ़ना चिंताजनक स्थिति की ओर इशारा करता है. जाहिर है कि वे शिक्षकों को पढ़ाने से संतुष्ट नहीं हैं और विकल्प के रूप को ट्यूशन को चुनते हैं. मौजूदा दौर में युवा मन को समझना एक चुनौती बन गया है. मैंने महसूस किया है कि माता-पिता और शिक्षक युवा मन से बिल्कुल कट गये हैं. शिक्षक, माता-पिता और बच्चों में संवादहीनता की स्थिति है. टेक्नोलॉजी ने संवादहीनता और बढ़ा दी है. मोबाइल और इंटरनेट ने उनका बचपन ही छीन लिया है.

मौजूदा दौर में गुरुओं का कार्य दुष्कर होता जा रहा है. परिस्थितियां बदल गयी हैं, युवाओं में भारी परिवर्तन आ रहा है, ऐसे में यह कार्य काफी कठिन होता जा रहा है, लेकिन शिक्षकों की जिम्मेदारी कम नहीं हुई है. उनके ऊपर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है कि विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं का शमन करें और करियर की राह दिखाएं. साथ ही उन्हें एक जिम्मेदार और अच्छा नागरिक बनाने में योगदान दें. इस जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते हैं.

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