बच्चों के प्रति हिंसक व्यवहार से बचें शिक्षक

दोषपूर्ण चयन के कारण ही अनेक छात्र ऐसे शिक्षकों के हवाले हो गये हैं, जिनका न अपनी कुंठाओं पर काबू है, न ही गुस्से पर. विगत कुछ दिनों में ही कई शिक्षक अपने शिष्यों की जान के दुश्मन बने हैं. राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के एक स्कूल में 12 साल के छात्र की उसके शिक्षक की पिटाई से मौत हो गयी.

By कृष्ण प्रताप | October 18, 2022 8:06 AM

गुरु और ज्ञान की जितनी महिमा हमारे देश में गायी गयी है, शायद ही किसी और देश में गायी गयी हो. यह महिमागान ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म’ तक ही सीमित नहीं, बल्कि गुरु के बिना ज्ञान प्राप्ति को असंभव करार देने तक जाता है. संत कबीर ने सीख दी है कि अपने सिर की भेंट देकर भी गुरु से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने के कारण कितने ही ‘भोंदू’ संसार-सागर पार नहीं कर पाये.

कबीर के अनुसार, ‘गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट, अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट.’ फिर भी गुरु व ज्ञान से जुड़ी विडंबनाएं भी हमारे देश में ही सबसे ज्यादा हैं. कबीर के वक्त भी ‘जाका गुरु है आन्हरा, चेला खरा निरंध, अंधे को अंधा मिला, दोऊ कूप पड़ंत’ वाली स्थिति थी. आज की विडंबनाएं उस वक्त की विडंबनाओं से इस मायने में अलग हैं कि तब शिष्य खुद ही अपने गुरु चुना करते थे. ‘दोऊ कूप पड़ंत’ की नौबत आये, तो खुद उसके जिम्मेदार होते थे.

लेकिन अब समाज व शिक्षा की व्यवस्थाओं ने शिक्षक नामधारी गुरुओं के चुनाव की छात्र नामधारी शिष्यों की सहूलियतें बहुत सीमित कर दी हैं. छात्रों के शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश लेने के बाद ये व्यवस्थाएं ही तय करती हैं कि उनके शिक्षक कौन होंगे. उनका दावा है कि उन्होंने ऐसे शिक्षक नियुक्त कर रखे हैं, जो निष्णात हैं ही, यह भी जानते हैं कि उन्हें छात्रों से कैसे पेश आना चाहिए, पर इधर उनके इस दावे को मुंह चिढ़ा कर विचलित करने वाली इतनी खबरें आ रही हैं कि ‘दोऊ’ नहीं तो कम से कम शिष्यों के ‘कूप पड़ंत’ के लिए वही जिम्मेदार लगती हैं.

दोषपूर्ण चयन के कारण ही अनेक छात्र ऐसे शिक्षकों के हवाले हो गये हैं, जिनका न अपनी कुंठाओं पर काबू है, न ही गुस्से पर. विगत कुछ दिनों में ही कई शिक्षक अपने शिष्यों की जान के दुश्मन बने हैं. राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के एक स्कूल में 12 साल के छात्र की उसके शिक्षक की पिटाई से मौत हो गयी. उस छात्र का कसूर इतना भर था कि उसने होमवर्क नहीं किया था और परीक्षा में कम अंक पाये थे.

उसे पीटने वाले शिक्षक के खिलाफ पहले भी ऐसी शिकायतें आयी थीं, लेकिन स्कूल प्रबंधन ने कोई कार्रवाई नहीं की थी. उत्तर प्रदेश के औरैया में दसवीं कक्षा के ‘पढ़ाई में मन न लगाने वाले’ छात्र को भी शिक्षक की पिटाई से जान गंवानी पड़ी थी. राजस्थान में एक सवर्ण शिक्षक ने एक दलित छात्र को मटके से पानी लेने के ‘अपराध’ में इतनी बेरहमी से पीटा कि उसे लंबे इलाज के बावजूद बचाया नहीं जा सका.

ऐसे में यह समझना कठिन नहीं है कि छात्रों के लिए स्कूलों का माहौल कितना त्रासद हो चला है, शिक्षकों से उनके रिश्तों में कितनी फांकें आ गयी हैं और क्यों कई बार छात्रों को स्कूल जाना ‘कूप पड़ंत’ वाली स्थिति से भी घातक लगता है या क्यों गरीबी जैसे कारण आड़े न आएं, तो भी अनेक छात्र बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं. स्कूल चाहे सरकारी हो या निजी, उनका हाल एक जैसा है, जो कई बार यौन हमलों तक भी चला जाता है.

शिक्षक कह सकते हैं कि इन प्रताड़नाओं में उनकी कोई सीधी भूमिका नहीं और इनके लिए बड़ी सीमा तक स्कूल प्रबंधन जिम्मेदार हैं, लेकिन क्या वे इससे इनकार कर सकते कि वे प्रायः प्रबंधन के कारिंदों की तरह काम करते हैं और अपनी आर्थिक उपलब्धियों के चक्कर में अपने नैतिक कर्तव्यों को नहीं निभाते. छात्रों की योग्यता या सफलता के पैमानों के संकुचित बने रहने को लेकर भी वे कोई आवाज नहीं उठाते हैं? वे नहीं पूछते हैं कि भविष्य संवारने के छात्रों के विकल्प सीमित क्यों होते जा रहे हैं. वे तो यह भी नहीं पूछते कि शिक्षा जैसी सतत चलने वाली प्रक्रिया में कोई नयापन और बेहतरी महसूस नहीं होती.

सच पूछिए तो शिक्षकों को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता. इसीलिए अभी तक इस सामाजिक समझदारी की राह भी कंटकाकीर्ण ही है कि अच्छे शिक्षकों वाले स्कूल ही देश व छात्रों के बेहतर भविष्य की नींव बन सकते हैं क्योंकि घर के बाद वही उनके व्यक्तित्व विकास का सबसे अहम जरिया हैं. ये हालात तब हैं, जब नयी शिक्षा नीति में इस पर जोर दिया गया है कि स्कूलों को पढ़ाई के साथ छात्रों को शारीरिक, सामाजिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा भी प्रदान करनी होगी और इसमें लापरवाही बरतने पर उनके प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया जायेगा.

सवाल है कि ऐसे नीति-निर्देश के बावजूद स्कूलों में शिक्षकों के हाथों छात्रों की जानें जा रही हैं, तो इसका जिम्मेदार कौन है? आखिर इन ‘गुरुओं’ को यह बताना किसका काम है कि वे अपने छात्रों को ज्ञान देने के लिए हैं, उनकी जान लेने के लिए नहीं. क्या उन व्यवस्थाओं की कोई जिम्मेदारी नहीं है, जिन्होंने छात्रों को ऐसे शिक्षकों के हवाले कर रखा है, जो उन्हें अपनी कुंठा या गुस्से का शिकार बना रहे हैं?

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