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ब्रिटेन में दक्षिणपंथी दंगों का आतंक

Riots in Britain :दंगे होना ब्रिटेन में कोई नयी बात नहीं है. दो सप्ताह पहले लीड्स और पूर्वी लंदन में दंगे हुए थे. दो साल पहले लेस्टर में दंगा हुआ था, जो सोशल मीडिया पर फैली अफवाह से शुरू होने वाला पहला दंगा था. गत सप्ताह के दंगे भी सोशल मीडिया पर फैलायी गयी अफवाह से ही भड़के हैं.

Riots in Britain :अवैध आप्रवासियों और शरणार्थियों का विरोध करने वाले दक्षिणपंथी गुटों ने गत सप्ताह लंदन और मैनचेस्टर समेत ब्रिटेन के 20 से अधिक शहरों में उग्र प्रदर्शन किये, जिनमें कई जगह दंगे हुए और 50 से अधिक पुलिसकर्मी भी घायल हो गये. प्रधानमंत्री सर किएर स्टामर को आपातकालीन कोबरा समिति की बैठक बुलानी पड़ी. बैठक के बाद उन्होंने कहा कि दंगाइयों के साथ सख्ती से निपटा जायेगा और ऑनलाइन अफवाहबाजी और मिथ्या प्रचार को भी अपराध की श्रेणी में रखकर सजाएं दी जायेंगी.

दंगे होना ब्रिटेन में कोई नयी बात नहीं है. दो सप्ताह पहले लीड्स और पूर्वी लंदन में दंगे हुए थे. दो साल पहले लेस्टर में दंगा हुआ था, जो सोशल मीडिया पर फैली अफवाह से शुरू होने वाला पहला दंगा था. गत सप्ताह के दंगे भी सोशल मीडिया पर फैलायी गयी अफवाह से ही भड़के हैं. पश्चिमोत्तरी इंग्लैंड के तटवर्ती शहर साउथपोर्ट में 29 जुलाई को अफ्रीकी मूल के एक 17 वर्षीय किशोर ने बच्चियों की नृत्य और योग शिक्षा की क्लास में घुसकर तीन बच्चियों को चाकू गोदकर मार डाला तथा पांच अन्य बच्चियों और उन्हें बचाने वाले दो लोगों को बुरी तरह घायल कर दिया था.

उसे घटनास्थल पर ही गिरफ्तार कर लिया गया, पर पुलिस उसका नाम और पहचान नहीं बता सकी क्योंकि ब्रिटिश कानून किशोर अपराधी का नाम और पहचान सार्वजनिक करने की अनुमति नहीं देता. इस बर्बर हमले से फैले गुस्से और संताप के माहौल में कुछ यूट्यूबरों और अफवाहबाजों ने सोशल मीडिया पर यह अफवाह फैलानी शुरू कर दी कि हमलावर मुस्लिम है, अवैध रूप से आया शरणार्थी है और जासूसी एजेंसियों की निगाह में रहा है. पुलिस द्वारा इसका खंडन करने पर भी अफवाह फैलती चली गयी. दंगाइयों को पुलिस के भेदभावपूर्ण बर्ताव से भी शिकायत थी.


अगली शाम को साउथपोर्ट के आसपास के दक्षिणपंथी गुटों ने सोशल मीडिया के जरिये लोगों को शहर की मस्जिद के सामने विरोध प्रदर्शन के लिए जमा कर लिया. वहां शरणार्थी, आप्रवासी और इस्लाम विरोधी नारे लगे. लोगों ने पुलिस पर पथराव करना, बीयर की बोतलें और कूड़ेदान फेंकना शुरू कर दिया. अगले दिन दंगाइयों ने मैनचैस्टर के उस होटल को घेर लिया, जिसमें शरणार्थी आप्रवासियों को रखा जा रहा था. सबसे गंभीर हमला रोदरम शहर के एक होटल पर हुआ, जहां शरणार्थियों को रखा गया है.

लंदन में प्रधानमंत्री आवास के सामने दंगाइयों ने पुलिस पर फ्लेयर चलाये. इसी तरह बेलफास्ट, ब्लैकपूल, ब्लैकबर्न, लिवरपूल, लीड्स, हल, लेस्टर, ब्रिस्टल और हार्टलीपूल में उग्र प्रदर्शन हुए और कहीं-कहीं एशियाई ड्राइवरों को भी निशाना बनाया गया. हमलावर किशोर को पहली अगस्त को अदालत में पेश किया गया और जज ने मामले की गंभीरता को देखते हुए उसे सजा सुनाने के साथ-साथ उसका नाम सार्वजनिक करने पर लगी पाबंदी को भी हटा दिया. लेकिन तब तक पूर्वाग्रहों पर आधारित शक से उपजी अफवाहें अपना काम कर चुकी थीं.


इसी तरह दो साल पहले मध्य इंग्लैंड के शहर लेस्टर में पाकिस्तान पर भारत की एशिया कप विजय के जुलूस को लेकर कुछ जिहादियों ने सोशल मीडिया पर मस्जिद पर हमले की अफवाह फैला दी थी, जिसके कारण बर्मिंघम और लंदन से उग्र प्रदर्शनकारियों से भरी बसें लेस्टर गयीं और वहां हिंदू विरोधी दंगे किये. सोशल मीडिया के बहकावे में आकर लोग किस हद तक जा सकते हैं, इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण छह जनवरी को अमेरिका की संसद पर हुए हमले में देखने को मिला था.

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की हिंसक अतिवाद संबंधी प्रयोगशाला में शोध करने वाली प्रो जूलिया एबनर का कहना है कि सोशल मीडिया के विविध मंचों की अलगोरिद्म सबसे विवादास्पद और उकसाने वाली बातों को सबसे ज्यादा लोगों तक पहुंचा कर उन्हें उलझाने के लिए ही बनायी गयी हैं. इसलिए इन मंचों पर झूठ की खुली छूट के होते हुए ब्रिटेन में इस तरह के दंगे होना स्वाभाविक था. गनीमत इस बात की रही कि अपने अतिवाद के लिए कुख्यात एक-दो नेताओं को छोड़कर किसी ब्रिटिश नेता ने या मुख्यधारा के मीडिया ने अपराधी और उसकी पृष्ठभूमि को लेकर राजनीति या अटकलबाजी करने की कोशिश नहीं की, जैसा कि भारत में होता रहता है. सरकार और विपक्ष ने न केवल सारी जिम्मेदारी पुलिस पर छोड़ी, बल्कि उसका सार्वजनिक रूप से पूरा समर्थन भी किया. भारत के सभी पक्षों को इससे सीख लेनी चाहिए.


दक्षिणपंथी नाइजल फराज और उनकी रिफॉर्म पार्टी के नेताओं ने जरूर प्रदर्शनों को आप्रवासियों और शरणार्थियों की बढ़ती भीड़ तथा उससे अंग्रेजी समाज की पहचान को मिलती चुनौती से जोड़ने की चेष्टा की, जिसकी हर तरफ से निंदा हुई. परंतु, इस चिंता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. आप्रवासियों के नाम पर दक्षिणपंथी प्रदर्शनकारियों का मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाना संकेत देता है कि वे उन समुदायों को लेकर अधिक चिंतित हैं, जो यहां के समाज में समाकर चलने के बजाय अपनी सांस्कृतिक पहचान को रेखांकित करने पर आमादा रहते हैं. गत सप्ताह के प्रदर्शन और दंगे अधिकतर उन्हीं शहरों में हुए हैं, जहां 2011 में मुख्य रूप से एशियाई मुस्लिम समुदाय ने पुलिस के भेदभावपूर्ण बर्ताव के खिलाफ प्रदर्शन और दंगे किये थे.


ब्रितानी समाज में लोग भूलों से सबक सीखते रहे हैं. वर्ष 1996 में स्कॉटलैंड के शहर डनब्लेन में टॉमस हैमिल्टन ने प्राथमिक स्कूल में जाकर 16 छात्रों और अध्यापिका को हैंडगन से गोली मार दी थी और बाद में आत्महत्या कर ली थी. इस घटना ने हैंडगनों को लेकर ब्रिटिश समाज में ऐसी घृणा पैदा की कि डेढ़ साल के भीतर सरकार को हैंडगनों पर पाबंदी लगाने वाला विधेयक पारित करना पड़ा. पिछले सप्ताह भड़के दंगे सिद्ध करते हैं कि सोशल मीडिया में संवेदनशील मामलों पर झूठ की छूट और अफवाहबाजी हैंडगनों से कम खतरनाक नहीं है.

प्रधानमंत्री स्टामर ने कहा भी है कि उसे अपराध की श्रेणी में रखा जायेगा. लेकिन क्या सरकार इस विषय पर गंभीरता से सोचने और इस पर कोई कानून बनाने का साहस कर पायेगी? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ उसका संतुलन कैसे बैठाया जा सकेगा? पूर्व सोवियत नेता यूरी आंद्रोपोव ने कहा था कि मिथ्या प्रचार कोकीन की तरह है. एक-दो बार सेवन करना तो चलता है, पर यदि आप उसे हर समय लेने लगेंगे, तो लती बनकर पूरी तरह बदल सकते हैं. सोशल मीडिया पर हो रहा मिथ्या प्रचार लोगों में इसी तरह के बदलाव ला रहा है, जिसके संभावित प्रभावों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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