काजीरंगा के वन्यजीवों की व्यथा
बाढ़ तो प्राकृतिक आपदा है, लेकिन इसमें फंस कर इतनी बड़ी संख्या में जानवरों का मारा जाना तंत्र की नाकामी है. बचाव के लिए दूरगामी योजना बनाना अनिवार्य है.
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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एक सींग के गेंडे और रॉयल बंगाल टाइगर यानी बाघ के सुरक्षित ठिकानों के लिए मशहूर यूनेस्को द्वरा संरक्षित घोषित कांजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के लगभग 80 फीसदी हिस्से में पानी भर गया है. जानवर सुरक्षित ठिकाने की तलाश में गहरे पानी में थक कर हताश होने की हद तक तैरते हैं, दौड़ते है, दलदली जमीन पर थक कर पस्त हो जाते हैं. या तो पानी उन्हें अपने आगोश में ले लेता है या फिर भूख.
कुछ बच कर बस्ती की तरफ दौड़ते हैं, तो सड़क पर तेज गति वाहनों की चपेट में आ जाते हैं. हाॅग हिरण (पाढ़ा) जैसे पशु शिकारियों के हाथों मारे जाते हैं. इस बार अभी से असम की बाढ़ भयावह है. इससे राज्य के 15 जिलों के 18 लाख लोगों का जीवन प्रभावित हुआ है. इंसान तो अपने दुख-दर्द को कह लेते हैं, लेकिन इन मासूम जंगली जानवरों की परवाह कौन करे!
असम की राजधानी गुवाहाटी से कोई 225 किलोमीटर दूर गोलाघाट व नगांव जिले में 884 वर्ग किलोमीटर में फैले कांजीरंगा उद्यान की खासियत एक सींग का गैंडा है. इस प्रजाति के सारी दुनिया में उपलब्ध गैंडों का दो-तिहाई हिस्सा इसी क्षेत्र में है.
इसके अलावा बाघ, हाथी, हिरण, जंगली भैंसा, जंगली बनैला जैसे कई जानवर यहां हैं. सनद रहे, 1905 में वायसराय लाॅर्ड कर्जन की पत्नी ने इस इलाके का दौरा किया, तो यहां संरक्षित वन का प्रस्ताव हुआ, जो 1908 में स्वीकृत हुआ. साल 1916 में इसे शिकार के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया. फिर 1950 में वन्य जीव अभ्यारण, 1968 में राष्ट्रीय उद्यान और 1974 में विश्व धरोहर बनाया गया.
ताजा गणना में यहां 2413 गैंडे, 1089 हाथी, 104 बाघ, 907 हाॅग हिरण, 1937 जंगली भैंसे आदि जानवर पाये गये थे. पिछले कुछ सालों में यहां चौकसी भी तगड़ी हुई है, सो शिकारी अपेक्षाकृत कम सफल रहे हैं. हालांकि इस बार बरसात सामान्य ही है, फिर भी ब्रह्मपुत्र के दक्षिणी बाढ़ प्रभावित इलाके में बसे कांजीरंगा के जानवरों के लिए काल बन कर आयी है. साल 2016 में कोई डेढ़ हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले 140 ऐसे ऊंचे टीले बनाये गये थे, जहां वे पानी भरने पर सुरक्षित आसरा बना सकें.
ये टीले चार से पांच मीटर ऊंचाई के हैं. पिछले साल ऐसे ही जल विप्लव में 20 गैंडे, एक हाथी, कई हिरण व अन्य जानवर मारे गये थे. इस बार 183 सुरक्षित ठिकानों में से 70 जलमग्न हो चुके हैं. अनेक क्षेत्रों में गहरा पानी है. यहां सबसे बड़ी समस्या है कि पानी से बचने के लिए जानवर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 37 पर आ जाते है और तेज रफ्तार वाहनों की चपेट में आ जाते हैं. हालांकि प्रशासन वाहनों की गति सीमित रखने की चेतावनी जारी करता है, लेकिन मूसलाधार बारिश में यातायात को नियंत्रित करना मुश्किल होता है.
वैसे इस संरक्षित पार्क में जानवरों के विचरण के आठ पारंपरिक मार्गो को संरक्षित रखा गया है, लेकिन बाढ़ के पानी ने सब कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया है. वन के दूसरे छोर पर कार्बी आंगलांग का पठार है. सदियों से जानवर ब्रह्मपुत्र के कोप से बचने के लिए यहां शरण लेते रहे हैं और इस बार भी जिन्हें रास्ता मिला, वे वहीं भाग रहे हैं. दुर्भाग्य है कि वहां उनका इंतजार दूसरे किस्म का काल करता है. इस इलाके में कई आतंकी गिरोह सक्रिय हैं, जिनका मूल धंधा जानवरों के अंगों की तस्करी है. इसमें शीर्ष पर गैंडे का सींग है. एक सींग का वजन एक किलो तक होता है और इसकी स्थानीय कीमत कम से कम अस्सी लाख है, जो बाहर तीन करोड़ तक हो जाती है.
असम में समुचित विकास न होने का कारण हर साल पांच महीने ब्रह्मपुत्र का रौद्र रूप है, जो पलक झपकते ही सालभर की मेहनत को चाट जाता है. वैसे तो यह नद सदियों से बह रहा है और बाढ़ से पार्क का क्षेत्र निर्मित हुआ है, लेकिन बीते कुछ सालों से इसकी तबाही का विकराल रूप सामने आ रहा है. इसका बड़ा कारण विकास और प्रबंधन के नाम पर इंसान के प्रयोग भी हैं. हालिया बाढ़ हिमालय के ग्लेशियर क्षेत्र में मानवजन्य छेड़छाड़ का ही परिणाम हैं.
जानवरों की जिंदगी से स्थानीय लोगों को कोई सरोकार है नहीं, न ही उनकी मौत पर किसी के वोट बैंक पर असर होता है, सो काजीरंगा की नैसर्गिक सरिताओं व जल-मार्गों पर कहीं सड़कें बना दी जाती हैं, तो कहीं उन्हें पर्यटकों के अनुरूप अवरूद्ध किया जाता है. तभी पानी बहने के बजाय एकत्र हो जाता है. साल 1915 से अब तक इस जंगल की कोई 150 वर्ग किलोमीटर जमीन कट कर नदी में उदरस्थ हो चुकी है. सरकार भले ही वन के परिक्षेत्र को बढ़ाने के लिए नये इलाके शामिल कर रही हो, लेकिन हकीकत में वहां की जमीन लगातार कम हो रही है.
आज जरूरत है कि नदी तट के लगभग 20 किलोमीटर इलाके में पक्के मजबूत तटबंध या अन्य व्यवस्था से भूक्षरण को रोका जाये. बाढ़ तो प्राकृतिक आपदा है, लेकिन इसमें फंस कर इतनी बड़ी संख्या में जानवरों का मारा जाना तंत्र की नाकामी है. कभी 11 स्पीड बोट भी खरीदी गयी थीं, आज उनमें से एक भी उपलब्ध नहीं है. बचाव के लिए दूरगामी योजना बनाना अनिवार्य है क्योंकि जंगल में दूसरा खतरा पानी उतरने के बाद शुरू होता है, जब दलदल बढ़ जाता है, सूखा पर्यावास बचता नहीं और पानी मरे जानवरों के सड़ने से दूषित हो जाता है.
छोटे-छोटे हुनर से देश को मजबूती मिलेगी. विश्व युवा कौशल दिवस के अवसर पर यह संदेश देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की युवाशक्ति से कौशल सीखने और उसमें दक्षता हासिल करने की सलाह दी है. भारत ने आत्मनिर्भर होने तथा स्थानीय स्तर पर उत्पादन व उपभोग को बढ़ावा देने का संकल्प लिया है. हम आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को तभी हासिल कर सकेंगे, जब हमारी युवा पीढ़ी अपनी क्षमता में बढ़ोतरी करेगी. रोजगार और उत्पादन में कौशल ही आधार हो सकता है. स्वतंत्र रूप से उद्यम लगाने या कारोबार करने से लेकर छोटे-बड़े उद्योगों में कामकाज के लिए दक्ष होना अनिवार्य है.
उद्यमिता का क्षेत्र व्यापक है, इसलिए कौशलों के प्रकार भी बहुत हैं. युवा अपनी दिलचस्पी और जरूरत के मुताबिक चयन कर सकते हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है, सीखने की यह प्रक्रिया लगातार चलती रहनी चाहिए. पांच साल पहले केंद्र सरकार ने स्किल इंडिया मिशन की शुरुआत की थी, जिसके तहत अब तक लाखों लोगों को प्रशिक्षित किया जा चुका है. इससे प्रेरित होकर कई राज्य सरकारों तथा औद्योगिक समूहों द्वारा भी अपने स्तर पर लोगों को कौशलयुक्त करने के कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं.
कुछ दिन पहले कुशल कामगारों के लिए एक वेब-पोर्टल भी शुरू हुआ है. इससे एक तो कौशल की उपलब्धता की जानकारी मिल सकेगी, वहीं कंपनियों को आसानी से जरूरत के हिसाब से कामगार मिल सकेंगे. लॉकडाउन ने औद्योगिक और कारोबारी गतिविधियों को तो नुकसान पहुंचाया ही है, प्रवासी कामगारों की वापसी से भी नयी चुनौतियां पैदा हुई हैं. उन्हें स्थानीय स्तर पर रोजगार देने की कोशिशें तेजी से हो रही हैं. उनमें बहुत से लोग अकुशल भी हैं.
यदि कौशल हासिल करने पर जोर दिया गया, तो भविष्य में इस तरह की समस्याओं का सामना आसानी से किया जा सकता है. आत्मनिर्भरता के साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि हम उत्पादन का निर्यात भी कर सकें ताकि निवेश व समृद्धि के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि दूसरे देशों की जरूरतों की जानकारी मुहैया करायी जायेगी, ताकि उनके अनुसार उत्पादन को बढ़ावा मिले और उसी हिसाब से कौशल भी सीखा जाये. ऐसा कर हम वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी मजबूत जगह बना सकते हैं.
हम सभी जानते हैं कि न तो हमारे पास संसाधनों की कमी है और न ही कामगारों की. समुचित निवेश की उपलब्धता भी है. इसके बावजूद उत्पादन में अनेक देशों से पीछे होने की एक बड़ी वजह हमारे कामगारों का अकुशल होना है. हमारे देश के कुल कार्यबल में महज 2.3 फीसदी लोग ऐसे हैं, जिनके पास कामकाजी कौशल है. इस तथ्य के आलोक में देखें, तो कौशल सीखने पर प्रधानमंत्री के जोर देने तथा स्किल इंडिया जैसी पहलों की अहमियत को समझा जा सकता है. युवा पीढ़ी को कौशलयुक्त बनाने के लिए सरकार, उद्योग जगत और समाज को मिलजुल कर काम करने की जरूरत है.