राजनीति में गांधीवाद का आकर्षण
गांधी ने कई तरह से बंटे भारतीयों को एकताबद्ध कर देशभक्ति का संचार किया था. उनके संदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने तब थे.
महात्मा गांधी बीती सदी के सबसे स्थापित वैश्विक राजनीतिक प्रतीक हैं. लेनिन से लेकर चे ग्वेरा तक और हो ची मिन्ह से लेकर नेल्सन मंडेला तक कई राष्ट्रीय नेता हुए, जिन्होंने वैश्विक प्रतिष्ठा प्राप्त की. ये सभी असली और सच्चे ‘विश्वगुरु’ हैं. हालांकि इनमें से कुछ का प्रभाव कम हुआ होगा, पर महात्मा गांधी का ब्रांड असरदार बना हुआ है और दुनियाभर में इनके प्रति आकर्षण बढ़ रहा है.
भारतीयों के बीच उनका आकर्षण कुछ ऐसा है कि कम्युनिस्ट पार्टियों और भारतीय जनता पार्टी जैसी उनकी आलोचना करनेवाली पार्टियों को भी उनकी महान छवि को स्वीकार करना पड़ा है. इसलिए यह अचरज की बात नहीं है कि भारतीय राजनीति के मंच पर ताजातरीन आनेवाले प्रशांत किशोर ने भी अपनी और अपनी नयी राजनीतिक परियोजना की शुरुआत महात्मा गांधी के नाम पर की है.
किशोर ने अपने आदर्श के लिए न केवल गांधी से संबंधित एक उक्ति- ‘सही क्रिया ही बेहतरीन राजनीति है’- का चयन किया, बल्कि उन्होंने अपनी पदयात्रा प्रारंभ करने के लिए भी गांधी से जुड़े स्थान चंपारण का चयन किया है. इस पदयात्रा के बाद वे एक राजनीतिक दल की स्थापना करेंगे. प्रशांत किशोर ने गांधीजी की चित्रात्मक उपस्थिति में ये घोषणाएं की.
महात्मा गांधी से प्रेरित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पहली ऐसी राजनीतिक पार्टी थी, जिसने अपने को सरकार की पार्टी के रूप में कामयाबी से पेश किया था. इसे चुनौती देनेवाले पहले बड़े दल- जनता पार्टी- का नेतृत्व एक गांधीवादी जयप्रकाश नारायण ने किया था. उस पार्टी की स्थापना की घोषणा भी महात्मा से जुड़े प्रतीकों की उपस्थिति में हुई थी. मार्च, 1977 में संसद के लिए निर्वाचित जनता पार्टी के सदस्य गांधीजी की समाधि पर एकत्र हुए और उन्होंने उनके आदर्शों पर चलने की शपथ ली.
बहरहाल, समय बीतने के साथ गांधीजी को केवल उनकी जयंती और पुण्य तिथि पर याद किया जाने लगा है या फिर उनकी याद तब आती है, जब संसद भवन के परिसर में उनकी प्रेरणादायी मूर्ति के नीचे विपक्षी सांसद विरोध प्रदर्शन करते हैं. क्या किशोर ने महात्मा को अपने राजनीतिक आदर्श और प्रेरणा के रूप में इसलिए ग्रहण किया है कि उनके पास संग्रहित आंकड़े इंगित कर रहे हैं कि उस राष्ट्रीय आंदोलन की जड़ों के पास लौटने की एक राष्ट्रीय चाह है, जिसने विभाजित भारत को एकजुट किया था?
क्या भारत, जो फिर एक बार सांप्रदायिक, जातिगत, भाषायी और क्षेत्रीय आधारों पर विभाजित हो रहा है, एक ऐसे नेता का आकांक्षी है, जो सबको एक साथ ला सके? राजनीति में ब्रांड के महत्व से परिचित किशोर ने क्या यह जान लिया है कि देशभर के युवाओं में धर्मनिरपेक्ष देशभक्ति की चाहत बढ़ती जा रही है?
गांधीजी ने कई तरह से बंटे भारतीयों को एकताबद्ध कर देशभक्ति का संचार किया था. उन्होंने वैश्विक मंच पर भारत के विशिष्ट व्यक्तित्व को भी प्रक्षेपित किया था. ऐसे समय में, जब भारत आंतरिक रूप से विभाजित है और उसकी बाह्य छवि चोटिल है, एक नया गांधीवादी आख्यान देश में शांति व सद्भाव स्थापित कर सकता है तथा देश के बाहर प्रतिष्ठा को बढ़ा सकता है. अहिंसा और सामाजिक समता के गांधीजी के संदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके समय में थे.
अधिकतर दल वर्गीय या क्षेत्रीय नेताओं से प्रेरित हैं, जो संकीर्ण राजनीतिक मंचों का प्रतिनिधित्व करते हैं. कांग्रेस, जो अब सोनिया कांग्रेस हो चुकी है, अपने को नेहरू, इंदिरा, राजीव, सोनिया और राहुल के राजनीतिक वंश के वारिस के रूप में पेश करती है. वामपंथी पार्टियां मार्क्स और लेनिन से वैचारिक प्रेरणा लेती हैं, पर राजनीतिक स्तर पर वे नम्बूदरीपाद, सुंदरैया, अच्युतानंदन और ज्योति बसु की विरासत पर निर्भर हैं.
भाजपा ने विशेषकर हाल के वर्षों में गांधीजी के साथ गहरे वैचारिक मतभेदों की अपनी ऐतिहासिक विरासत से पार पाने का भरसक प्रयास किया है, लेकिन वह महात्मा के प्रति व्यापक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय प्रेम और आदर को अनदेखा करने में विफल रही है. भाजपा के लिए एक समस्या रही है कि वह संघ परिवार के स्वतंत्रता से पहले के किसी नेता को गांधीजी की प्रतिष्ठा के बराबर नहीं ला सकी है. इस प्रयास में उन्हें सरदार पटेल को लेना पड़ा है.
समय के साथ कांग्रेस ने गांधीजी के स्थान पर अपने मुख्य आदर्श के तौर पर नेहरू और इंदिरा को स्थापित कर दिया है, पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा को अटल बिहारी वाजपेयी को वैसा दर्जा देने में असमंजस है. हालांकि उनके लिए संघ परिवार में सम्मान है, पर कट्टर हिंदुत्व समर्थक हिंदू धर्म के नरम और उदारवादी पक्ष को पसंद नहीं करते, जिसका प्रतिनिधित्व वाजपेयी करते थे. मोदी समर्थक उन्हीं को आदर्श के रूप में स्थापित करने के लिए मेहनत कर रहे हैं.
हाल में सत्ता में उनके दो दशक पूरे होने पर आयी किताब का विमोचन इसका एक उदाहरण है. क्षेत्रीय दलों के लिए उनके संस्थापक ही उनके आदर्श हैं. चरण सिंह उन लोगों के लिए प्रतीक हैं, जो उनकी विरासत के प्रति समर्पित हैं. कांशीराम और मायावती अपने समर्थकों को प्रेरित करते हैं. क्षेत्रीय नेता व्यापक विचारधारा की तुलना में वर्गीय समर्पण के लिए अधिक आकर्षक रहे हैं, पर उनमें कुछ का प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक राष्ट्रीय रहा है.
अन्नादुरई द्रविड़ पहचान के वारिस व संरक्षक थे, तो चरण सिंह ने किसानों के हितों का प्रतिनिधित्व किया. एनटीआर ने तेलुगु गौरव पर ध्यान केंद्रित किया, लेकिन उन्होंने एक वर्चस्ववादी राजनीतिक शक्ति के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर लामबंदी की. राजनीतिक सलाहकार के तौर पर किशोर के असंकीर्ण रिकॉर्ड को देखते हुए यह देखना बाकी है कि वे किस तरह की विचारधारा या मंच का प्रतिनिधित्व करेंगे.
अरविंद केजरीवाल ने शुरू में सुशासन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष के इर्द-गिर्द अपना ब्रांड बनाया था, पर अब वे अन्य राजनेता की तरह ही हैं. जिस प्रकार केजरीवाल ने दिल्ली और पंजाब जीत कर अपने को स्थापित किया है, किशोर को अपने गृह राज्य बिहार में अपनी क्षमता साबित करनी होगी, तभी उन्हें गंभीरता से लिया जायेगा.
किशोर को पता होगा कि राजनीति केवल संख्या का खेल नहीं है, इसमें स्पष्ट और गणनायोग्य समर्थन भी जुटाना होता है. सूचना युद्ध और सांकेतिक अभियान के दौर में दोनों ही महत्वपूर्ण हैं. क्या किशोर ने अपने डाटा संग्रह से जान लिया है कि वर्गीय हितों और सत्ता की चाह में बढ़ती हिंसा से ग्रस्त देश में गांधीजी के प्रति नया सम्मान पैदा हो रहा है? गांधीवादी आदर्शवाद को वे कैसे एक राजनीतिक और आर्थिक नीति के मंच में बदलेंगे, यह देखा जाना है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)