वनाग्नि में झुलसता वनों का भविष्य
भारत में 35.47 प्रतिशत वन ऐसे हैं, जिन्हें आग की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील माना गया है. तीन लाख से ज्यादा वनाग्नि की घटनाएं पिछले साल हुईं और नवंबर से अब तक आठ हजार से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं.
वनाग्नि को लेकर फिर चिंताएं शुरू हो चुकी हैं. सरकारी पहल के अनुसार 15 फरवरी के बाद होनेवाली तैयारियों की वजह यह है कि इसी समय बढ़ती गर्मी के साथ जहां एक तरफ पतझड़ जोर पकड़ता है, वहीं गर्मी वातावरण को शुष्क बना देती है. किन्हीं कारणों से अगर एक बार वन आग की चपेट में आता है, तो घटनाएं बढ़ती चली जाती हैं.
इतिहास साक्षी है कि वनाग्नि हमेशा से एक बड़ी चिंता रही है, लेकिन पिछले कुछ समय से लगातार इस दानव ने जिस तरह से वनों को लीला है, वह एक बड़ा सवाल अपने ही देश का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का है. वनों की आग के पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण ग्लोबल वार्मिंग यानी पृथ्वी का बढ़ता तापक्रम है. इससे जहां एक तरफ तूफानों ने जोर पकड़ा है, वहीं शुष्क वातावरण और आग इस दानव को बहुत बड़ा बना देते हैं.
अपने देश में 35.47 प्रतिशत वन ऐसे हैं, जिन्हें ऐसी घटनाओं की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील माना गया है. तीन लाख से ज्यादा घटनाएं पिछले साल हुईं और अभी नवंबर से अब तक आठ हजार से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं. इनमें सबसे ज्यादा घटनाएं महाराष्ट्र, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, असम और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में घटी हैं. इस संबंध में सात राज्य ज्यादा महत्वपूर्ण माने जाते हैं क्योंकि वहां जैव विविधता बेहतर है और वनाग्नि बड़ी चोट जैव विविधता पर ही करती है.
मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उड़ीसा और तेलंगाना में बेहतर वन हैं. ये मात्र स्थानीय पारिस्थितिकी को ही संरक्षण नहीं देते, बल्कि आर्थिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं. इन राज्यों में लगातार अग्नि घटना घटती चली जा रही हैं. माना गया है कि अगर समय पर वनाग्नि पर नियंत्रण नही लगा, तो इनसे सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिकीय नुकसान हो सकते हैं.
भारत में करीब बीस हजार वर्ग किलोमीटर में ऐसे वन हैं, जो अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में आते है. इनके अलावा करीब पांच लाख वर्ग किलोमीटर में संवेदनशील वन हैं. ऐसे में जो कुछ भी तैयारी हम वनाग्नि के लिए करते हैं, यह समय है कि एक बार हम गंभीरता से विश्लेषण कर लें कि पिछले एक दशक से हमारे कदम कितने कारगर रहे हैं.
यह देखने में भी आया है कि खासतौर से कुछ राज्यों, जैसे उत्तराखंड और मध्यप्रदेश, में वनाग्नि की घटनाएं लगातार लंबे समय से घट रही हैं. उत्तराखंड में खासतौर से बदलती प्रजातियों, जिनमें चीड़ जैसे जंगल या खर-पतवार (जैसे लैंटाना प्रजाति) वनाग्नि को हवा देने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. ऐसे में जरूरी हो जाता है कि हम पहले के कदमों की गंभीर समीक्षा करें.
हम कभी-कभी निम्न स्तर पर उतर कर वनों की आग के लिए स्थानीय लोगों को दोष देने लगते हैं. हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह के दोषारोपण से हमें कुछ हासिल नहीं होगा क्योंकि हम जो खोते हैं, वह सबके हिस्से का होता है और ऐसे में सामूहिकता का सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.
यह भी महत्वपूर्ण है कि जब से वनों को वन विभाग के दायित्व का हिस्सा मान लिया गया और यह भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी कि स्थानीय लोगों का इन वनों से कुछ लेना-देना नहीं है, तब से ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं.
स्थानीय लोगों ने किसी भी रूप में अपनी भागीदारी बिल्कुल शून्य कर दी. वनाग्नि के इस दानव ने उत्तराखंड, मध्यप्रदेश या फिर देश के अन्य कोनों में वनों को राख कर दिया. हमें अपनी वन नीति को नयी दृष्टि से भी देखने की कोशिश करनी चाहिए कि किस तरह वनों में स्थानीय भागीदारी को बढ़ाया जा सकता है, जहां सुरक्षा व संरक्षण की भी व्यवस्था हो और उनके भी हित साधे जा सकते हों.
पारिस्थितिकी तंत्र को हम पहले ही बड़ी चोट पहुंचा चुके हैं. ऐसे में वनाग्नि कितना बड़ा नुकसान पहुंचा पायेगी, यह भी हमें अब समझ में आ जाना चाहिए. इसलिए हमारी रणनीति में सामूहिकता होनी चाहिए. ये वन विभाग के बूते की बात ही नहीं है कि वनों को इतने बड़े व्यापक क्षेत्रों में इस दावानल से अकेले जूझ सकें.
उत्तराखंड को ही देखें, यहां वन पंचायतें अपने-आप में एक महत्वपूर्ण स्थायी इकाई हैं, जिनका सीधा-सीधा वनों से लेना-देना है. इन वन पंचायतों को वनों से नये सिरे से वनाग्नि से जूझने के लिए जोड़ना होगा. पिछले चार दशकों से हमारी वन नीतियां बेहतर प्रबंधन नहीं कर पायीं, जबकि इससे पहले वन लोगों की कृपा से पनपते और फलते-फूलते थे.
आज हमें नयी अनूठी पहल की भी आवश्यकता है. यह साफ है कि किसी भी हालत में वर्तमान वन नीति और इसकी शैली और लोगों की वनों से बढ़ती दूरी और अधिकार हमें बचे-खुचे वनों से भी शायद वंचित कर देंगे. यह स्पष्ट है कि जंगल व गांव के अपने रिश्ते होते हैं. वनवासियों के उन रिश्तों को नयी शैली में जोड़ना चाहिए, जहां इनका संरक्षण भी हो और उनकी रूचि भी बनी रहे. ऐसी पहल की आज सबसे बड़ी आवश्यकता है, वरना समय पर गंभीर निर्णय न लेने की स्थिति में हम अपने सामने इन वनों को खो देंगे. हमारी नीतियां व तमाम रिकॉर्ड, जो वनों से संदर्भित हैं, ये वनाग्नि उनको खाक कर देगी.