तीन सप्ताह से अधिक समय से जो घटनाक्रम ईरान में चल रहा है, वह बेहद चिंताजनक है. मीडिया रिपोर्टों की मानें, तो अब तक सौ से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है तथा बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां भी हुई हैं. इसके बावजूद देश के लगभग सभी हिस्सों में विरोध प्रदर्शन जारी हैं. ये प्रदर्शन 16 सितंबर को महसा अमीनी नामक लड़की की मौत के बाद से चल रहे हैं. उसे ठीक से हिजाब न पहले के लिए हिरासत में लिया गया था, जहां वह बेहोश हो गयी थी. ईरानी पुलिस पर आरोप है कि इस लड़की के साथ हिरासत में मारपीट की गयी थी.
अभी जो परिस्थिति ईरान में बनी है, वह इस लिहाज से भी दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि ईरान उन कुछ इस्लामिक देशों में से एक रहा है, जहां विभिन्न प्रकार के सुधार किये गये थे. इन सुधारों को अयातुल्लाह खुमैनी की अगुवाई में 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति के बाद उलट दिया गया था. दुनिया जब बदलाव और खुलेपन की ओर बढ़ रही है, तब इसे जोर-जबरदस्ती से रोक पाना उचित नहीं है. खुलेपन का यह मतलब नहीं है कि पश्चिमी सभ्यता और उसके मूल्यों को पूरी तरह धारण कर लिया जाए, लेकिन जब लोगों, विशेषकर युवा वर्ग, को रूढ़िवादिता में जकड़ा जायेगा, तो उनका विरोध करना स्वाभाविक है.
यदि रूढ़ियों में समाज को बांधकर रखना है, तो फिर पूरी दुनिया से अलग-थलग होने का विकल्प ही बचता है, आप इंटरनेट बंद कर दें, सूचना तकनीक को खत्म कर दें. इसके बरक्स यह विकल्प है कि आप दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलें, अपने समाज के मूल्यों, अपने धार्मिक विश्वासों तथा अपने पारिवारिक परंपराओं को बरकरार रखते हुए समाज में कुछ खुलापन लाने की दिशा में आगे बढ़ें.
यह बड़े अफसोस की बात है कि ईरान आज से छह-सात दशक पहले जैसा था, आज इतने अरसे बाद वह और भी पीछे की ओर जा रहा है. इस्लाम को रूढ़िवादिता में बांधकर मुल्ला लोगों ने यह समझा दिया है कि प्रतीकों में धर्म है, जबकि वास्तविकता यह है कि धर्म के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन प्रतीक में धर्म नहीं हो सकता है. इसलिए धर्म की गहराई को और उसकी आत्मा को समझने की जरूरत है.
उसमें मानवता के कल्याण के लिए काम करने का संदेश मूल रूप से अंतर्निहित है. हमें आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होना चाहिए. दाढ़ी, टोपी और पहनावे में धर्म खोजना बेमानी बात है. पसंद से अच्छे कपड़े पहनने और अच्छा खाना. खाने का धर्म से कोई टकराव नहीं है.
दुनियाभर में सऊदी अरब से हुए वहाबीवाद के निर्यात के जरिये इस्लाम को एक कट्टर रूप दे दिया गया. इसका एक असर ईरान पर भी हुआ है. ऐतिहासिक तथ्य यह है कि अमेरिका ने तत्कालीन सोवियत संघ के साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए रूढ़िवादी इस्लाम का सऊदी अरब से निर्यात करवाया. उसका इरादा यह था कि मुस्लिम देशों और समाजों में रूढ़िवाद की दीवार इतनी मजबूत व ऊंची हो जाए कि साम्यवाद उसे पार न कर सके.
अमेरिका उस काम में कामयाब रहा, लेकिन समूचा मुस्लिम समाज आज उसका खामियाजा भुगत रहा है. अब तो उसे समझ ही जाना चाहिए कि किसके कहने पर कौन उसका भुगतान कर रहा है. आज भले ही अमेरिका की इसमें दिलचस्पी नहीं रही हो, लेकिन मुस्लिम समाजों के भीतर हर जगह ऐसे संगठन खड़े हो हो गये हैं, जो रूढ़िवादिता का प्रचार-प्रसार करते रहते हैं.
मेरा हमेशा से मानना है और यह बात मैं भारतीय मुस्लिम समाज से कहता भी रहा हूं कि आप एक शांतिपूर्ण समाज में पले-बढ़े हैं, यहां के मूल्यों से आपको जो लाभ हुआ है, उसे सामने रखकर दुनियाभर के मुसलमानों को रास्ता दिखाइए. इसका कारण यह है कि किसी और देश के मुसलमानों को ऐसे बहुसांस्कृतिक समाज में रहने का अच्छा अनुभव नहीं रहा है.
ईरान हो या कोई और देश या समाज या धर्म, जो जितना कट्टरपंथ की ओर बढ़ेगा, उतना ही अपना नुकसान करेगा. यह सबक लेने के लिए पूरी दुनिया का इतिहास हमारे सामने है. कट्टरपंथ ने अफगानिस्तान का क्या हाल किया है, यह हम देख रहे हैं. दूसरी ओर मलेशिया, इंडोनेशिया और बांग्लादेश के उदाहरण हैं, जो उदार हुए और इससे उनका विकास हुआ. साल 1950 के दशक के एक सर्वे में बताया गया था कि पाकिस्तान की औसत आय भारत से 70 फीसदी अधिक थी तथा बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) की औसत आय भारत से 70 फीसदी कम थी.
आज स्थिति यह है कि बांग्लादेश भारत और पाकिस्तान दोनों से आगे निकल गया है तथा पाकिस्तान भारत से बहुत पीछे चला गया है. कट्टरपंथी देशों और संगठनों को देखकर भले यह लगे कि वे दूसरों का नुकसान कर रहे हैं, पर असल में वे खुद को ही बर्बाद कर रहे होते हैं. आज ईरान के सत्ताधारी वर्ग को बहुत पहले हुए सुधारों को देखना चाहिए तथा विरोध प्रदर्शनों को बलपूर्वक कुचलने के बजाय समाज में खुलेपन की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए. ऐसा नहीं हुआ, तो मिस्र या अल्जीरिया की तरह ईरान में भी तख्तापलट हो सकता है.
यह सही है कि पहले जो सुधार ईरान में हुए और फिर खुमैनी साहेब के सत्ता में आने के बाद उन्हें उलट दिया गया और रूढ़िवादिता हावी हो गयी, लेकिन उन सुधारों का लाभ आज भी ईरानी समाज उठा रहा है. अभी जो संघर्ष चल रहा है, वह इस वजह से है कि उसे उन लाभों से वंचित होने का खतरा महसूस हो रहा है. इसी कारण यह विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है. आज सऊदी अरब जैसे देश में तेजी से आधुनिकीकरण हो रहा है.
ऐसे में ईरान जैसा देश अगर समाज, जो पहले ही आगे जा चुका था, को पीछे की ओर ले जाना चाहता है, तो इसे मूर्खता ही कहा जायेगा. यह अवसर भारत समेत दुनियाभर के लिए भी यह सबक लेने का है कि हिंसा और कट्टरपंथ का मिश्रण बहुत घातक होता है तथा वह विकास की राह को अवरुद्ध कर सकता है. ईरान के विरोध का असर व्यापक हो सकता है.
इसका महत्व उसके दो पड़ोसी देशों- अफगानिस्तान और पाकिस्तान- के लिए बहुत अधिक हो सकता है. एक समय अफगानिस्तान बेहद खूबसूरत देश हुआ करता था, पर आज वह कट्टरपंथ, आतंकवाद और हिंसा का पर्याय बना हुआ है. पाकिस्तान का हाल तो हम देख ही रहे हैं. ईरानी शासन को धैर्य से काम लेना चाहिए तथा लोगों की आवाज को सुनना चाहिए.