न्यायिक व्यवस्था में सुधार जरूरी
गुलामी के लंबे दौर के बाद यह उम्मीद बंधी कि न्याय की ऐसी प्रणाली स्थापित होगी, जिसमें न्याय होना ही नहीं, होता हुआ दिखना भी जरूरी माना जायेगा.
न्याय व्यवस्था से लोगों की शिकायतें बहुत पुरानी हैं, क्योंकि अतीत में राजशाही, तानाशाही और सामंती सत्ताएं न्याय के नाम पर अन्याय ही करती रहीं. अकबर और बीरबल से जुड़ा एक किस्सा यूं है कि एक किसान की पत्नी नहीं रही, तो अपने अशांत मन के लिए शांति की तलाश में वह काजी के पास गया. काजी ने दरगाह जाने की सलाह दी, तो उसने जीवन भर की अपनी गाढ़ी कमाई आशंका से काजी की सुरक्षा में छोड़ दी कि दरगाह के रास्ते में वह चोरी ना हो जाए.
कुछ दिनों बाद जब वह दरगाह से लौट कर आया और काजी से अपनी थैली वापस ली. घर जाकर उसने पाया कि थैली में सिक्कों की जगह पत्थर हैं. इस बारे में पूछने पर काजी भड़क उठा और धमकाने लगा कि इस झूठे इल्जाम के लिए वह उसे बख्शेगा नहीं. बात बीरबल तक पहुंची, तो उन्होंने किसान को न्याय दिलाने का उपाय सोचते-सोचते अपने नौकर को एक फटा कुर्ता देकर उसको इस तरह रफू करा लाने को कहा कि किसी को उसके फटे होने का पता न चले.
नौकर रफू हुआ कुर्ता वापस लाया, बीरबल के पूछने पर रफूगर की जानकारी दी. दो दिन बाद पीड़ित किसान और काजी अकबर के दरबार में पेश हुए. जैसे ही रफूगर को बुलाने को आदेश हुआ, काजी के होश उड़ गये. डर के मारे उसने बता दिया कि थैली में सिक्के देख कर वह लालच में पड़ गया था और सिक्के निकाल कर उसने थैली में पत्थर भरे और उसे रफू करा कर पहले जैसा बना दिया. किसान को सिक्के मिल गये और काजी को जेल भेज दिया गया.
हमारे इतिहास में बीरबल जैसी सूझ-बूझ रखने वाली शख्सियतें कम हुई हैं, जिसके चलते काजी जैसे लोग सारी बेईमानियों के बावजूद राज व्यवस्था के अभिन्न अंग बने रहे. बीच-बीच में लोगों को इंसाफ दिलाने के जहांगीर जैसे अजीबोगरीब प्रयोगों की भी कहानियां आती हैं. कहते हैं कि जहांगीर रियाया की शिकायतें खुद सुना करते थे. उन्होंने आगरे के किले शाह बुर्ज और यमुना तट पर स्थित पत्थर के खंभे में फरियादियों की सुविधा के लिए चालीस गज लंबी सोने की जंजीर बंधवा कर उसमें साठ घंटियां लगवायी थीं.
अन्याय से पीड़ित कोई भी व्यक्ति किसी भी समय न्याय की इस जंजीर को खींच कर गुहार लगा सकता था. बहरहाल, गुलामी के लंबे दौर के बाद हमने संविधान बना कर देश में सम्राटों व बादशाहों के बजाय कानून का शासन स्थापित करने का ऐलान किया और स्वतंत्र न्यायपालिका की दिशा में तेजी से कदम उठाना शुरू किया. यह उम्मीद बंधी कि अब हालात बदलेंगे और पीड़ितों को वास्तविक न्याय मिल सकेगा. न्याय की ऐसी प्रणाली स्थापित होगी, जिसमें न्याय होना ही नहीं, होता हुआ दिखना भी जरूरी माना जायेगा.
कुछ दिन पहले राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण की ओर से आयोजित एक बैठक में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना ने बताया कि देश की बड़ी आबादी के लिए न्याय तक पहुंच अभी भी सपना है, बहुत कम लोग ही इंसाफ मांगने अदालतों तक पहुंच पाते हैं और शेष आवश्यक माध्यमों, साधनों व जागरूकता के अभाव में मूक रह कर, कहना चाहिए घुटते हुए, नाइंसाफी की पीड़ा सहते रहते हैं.
इस बात से किसी और तथ्य की जरूरत ही नहीं रह जाती कि बिना भेदभाव न्याय के सबके लिए सुलभ व सस्ता होने की उम्मीद अभी भी अधूरी ही है. यह भी है कि जो लोग अदालतों में पहुंच जाते हैं, उनमें से ज्यादातर को थका देने वाले लंबे इंतजार और भारी खर्च के बाद ही फैसला मयस्सर हो पाता है, एक फिल्म के संवाद ‘तारीख पर तारीख पर तारीख’ का जो चित्र आंखों के सामने आता है,
वह इस अर्थ में बहुत आतंकित करता है कि न्याय व्यवस्था में जहां ‘वादी का हित सर्वोच्च’ होने की बात कही जाती है, सारी मुश्किलें उसी के ही नाम लिख दी गयी हैं. वहीं अपराधियों के पास मामलों को लंबा खींच कर इंसाफ को इंसाफ ही न रहने देने की सहूलियतें हासिल हैं.
देर से मिला इंसाफ इंसाफ नहीं होता. फैसलों में देरी के कारण कई बार छोटे-छोटे मामले भी बड़े नासूर में बदल जाते हैं. अदालतों का एक और रोग यह है कि उनमें श्रीमंतों व शक्तिमंतों से जुड़े मामलों को तरजीह मिलती रहती है और आम लोगों के मामले इंतजार ही करते रह जाते हैं. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में भी ऐसा गजब हुआ कि एक मामले की सुनवाई की तारीख उससे संबंधित याचिका दायर होने से पहले ही तय कर दी गयी.
विडंबना यह भी है कि किसी के लिए आधी रात को अदालतों के दरवाजे खुल जाते हैं और कोई अरसे तक उनकी कुंडियां ही खटकाता रह जाता है. प्रधान न्यायाधीश ठीक कहते हैं कि इन हालात को सुधारने के बजाय छिपाया जाता रहा, तो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय का संवैधानिक जनादेश व्यर्थ होकर रह जायेगा.
इसके लिए जरूरी है कि न्याय व्यवस्था के ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन के कदम उठाने में अब कोई देरी न की जाए, क्योंकि जैसा प्रधान न्यायाधीश ने कहा है, हमारे पास सामाजिक उद्धार का वैसा दूसरा प्रभावी उपकरण नहीं है. हमारे लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए उसे सस्ता और सुलभ बनाना वक्त की ऐसी मांग है, जिसकी उपेक्षा नये उद्वेलनों को जन्म दे सकती है.