नवीन जोशी, वरिष्ठ पत्रकार
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वर्ष 1989 का प्रसंग है. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. एक कार्यक्रम के मंच पर उनके साथ ‘आपराधिक चरित्र’ के एक सरगना भी बैठे थे. वे नयी राजनीतिक पारी शुरू करने की तैयारी में थे. उसके साथ मुख्यमंत्री का मंच साझा करना तब ‘खबर’ थी. मुलायम सिंह से इस पर सवाल भी किये गये. नाराजगी जताने के बाद उनका उत्तर था- ‘उनके खिलाफ कुछ मुकदमे ही तो हैं. एफआइआर होने से कोई अपराधी हो जाता है क्या? मुकदमे तो मेरे भी खिलाफ हैं.’
यह 31 वर्ष पुरानी बात है. तब तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक-दो ‘माफिया’ प्रदेश की राजनीति में जगह बना चुके थे. राजनीति में अपराधियों की खूब उपयोगिता थी. वे नेताओं के लिए मतदाताओं को डराने-धमकाने, बूथ लूटने, बैलेट छापने से लेकर विरोधियों को ठिकाने लगाने में काम आते थे. नेता उन्हें संरक्षण देते थे और लाइसेंस-परमिट-ठेके से उपकृत करते थे. मुलायम सिंह का उपर्युक्त उत्तर तब नेपथ्य में सक्रिय अपराधियों के राजनीतिक में आने का रास्ता बना रहा था. आज नेताओं और ‘आपराधिक पृष्ठभूमि’ वाले नेताओं के बीच कोई पर्दा या अंतर नहीं है. अपराधियों के इस सत्तारोहण में पुलिस की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
उनके विरुद्ध संगीन आपराधिक मुकदमों को हल्की धाराओं में दर्ज करना या जांच में उन्हें बचा ले जाना या गवाहों को तोड़ना, वह सब पुलिस करती आयी है. जिस किसी पुलिस अधिकारी ने ‘सहयोग’ नहीं किया, उसका क्या हस्र हुआ, इसकी कई नजीरें चर्चित रही हैं. कुख्यात अपराधी विकास दुबे के हालिया अपराध को नेता-पुलिस-अपराधी गठजोड़ की इसी पृष्ठभूमि में देखा-समझा जाना चाहिए. इसे समझने में एक और प्रसंग सहायक होगा.
साल 2002-03 की बात है. बिहार-झारखंड के एक बड़े अखबार के छायाकार का उसके गांव से अपहरण हो गया था. पटना के आक्रोशित पत्रकारों का बड़ा जुलूस ‘एक, अणे मार्ग’ पहुंचा. लालू प्रसाद यादव ( हालांकि, मुख्यमंत्री पद पर राबड़ी जी थीं) ने बड़े धैर्य से पत्रकारों का आक्रोश सुना और वहीं से कुछ थानेदारों को फोन मिलवाया.
उन्होंने थानेदारों से सीधे स्वयं बात की. लालू जी ने न गृह सचिव को फोन मिलवाया, न पुलिस महानिदेशक को, जबकि किसी भी मुख्यमंत्री या मंत्री के लिए यही उपयुक्त रास्ता होना चाहिए था. संयोग से दोनों उदाहरण भारतीय मध्य जातियों के दो ताकतवर नेताओं के हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि बाकी नेता इससे अछूते हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि किसी ने खुलेआम यह किया, तो दूसरे बड़ा आदर्शवादी मुखौटा लगाये हुए पर्दे के पीछे से यही सब करते रहे. विकास दुबे के इस कदर दुस्साहसी हो जाने के पीछे नेता-पुलिस-अपराधी अंतरसंबंधों का यही जाल है.
जैसे-जैसे लोकतंत्र में जाति-आधारित वोट की राजनीति हावी होती गयी, वैसे-वैसे इस गठजोड़ को जातीय समीकरण और मजबूत बनाते गये. कुछ अपराधी मध्य और दलित जातियों के गौरव-पुरुष बनते गये, तो कुछ को उच्च जातियों के नेताओं ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए पाला-पोषा. आज क्या आश्चर्य करना कि तीन दशक से अपराध की दुनिया में सनसनी मचानेवाला विकास दुबे, जिसने 19 वर्ष पहले पुलिस थाने में घुसकर राज्यमंत्री स्तर के एक भाजपा नेता को भी गोलियों से भून दिया था.
वह आजाद घूमता रहा, बेहिसाब संपत्ति जुटाता रहा और अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं पूरी करता रहा. राजनीति के अपराधीकरण का यह विद्रूप चेहरा छिपा नहीं है कि सत्ता बदलने के साथ-साथ आपराधिक प्रवृत्ति के नेता भी पाला बदलते रहते हैं. यह उनके राजनीतिक और आपराधिक साम्राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक होता है, तो सत्तारूढ़ पार्टी के लिए वे जमीनी ताकत साबित होते हैं. शायद ही किसी सत्तारूढ़ पार्टी ने दूसरे दलों से आये आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं को अंगीकार करने से इनकार किया हो.
विकास दुबे ने भी अपने आकाओं के साथ पार्टियां बदलीं. इस तरह वह आजाद, सुरक्षित और ताकतवर बना रहा. अंदरखाने खबर है कि वह एक बार फिर सत्तारूढ़ पार्टी के पाले में आना चाहता था, लेकिन कुछ नेताओं के कारण इसमें अड़चन आ रही थी. उसे पकड़ने का अभियान और मुखबिरी इसी टकराहट का परिणाम थे. एक बात अवश्य चौंकाती है कि पुलिस टीम के खिलाफ मुखबिरी उसके पुलिस दोस्तों ने कर दी थी. आमतौर पर सूचना पाकर अपराधी ठिकाना बदल लेते हैं. वे सीधी भिड़ंत से बचते हैं.
विकास दुबे ने भागने की बजाय पुलिस से मुकाबला करने की ठानी. अपना गिरोह एकत्र किया और पुलिस के लिए जाल बिछाया. ऐसा पहले चंबल के बीहड़ों के डाकू-गिरोह करते थे. यह दुस्साहस की पराकष्ठा ही कही जायेगी. इसका कारण उसका अपनी उस ताकत पर भरोसा रहा होगा, जिसे उसने राजनीतिक रसूख के बल पर हासिल किया है. राजनीति एवं पुलिस में लंबे समय से उसकी ऐसी धाक रही कि एक बड़ी सशस्त्र पुलिस टीम का आना उसे कोई डर की बात नहीं लगी.
विकास दुबे की ऊंची आपराधिक उड़ान इस भयावह कांड के बाद शायद खत्म हो जायेगी. इस वारदात ने राजनीति-पुलिस-अपराधी नापाक दोस्ती के राज एक बार फिर सबके सामने खोल दिये हैं. फिर भी नहीं कहा जा सकता कि यह सिलसिला थमेगा. राजनीति इसी पर टिकी है.
(ये लेखक के निजी िवचार हैं़)