स्वतंत्रता संग्राम में स्त्रियों की भूमिका विशिष्ट थी
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महिलाओं ने अपने लेखन में गंभीर राजनीतिक चेतना का परिचय दिया. उनके लेखन के दो महत्वपूर्ण छोर थे.
आजादी आज एक सच है लेकिन एक समय था जब भारतीय इसके लिए लड़ रहे थे. इस लड़ाई में हर तबके ने भाग लिया. इनमें भी स्त्रियों की भूमिका विशिष्ट थी. स्त्रियों का स्वतंत्रता संग्राम में आह्वान करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘यदि माताएं साथ नहीं आती हैं तो मैं सौ वर्ष प्रयत्न करके भी देश को स्वतंत्र न कर सकूंगा’. और इसका जैसा प्रत्युत्तर स्त्रियों ने दिया वह उनकी व्यापक पीड़ा और युगव्यापी अशिक्षा को देखते हुए अकल्पनीय था. बीसवीं सदी के पहले दशक में सैकड़ों ऐसी स्त्रियों की जमात पैदा हो गयी थी, जिन्हें शिक्षित होने का मौका मिला था और इसका उपयोग वे लिखकर कर रही थीं.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महिलाओं ने अपने लेखन में गंभीर राजनीतिक चेतना का परिचय दिया. उनके लेखन के दो महत्वपूर्ण छोर थे. एक, भारतीय महिलाओं की सामाजिक स्थिति की विवेचना करना, और दूसरा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के परिदृश्य पर नजर बनाए रखना.
प्रियंवदा देवी, सावित्री देवी, मनोरमा गुप्त, लीला सूद, सरस्वती देवी, अमला देवी, हीरादेवी चतुर्वेदी, कमला चौधरी, हंसा मेहता, बेगम शीरीं सरीखी दर्जनों महिलाएं थीं जो स्त्रियों की स्थिति की सामाजिक पड़ताल कर रही थीं. पर्दा प्रथा की बुराई का जिक्र करते हुए अमला देवी के निबंध का शीर्षक है- ‘हृदय पर का पर्दा हटाओ’, मद्रास की एक विदुषी नाम से एक लेखिका ने निबंध लिखा ‘विवाहिता पर्दानशीन स्त्रियां क्या करें?’. एक विदुषी महिला लिखती है-’नारी क्या करे’, लीलामणि नायडू लिखती हैं -’स्त्रियां क्या नहीं कर सकतीं?’
विजयलक्ष्मी पंडित लिखती हैं- ‘नारी जाति के सामने काम’, तो मनोरमा गुप्त लिखती हैं- ‘आधुनिक युवती क्या चाहती है?’ शिक्षा को स्त्री उत्थान का आवश्यक हिस्सा बताते हुए यशवंती देवी द्विवेदी लिखती हैं-’क्या शिक्षित कन्याएं भार स्वरूप हैं?’ सरोजिनी नायडू आह्वान करतीं हैं- ‘मन से हीनता की भावना मिटा दो’ और ‘स्त्रियों को खिलौना न समझो’. स्त्री के अधिकार, सामाजिक विकास में भूमिका आदि पर विचार के साथ-साथ लेखिकाएं स्वतंत्र हुए देश का नक्शा कैसा होगा, इसकी सचाई को भी ठोस यथार्थ के धरातल पर बयान कर रही थीं.
उदाहरण के लिए स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हौसला बढ़ाने के लिए लिखे गए असंख्य गीतों में सुभद्राकुमारी चौहान के गीत- ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ या फिर ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी!’ कौन भुला सकता है! लेकिन इन सबके अलावा आजादी पूर्व स्त्री लेखन में जो महत्वपूर्ण चीज प्रमुखता से दिखाई देती है वह है आजादी को परिभाषित करने की उत्कट इच्छा. ‘शृंखला की कड़ियां’ (महादेवी) इसका ठोस प्रमाण है. पुस्तक में एक जगह वह लिखती हैं, ‘हमारे राष्ट्रीय जागरण में उसका (स्त्री का) सहयोग महत्वपूर्ण है और बलिदान असंख्य.’
प्रेमचंद भी आजादी को परिभाषित करते हुए ‘जॉन की जगह गोविंद के बैठ’ जाने के खतरे से आशंकित थे. लेकिन नए राष्ट्र और परिवेश का जितना तटस्थ, उत्तेजना और भावुकता से रहित भाषा में चित्रण लेखिकाओं ने किया है, वह आजादी की एक वैकल्पिक विवेचना है. होमवती देवी की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कहानी ‘स्वप्नभंग’ उल्लेखनीय है. आजादी घोषित होनेवाली है, गहमागहमी और अफवाहों का बाजार गर्म है.
कबाड़ी की दूकान चलानेवाला गफूर मियां तरह-तरह की बातें सुनता है, पाकिस्तान में बड़े घर, बढ़िया रोजगार और ऐश की बात सुन-सुनकर बेचैन होता है. कहानी में गफूर के पाकिस्तान जाने के उन्माद को बड़े सुंदर ढंग से लेखिका ने व्यक्त किया है. अफवाहों पर आधारित पाकिस्तान का स्वप्न भंग होता है और गफूर पाकिस्तान जाने का इरादा छोड़ देता है. इस कहानी में लेखिका ने अपरिचय की स्थिति में पैदा होने वाली असंगतियों और तनाव का सुंदर कलात्मक वर्णन किया है साथ ही अंधराष्ट्रवाद, सांप्रदायिक वैमनस्य और पितृसत्ता की आलोचना की है.
स्त्री रचनाकारों के यहां निकट का अपरिचय समाप्त करना एक राष्ट्र होने की पहली शर्त है. हमने दूर को तो ज्ञान-विज्ञान के सहारे निकट खींच लिया है, अन्य ग्रहों तक की यात्रा कर आए हैं लेकिन निकटता की दूरी बढ़ा ली है. यह अपरिचय की स्थिति सहानुभूति, संवेदनशीलता और सहभागिता के जरिए ही समाप्त की जा सकती है. महादेवी ने समाधान सुझाते हुए स्वतंत्रता की जो वैकल्पिक अभिनव समझ स्त्री रचनाकारों की तरफ से दी है, वह महत्वपूर्ण है. वे कहती हैं, ‘स्वतंत्रता सबके लिए जीने की शक्ति न दे तो मनुष्य के लिए प्रसाधन मात्र रह जाएगी और सबके लिए जीने की विद्युत शक्ति सहानुभूति के जल में उत्पन्न होती है.’ जरूरत है हम इस वैकल्पिक समझ को बहस के केंद्र में लाएं और ध्यान रखें कि स्वतंत्रता प्रसाधन मात्र बन कर न रह जाए.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं)