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अदालतों में तारीख पे तारीख का बढ़ता नासूर

प्रधान न्यायाधीश के अनुसार पिछले दो महीनों में वकीलों ने सुनवाई के स्थगन के लिए 3688 पर्चियां दीं. इन्हीं दो महीनों में 2361 अर्जियों से जल्द सुनवाई का आग्रह किया गया है. कानून के अनुसार किसी मामले में तीन बार से ज्यादा स्थगन नहीं देना चाहिए.

दामिनी फिल्म के बाद पिछले 30 सालों में सुप्रीम कोर्ट में 25 प्रधान न्यायाधीश आने के बावजूद तारीख पे तारीख का मर्ज कायम है. जिला अदालतों में 4.41 करोड़, उच्च न्यायालयों में 61.7 लाख और सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 79 हजार मामले लंबित हैं. राज्यों और केंद्र सरकार में राजस्व विभाग, नगर पंचायत, आयकर और जीएसटी और सर्विस से जुड़े विवादों का तो इन आंकड़ों में लेखा-जोखा ही नहीं है. करोड़ों हैरान और परेशान लोगों के साथ अब सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने तारीख पे तारीख के बढ़ते मर्ज पर गंभीर चिंता जतायी है. सुप्रीम कोर्ट, 25 हाइकोर्ट और लगभग 20 हजार जिला स्तरीय अदालतों में सही और जल्द न्याय मिलने के संवैधानिक अधिकार का हनन होना खतरनाक होने के साथ चिंताजनक भी है. पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने बड़े ही भावुक और संवेदनशील तरीके से जजों से इसके समाधान करने का निवेदन किया था. कुछ जरूरी बातों पर चिंतन के साथ त्वरित कार्रवाई हो, तो न्याय की गाड़ी पटरी पर आ सकती है.

रसूखदार लोगों के खिलाफ सामान्यतः कोई कार्रवाई नहीं होती और अगर संयोग से मामला दर्ज हो जाए, तो रईस लोगों को बड़े वकीलों के दम पर झटपट राहत मिल जाती है, लेकिन आम जनता के लिए न्यायिक व्यवस्था जटिल हो गयी है, जिसका सजीव चित्रण दामिनी के साथ अंधा कानून जैसी फिल्मों में किया गया है. जिला अदालतों में 80 फीसदी मामले यानी 3.31 करोड़ मुकदमे फौजदारी के हैं, जिनमें पुलिस यानी सरकार एक पक्षकार है. इनमें एक करोड़ मुकदमे पुलिस की वजह से लंबित हैं. लगभग 19 लाख मामलों में चार्जशीट दायर होने के बावजूद पुलिस ने दस्तावेज जमा नहीं किये, 33 लाख मामलों में गवाह की पेशी नहीं हो पा रही और 45 लाख मामलों में जमानत के बाद फरार आरोपियों को पुलिस अदालत में पेश नहीं कर पा रही. सुप्रीम कोर्ट में 34 जज हैं, जिनकी वैकेंसी की खबरें सुर्खियां बन जाती हैं, जबकि जिला अदालतों में 5850 से ज्यादा रिक्त पदों को प्राथमिकता से भरने की कोशिश करने के बजाय जजों की संख्या में बढ़ोतरी की एकेडमिक बहस का चलन बढ़ गया है. जिला अदालतों में जजों के पास जरूरी स्टॉफ और सुविधाएं नहीं हैं. सरकार न्यायिक सिस्टम पर जीडीपी का सिर्फ 0.1 फीसदी यानी हजार में एक रुपया खर्च करती है. इसलिए जिला अदालतों में लोगों को तारीख पे तारीख के नासूर से मुक्ति नहीं मिल पा रही.

जिला अदालतों में संयोग से न्याय मिल भी जाए, तो मामला हाइकोर्ट में अटक जाता है. पच्चीस हाइकोर्टों में 61.70 लाख मामलों में 44 लाख सिविल और 17 लाख फौजदारी के मुकदमे लंबित हैं. दूसरी तरफ हाइकोर्टों में लगभग 332 जजों के पद रिक्त हैं. संविधान के अनुसार, बेकसूर लोगों को जेल में बेवजह बंद रखना पूरी तरह से गलत है. सिविल मामलों में स्टे लेने के बाद वादी पक्ष वकीलों के माध्यम से मुकदमों को लटकाने लगता है और जजों को भी मामले में निर्णायक फैसला देने की कोई जल्दी नहीं होती. नेशनल ज्यूडीशियल डाटा ग्रिड के अनुसार, 31 लाख से ज्यादा मुकदमों की गाड़ी स्टे के बाद से अटकी हुई है. सरकारी विभागों में गलत नियम या तरीके से नियुक्ति हो, तो सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देती है.

केंद्र सरकार के अनुसार पिछले आठ सालों में जजों की नियुक्ति के लिए बनी नियमावली में जरूरी संशोधन नहीं होने के बावजूद सैंकड़ों जजों की नियुक्ति हुई है. जजों की मनमाने तरीके से हो रही नियुक्ति के पीछे नेता, अफसर, जज और सीनियर वकीलों का बड़ा गठजोड़ है. नेशनल लॉ स्कूल की एसोसिएट प्रोफेसर अर्पणा चंद्रा की पुस्तक कोर्ट ऑन ट्रायल के अनुसार कई सीनियर वकील रोजाना 10-15 मामले कर करोड़ों की फीस कमा लेते हैं. इस रिसर्च के अनुसार सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट, जो संविधान अदालतें हैं, वहां पर गंभीर संवैधानिक बहस के बजाय फिजूल के मामलों की संख्या बढ़ रही है. ऐसे मामलों में मेरिट की जगह चेहरे पर ज्यादा जोर हो गया है, जो कानून के शासन के लिहाज से गलत और खतरनाक है. जिला जज को फांसी देने का अधिकार है, तो फिर जमानत के बहुतायत मामले हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में क्यों जाने चाहिए? इस वजह से जनता के मामले दरकिनार होने के साथ जिला अदालतों के जजों के अधिकारों का भी हनन होता है.

प्रधान न्यायाधीश के अनुसार, पिछले दो महीनों में वकीलों ने सुनवाई के स्थगन के लिए 3688 पर्चियां दीं. इन्हीं दो महीनों में 2361 अर्जियों से जल्द सुनवाई का आग्रह किया गया है. कानून के अनुसार किसी मामले में तीन बार से ज्यादा स्थगन नहीं देना चाहिए. इसका पालन सुप्रीम कोर्ट में सख्ती से हो, तो निचली अदालतों में भी न्यायिक अनुशासन बढ़ेगा. पांच साल पहले सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस कांफ्रेंस कर तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ मनमाने तरीके से मुकदमों की लिस्टिंग करने के आरोप लगाये थे. उसके बाद कई चीफ जस्टिस आये, लेकिन मुकदमों की जल्द सुनवाई और लिस्टिंग के बारे में लिखित नियम नहीं बनने से स्थिति जटिल है.

वकीलों की सर्वोच्च संस्था बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने मॉई लॉर्ड और योर लॉर्डशिप जैसे संबोधन पर रोक लगाने के लिए 2006 में नियमों में बदलाव किये थे. सुप्रीम कोर्ट के जज नरसिम्हा ने सिर्फ सर जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर जोर दिया है. पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने प्रोटोकॉल नियमों में बदलाव कर राष्ट्रपति के लिए औपनिवेशिक काल के महामहिम शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी, लेकिन हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मॉई लॉर्ड की सामंती संस्कृति से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं. आम जनता को तारीख पे तारीख के मर्ज से मुक्ति दिलाने के लिए मुकदमों के स्थगन की प्रवृत्ति को खत्म करने के साथ जजों को जल्द फैसले के संवैधानिक उत्तरदायित्व को पूरा करना होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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