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और भी चुनौतियां हैं सामने

हाल के दिनों में कोरोना वायरस का खौफ इस कदर दुनियाभर पर हावी रहा है कि सुर्खियां अखबारों की हों या टेलीविजन की, और किसी खबर को जगह देने में असमर्थ रही हैं.

प्रो पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

pushpeshpant@gmail.com

हाल के दिनों में कोरोना वायरस का खौफ इस कदर दुनियाभर पर हावी रहा है कि सुर्खियां अखबारों की हों या टेलीविजन की, और किसी खबर को जगह देने में असमर्थ रही हैं. बहुत हुआ, तो रस्म अदायगी के तौर पर छोटी-सी सूचना दे दी जाती है. हमारी समझ में सऊदी अरब और रूस के बीच जो तेल की लड़ाई है, उसके विश्वव्यापी परिणाम इस महामारी से कम नहीं होंगे.

जब से अमेरिका ने अरब जगत में सत्ता परिवर्तन के सिद्धांत के अनुसार सैनिक हस्तक्षेप का सूत्रपात किया है, अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें असमंजस पैदा करती रही हैं. कुछ विद्वानों का मानना रहा है कि जनतंत्र तथा मानव अधिकारों की रक्षा तो महज बहाना है, अमेरिका का असली मकसद मध्य-पूर्व के तेल कूपों को हथियाना है. यह हम अक्सर भुला देते हैं कि अमेरिका स्वयं तेल का सबसे बड़ा उत्पादक है, भले ही सबसे बड़ा तेल निर्यातक सऊदी अरब है. खुद ऊर्जा आपूर्ति के लिए अमेरिका को तेल आयात की दरकार नहीं, परंतु वह अरबों के तेल संसाधनों पर नियंत्रण रखना चाहता है, ताकि वह आर्थिक या सामरिक चुनौती दे सकनेवाली किसी भी शक्ति को इस तेल से वंचित कर सके. यहां इस बहस में उलझने की जरूरत नहीं है कि सऊदी अरब के तेल पर अमेरिका की बड़ी तेल कंपनियों का कितना नियंत्रण है, जो बात कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह समझना कि इस घड़ी जब विश्व जबरदस्त मंदी की चपेट में था, कोरोना विषाणु ने उसकी रीढ़ ही तोड़ डाली है, यह तेल युद्ध भारत समेत सभी देशों के लिए एक अप्रत्याशित चुनौती पेश कर रहा है.

सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि सऊदी अरब, ओपेक (तेल निर्यातक देशों का संगठन) और व्लादिमीर पुतिन के रूस के बीच विस्फोटक मतभेद किस मुद्दे पर है. आर्थिक मंदी की वजह से तेल की मांग लगातार घट रही थी, नतीजतन उसकी कीमत में गिरावट आ रही थी. सऊदियों ने सुझाया कि ऐसे मौके पर सभी तेल उत्पादकों को सर्व-सहमति से अपने तेल उत्पादन में कटौती करनी चाहिए, ताकि कीमतें सर्वनाशी रसातल तक न पहुंच जायें. शुरू में यह संकेत देने के बाद कि रूस इस बारे में विचार कर सकता है, राष्ट्रपति पुतिन ने अपने राष्ट्रहित में यह फैसला लिया कि वे तेल का उत्पादन घटायेंगे नहीं, बल्कि बढ़ा देंगे. तर्क यह है कि भले ही तेल निर्यात से होनेवाली कमाई कम होगी, अंतरराष्ट्रीय बाजार में रूसी तेल का हिस्सा बढ़ जायेगा. इसके बाद सऊदी अरब के पास कोई विकल्प नहीं बचा. उसने भी नुकसान उठा कर भी तेल उत्पादन बढ़ाने का फैसला कर लिया है.

इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा का ज्यादा नुकसान सऊदियों को होगा, क्योंकि उनकी कमाई का एकमात्र जरिया तेल निर्यात है, जबकि रूस के पास विदेशी मुद्रा जुटाने के लिए और कई प्राकृतिक तथा तकनीकी संसाधन हैं. इनमें सैनिक साजो-सामान, सोना और बहुमूल्य जवाहिरात के अलावा औषधियां, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी आदि महत्वपूर्ण हैं. पुतिन ने ऐसे ही दुर्दिन के लिए एक संपत्ति निधि जुटायी थी और उन्हें इस बात का विश्वास है कि बाजार में तेल की कीमत यदि 25 डॉलर प्रति बैरल तक भी गिर जाती है, तो रूस की अर्थव्यवस्था इस धक्के को बर्दाश्त कर सकती है.

सऊदी अरब तथा रूस दोनों ही देशों की आंतरिक राजनीति में अभी हाल महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं. सऊदी अरब में शहजादे ने अपने बादशाह पिता के देहांत के बाद अपने उत्तराधिकार को सुनिश्चित करने के लिए कई प्रभावशाली रिश्तेदारों को बंदी बना लिया है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके अभियान के साथ सार्वजनिक जीवन के आधुनिकीकरण और सीमित ही सही, लोकतांत्रिकीकरण की उनकी पहल ने उनके देश में नया उत्साह पैदा किया है.

पर, इस बात को अनदेखा करना खतरनाक होगा कि सामंती पितृसत्तात्मक कबाइली समाज का कायाकल्प पलक झपकते नहीं हो सकता है. कुछ लोगों को यह भी लगता है कि यह सब प्रगतिशीलता दिखावटी है, निरंकुश शासक बने रहने के लिए अपने अंतरराष्ट्रीय आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए. अब तक जिहादी आतंकवाद की जन्मभूमि होने के कारण तथा आक्रामक वहाबी इस्लाम को प्रोत्साहित करने के कारण सऊदी, अमेरिका के निशाने पर रहे हैं. इस उभयपक्षी रिश्ते में थोड़ी नरमी तब से दिखायी दे रही है, जब से बगदादीवाले इस्लामिक स्टेट के कट्टरपंथियों ने सऊदी अरब के नेतृत्व को चुनौती दी थी.

यमन तथा दक्षिणी सूडान में गृहयुद्ध में पक्षधर हस्तक्षेप ने सऊदी अरब पर बोझ डाला है. ईरान से राजनयिक और सीरिया में सैनिक मुठभेड़ की कीमत भी सऊदियों को चुकानी पड़ी है. पिछले कुछ वर्षों में सऊदी अपने खर्च में कटौती करने को मजबूर हुए हैं. अप्रवासियों को दी जानेवाली करों की रियायतें खत्म हो गयी हैं. शाही परिवार के सदस्य भले ही पहले जैसी जीवन-शैली का अनुसरण कर रहे हैं, पर आम नागरिकों को बार-बार यह चेतावनी दी जाती रही है कि सुख-चैन के दिन लंबे समय तक निरापद नहीं रह सकते. यह देखने लायक होगा कि तेल की कीमतें गिरने का क्या असर सऊदी अरब की सामाजिक स्थिरता और राजनीति पर पड़ेगा.

रूस में पुतिन ने जो हाल में संवैधानिक संशोधन किये हैं, उनके बाद यह सुनिश्चित हो गया है कि वह जीवनपर्यंत रूस के सर्वोच्च नेता बने रहेंगे- तानाशाह कहिए या कुछ और! जब से पुतिन ने कार्यभार संभाला है, उनकी महत्वाकांक्षा रूस को फिर से महाशक्ति का दर्जा दिलाने की रही है. अराजकता के कगार से दिवालिया रूस को बचा कर फिर से ताकतवर बनाने में तेल की चढ़ती कीमतों ने निर्णायक भूमिका निभायी थी. क्या इस बार भी वे तेल के अस्त्र का उपयोग ऐसी ही कामयाबी के साथ कर सकेंगे? क्या संयुक्त राज्य अमेरिका मौन दर्शक बना रहेगा? ट्रंप के बारे में आम राय यह है कि उन्हें न तो अपने ज्ञान की सीमाओं का अहसास है, न ही अनुभवहीनता को वह कमजोरी स्वीकार करते हैं. ऊपर से यह साल राष्ट्रपति के चुनाव का वर्ष है. यूरोप इस स्थिति में नहीं है कि वह एक संगठित समूह के रूप में आचरण कर सके. उसकी ऊर्जा सुरक्षा को अमेरिका किस हद तक निरापद रख सकता है? विश्व के दूसरे तेल उत्पादक देश ईरान, वेनेजुएला, इंडोनेशिया, नाइजीरिया वगैरह दम साध कर भविष्य की पदचाप सुनने का आतुर प्रयास कर रहे हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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