आपसी सहयोग का है वक्त

दक्षिण एशिया क्षेत्र के देश तब तक फल-फूल नहीं सकते हैं और प्रगति के रास्ते पर आगे नहीं जा सकते हैं, जब तक कि वे आपस में परस्पर सहयोग और सहभागिता की भावना से काम नहीं करते हैं.

By मुचकुंद दूबे | March 18, 2020 12:27 PM

मुचकुंद दूबे

पूर्व विदेश सचिव

delhi@prabhatkhabar.in

पूरी दुनिया कोरोना वायरस के फैलते जाने से चिंतित है और कई स्तरों पर इसकी रोकथाम के लिए कोशिशें जारी हैं. अधिकतर देशों में इस विषाणु ने बड़ी संख्या में लोगों को संक्रमित किया है और आज एक भयावह आपदा की स्थिति पैदा हो चुकी है. भारत ने इस समस्या के प्रभाव व प्रसार से दक्षिणी एशिया के देशों को बचाने की दिशा में सराहनीय पहल की है तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन के सदस्य देशों के नेताओं से वीडियो के माध्यम से बातचीत की है. इस दौरान भारतीय प्रधानमंत्री ने एक कोष भी बनाने का सुझाव दिया है तथा भारत की ओर दस मिलियन डॉलर के प्रारंभिक अंशदान की घोषणा की है. इस पहलकदमी को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सदस्य देशों के विदेश सचिवों को दी गयी है.

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में विस्तार से भारत में कोरोना को रोकने के लिए हो रही कोशिशों की जानकारी सदस्य देशों को दी है, जिनमें अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल भी है. बहरहाल, इस संबंध में अन्य देशों की ओर से बहुत कुछ नहीं कहा गया है और यह आगामी दिनों में ही पता चल सकेगा कि इस दिशा में क्या प्रगति हो रही है. ऐसा विभिन्न तकनीकी सहयोगों के बारे में भी कहा जा सकता है. कोरोना वायरस की रोकथाम की कोशिशों के भारत के अनुभवों से अन्य सदस्य देश फायदा उठाना चाहते हैं और जानकारी साझा करना चाहते हैं, इसके लिए भी हमें कुछ दिन इंतजार करना चाहिए.

एक ओर कोरोना की तात्कालिक और गंभीर चुनौती को देखते हुए ऐसे प्रयास स्वागतयोग्य हैं, वहीं दूसरी तरफ हमें दक्षिण एशिया की वर्तमान स्थिति (विशेषकर भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में) तथा पृष्ठभूमि को देखने की आवश्यकता है. भारत ने पाकिस्तान के साथ हर स्तर पर संवाद को कुछ समय से रद्द किया हुआ है. उसका कहना है कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को प्रश्रय और समर्थन देने की अपनी नीति का त्याग नहीं करता है, तब तक दोनों देशों के बीच बातचीत की गुंजाइश नहीं बन सकती है. ऐसे माहौल में कोरोना की वजह से हुई कोशिश जैसी पहलें बीच-बीच में होती हैं, तो यह सही और स्वागतयोग्य हैं. अगर सचमुच में राजनीतिक इच्छाशक्ति है, तो इस प्रयास के साथ और आगे बढ़ा जा सकता है.

यह भी स्वागतयोग्य है कि बांग्लादेश ने भी अपनी ओर से साजो-सामान के जरिये मदद की बात कही है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आगामी दिनों में अन्य देशों की ओर से भी उत्साहवर्द्धक प्रस्ताव आयेंगे. लेकिन मुझे नहीं लगता है कि सिर्फ इतने से दक्षिण एशिया की मौजूदा हालत में सुधार हो सकता है. यह भी उम्मीद करना बहुत जल्दबाजी होगी कि भारत और पड़ोसी देशों के संगठन सार्क को पुनर्जीवन मिल सकेगा या निकट भविष्य में सार्क शिखर बैठक जैसा कोई आयोजन हो सकेगा. ऐसे नतीजों के लिए बुनियादी स्तर पर कोशिशों की दरकार है.

यह भी समझा जाना चाहिए कि महामारी को लेकर हमारी तैयारी भी सीमित है और प्रधानमंत्री द्वारा प्रस्तावित कोष को लेकर अन्य देशों की प्रतिक्रिया भी अभी सामने नहीं आयी है, जो कि जरूरी है क्योंकि अन्य देश भी कोष में अंशदान करेंगे, तभी वह बन सकेगा. यह अभी भारत की ओर से की गयी एकतरफा पहल है. कोरोना से जूझने के हमारे उपाय पड़ोसी देशों के लिए फायदेमंद हो सकते हैं, पर अभी तक किसी ने इस बारे में दिलचस्पी नहीं जाहिर की है.

वीडियो के जरिये हुई बातचीत में जो भी प्रस्ताव हैं, वे सब भारत की ओर से प्रस्तुत किये गये हैं. इस बातचीत का एक बड़ा अहम हिस्सा है सार्क के आपदा प्रबंधन केंद्र के इस्तेमाल को लेकर सहमति बनना. अब चुनौती इसे क्रियाशील करने की है और सूचनाओं आदि को लेकर सभी देशों के बीच सामंजस्य बनाने की है. अब देखना यह है कि सार्क के अन्य देश इन प्रस्तावों के बारे में क्या प्रतिक्रिया देते हैं और आपसी सहयोग किस स्तर पर स्थापित हो पाता है.

सहायता के स्तर पर आदान-प्रदान द्विपक्षीय स्तरों पर भी हो सकते हैं, जैसे कि चीन से हम उनके अनुभव ले सकते हैं. भारत ने भी कुछ समय पहले जरूरी चीजों की आपूर्ति चीन को की थी. वैसा दक्षिण एशियाई देशों के बीच भी संभव है. उल्लेखनीय है कि भारत और अन्य देशों में विभिन्न सरकारों की नीतियों को लेकर आंतरिक स्तर पर जन भावनाओं का दबाव रहता है. द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सहयोग की संभावनाओं और आशाओं पर इन दबावों का बहुत प्रभाव पड़ता है. हाल में भारत सरकार के कुछ निर्णयों की बड़ी तीखी प्रतिक्रिया कुछ पड़ोसी देशों में हुई है.

पाकिस्तान या ऐसे अन्य देश उन प्रतिक्रियाओं के अनुरूप ही किसी सहयोग पर आगे बढ़ना चाहेंगे या नहीं चाहेंगे. वीडियो कॉन्फ्रेंस में पाकिस्तानी प्रतिनिधि द्वारा कश्मीर और वहां लगी पाबंदियों का मुद्दा उठाने को इसी संदर्भ में देखने की जरूरत है. कोरोना या किसी अन्य मसले पर होनेवाली किसी भी पहल में ऐसा हो सकता है, हमें इस पहलू का भी ध्यान रखना चाहिए. इसी कारण भारत की इस पहल का स्वागत करते हुए ऐसे प्रयासों की सीमाओं का अनुमान हमें होना चाहिए.

यह बेहद अफसोस की बात है कि आज सार्क एक निष्क्रिय संगठन बन चुका है. यह समझना जरूरी है कि अगर दक्षिण एशिया के देशों के बीच आपसी सहयोग की दरकार है, तो सार्क की भी दरकार है. मेरी समझ से इस क्षेत्र के देश तब तक फल-फूल नहीं सकते हैं, प्रगति के रास्ते पर आगे नहीं जा सकते हैं, जब तक कि वे आपस में परस्पर सहयोग और सहभागिता की भावना से काम नहीं करते हैं. यदि इन देशों के बीच शांति बरकरार नहीं रहेगी, हथियारों की होड़ खत्म नहीं होगी, सीमा व अन्य विवाद नहीं सुलझाये जायेंगे, तब तक विकास करना और अमन-चैन बहाल करना भी बहुत मुश्किल होगा.

इन चुनौतियों का सामना करने के लिए अगर सार्क के सदस्य देश सचमुच में गंभीर हैं, तो यह संगठन न केवल एक बहुमूल्य माध्यम है, बल्कि एकमात्र माध्यम है. इसलिए इसको फिर नये सिरे से सक्रिय करना समय की मांग और आवश्यकता है. सार्क के महत्व को लेकर मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं और मुझे लगता है कि ऐसा ही बहुत सारे लोग मानते हैं. इसे पुनर्जीवित करना ही होगा. अगर भारत की पहल इस संभावना की ओर सार्क को ले जा पाती है, तो निश्चित रूप से इसे बड़ी उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया जायेगा.

(बातचीत पर आधारित)

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