समाज में बढ़ती खाई को पाटने का समय

लगभग सभी राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट की ओर से अवैध धार्मिक इमारतों को ढहाने के लिए बार-बार भेजे गये निर्देशों पर कोई ध्यान नहीं दिया

By प्रभु चावला | August 8, 2023 8:02 AM
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कलकत्ता 1911. ‘‘एक-दो दिन जरूरी सामान जमा करने के बाद, मैं शाम को ट्रेन से जेसोर के लिए निकला. मुसलमानों का पर्व मुहर्रम मनाया जा रहा था, और स्टेशन का रास्ता सियालदह चौराहे से होकर जाता था, जहां पर पुलिस ने चारों ओर से आने वाले सभी जुलूसों के मुड़ने की व्यवस्था की थी. दुर्भाग्य से, व्यवस्था टूट गयी, और सभी प्रतिद्वंद्वी जुलूस मिल गये और उनमें मार-पीट होने लगी.’’- एक समय हैदराबाद में ब्रिटिश रेसिडेंट रहे सर आर्थर लोथियन ने लिखा. कलकत्ता, 1897.

महाराजा सर जतिंद्रमोहन टैगोर ने एक अदालती आदेश के बाद उत्तरी कलकत्ता के ठीक बाहर एक जमीन का प्लॉट प्राप्त किया. वहां एक छोटी झोपड़ी थी, जिसे मुसलमान मस्जिद बता रहे थे. टैगोर के लोग जब जमीन का हक लेने गये, तो मुसलमानों की एक भीड़ ने उन पर हमला कर दिया. पुलिस ने गुंडों को भगा दिया, मगर हिंसा कलकत्ता के दूसरे इलाकों में फैल गयी, और 1897 का बंगाल दंगा भड़क गया.

इतिहास अपनी संतानों के साथ समान भाव रखता है. वह किसी समुदाय के बच्चों में फर्क नहीं करता, जो धर्म के नाम पर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं. भारत में, सांप्रदायिकता के दो पिता हैं- इस्लामी आक्रमण और गोरों की फूट डालो और राज करो की नीति. वह सिलसिला जारी है. धार्मिक जुलूसों ने, अभी हरियाणा के नूह में, और उससे पहले सदियों तक दूसरी जगहों पर, तबाही को भड़काया है.

हालांकि, दंगों की संख्या में जरूर कमी आयी है, लेकिन उनकी तीव्रता विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच बढ़ती दरार का एक सबूत है. मगर उनका पैटर्न नहीं बदला है. औरंगजेब, ढेरों वायसराय और राजपूत राजा अब मिट्टी में मिल चुके हैं. पुराने साम्राज्य और जंजीरा जैसी रियासतें मिट चुकी हैं. ऐसा लगता है कि भारत के दो चेहरे हैं- 75 सालों से जारी समृद्धि का और हरियाणा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और मणिपुर में दिखती सांप्रदायिक घृणा और अशांति का.

सबसे बुरी बात यह है कि धर्म के शस्त्रीकरण ने राजनीतिक चोला ओढ़ कर हमला करके ताकत हासिल करने की कोशिश की है. रास्ते भी संप्रदायों की सरहद में बदल गये हैं. हथियारबंद जुलूस और जमीन हथियाना एक नये टूलकिट का हिस्सा बनते जा रहे हैं. पिछले सप्ताह, बीजेपी के गुरुग्राम जिले की अध्यक्ष गार्गी कक्कड़ द्वारा शुरू की गयी ‘बृज मंडल जलाभिषेक यात्रा’ के दौरान एक हिंसक भीड़ ने पांच निर्दोष लोगों को मार डाला.

संयोग से, यह ठीक मुहर्रम के बाद निकाली गयी थी, जिसमें मुसलमान दम-खम दिखाया करते हैं. मुहर्रम के केवल एक दिन बाद निकाली गयी इस यात्रा में कोई पुलिस सुरक्षा नहीं थी. आज, नूह सांप्रदायिक झगड़ों के विस्तार का एक खाका बन चुका है. दुर्भाग्य से, राजनीति में जिंदगियों का कोई मोल नहीं, केवल वोट की कीमत है. दोनों ही समुदायों के राजनीतिक आकाओं ने तबाही के बाद भी अपने अनुयायियों को भड़काऊ प्रदर्शन निकालने से नहीं रोका.

गुरुग्राम में मची तबाही धार्मिक हिंसा के काले अतीत का एक और नया अध्याय बन चुकी है. पिछले सप्ताह, बाहरी दिल्ली के नांगलोई इलाके में, एक ताजिया जुलूस अपने तय रास्ते से अलग जाने लगा और पुलिस पर पत्थर चलाये जाने लगे. फिर लाठी चार्ज हुआ, कई तमाशबीन और पुलिसकर्मी घायल हो गये. इसके कुछ दिन बाद रेलवे पुलिस के एक कट्टर पुलिसकर्मी ने ना केवल अपने बॉस को, बल्कि चुनकर तीन मुसलमान लोगों को मार डाला. जानकार इसे एक नये किस्म का खतरा बताते हुए आगाह करते हैं, जिसमें एक अकेला शख्स हिंसक हो सकता है.

इन सारी घटनाओं ने नफरत बढ़ा दी है, जो पहले कहीं दबी हुई थी. इनमें से किसी हमलावर का भी कोई पुराना सांप्रदायिक अतीत नहीं था, ये एक आक्रामक आस्था की मशाल उठाये युवा थे. उनके लिए शांत होकर पूजा करते रहना भर काफी नहीं है. दूसरे धर्म के लोगों को खत्म करना भी उनकी आस्था का हिस्सा है. उनका अस्तित्व उन प्रार्थनाओं की संख्या से मजबूत नहीं होता जो वे करते हैं, बल्कि उन दूसरे भारतीयों की संख्या से मजबूत होता है, जिनकी श्रद्धांजलियां उनके खून से लिखी गयीं. जिसने भी उन्हें चुनौती देने की कोशिश की, उसे राष्ट्रविरोधी करार दे दिया, वो चाहे हिंदू हो या मुसलमान.

इतिहास की चीर-फाड़ कर आस्थाओं को लगे पुराने घावों का पता लगाना धार्मिक धुरंधरों का नया शौक बन गया है. पिछले कुछ सालों में, शायद ही कोई ऐसी मस्जिद या मंदिर होगा जिसका इतिहास ना खंगाला गया हो या जिसे अदालत में ना घसीटा गया हो. मुगल साम्राज्य की भुला दी गयी नक्काशियों के बीच किसी छिपी हुई मूर्ति को खोजा जा रहा है, जबकि बिना किसी भय के नयी इमारतें खड़ी की जा रही हैं. देशभर में रेलवे की जमीनों पर 200 से ज्यादा अवैध धार्मिक इमारतें खड़ी हो गयी हैं.

दिल्ली पीडब्ल्यूडी ने हाल ही में पूर्वी दिल्ली में एक अवैध मंदिर को ढहा दिया. गुजरात सरकार ने एक सड़क परियोजना के लिए कई पुराने मंदिरों को तोड़ डाला. लेकिन, लगभग सभी राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट की ओर से अवैध धार्मिक इमारतों को ढहाने के लिए बार-बार भेजे गये निर्देशों पर कोई ध्यान नहीं दिया. रिपोर्टों के अनुसार, विभिन्न धार्मिक संस्थाओं ने 5,000 एकड़ से ज्यादा सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किया हुआ है.

इनका मालिकान हक रखने वाले बेबस हैं. वाजपेयी सरकार के समय जब शहरी और आवास मंत्री जगमोहन ने नयी दिल्ली के मिंटो रोड पर एक पार्क बनाने के लिए एक पुराने मंदिर को ढहा दिया, तो उन्हें धिक्कारा गया और मंदिर का दोबारा निर्माण कर दिया गया.

हैरानी की बात है, कि ना तो केंद्र और ना ही राज्यों के पास सरकारी जमीनोंं पर बने मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों और गुरुद्वारों का ब्यौरा है. अनुमति लेकर निकाले जाने वाले धार्मिक जुलूसों का भी कोई आंकड़ा नहीं है, जिनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. सरकारी तौर पर, सरकारी जमीनों पर 10 लाख से ज्यादा धार्मिक इमारतें मौजूद हैं. भारत में हर साल 10 हजार से ज्यादा जुलूस निकलते हैं. भारत अकेला देश है जहां आस्था अवैध जमीन पर फलती-फूलती है.

राजनेता बाबाओं, मौलवियों और फकीरों को शह देते हैं जिन्होंने बड़ी जमीनों पर कब्जा किया हुआ है. इसके उलट, किसी भी मुस्लिम देश में न तो बिना अनुमति के कोई मस्जिद बन सकती है, ना ही कोई जुलूस निकल सकता है. वर्ष 1990 में प्रधानमंंत्री वीपी सिंह ने मुझे सलाह दी कि राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक, जिसका मैं एक सदस्य था, में मैं एक ऐसा प्रस्ताव लाऊं,

जिसमें सभी मुख्यमंत्रियों और पार्टी अध्यक्षों से अवैध धार्मिक भवनों के निर्माण, लाउडस्पीकर के उपयोग और सार्वजनिक सड़कों पर रैली निकालने पर रोक लगाने की अपील करूं. मैंने प्रस्ताव बनाया और कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के पास ले गया. उन्होंने न सिर्फ इनकार किया, बल्कि पेपर ही फाड़ दिया. भाजपा समेत किसी भी नेता ने मेरा समर्थन नहीं किया.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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