संसदीय बहस के लाइव प्रसारण पर विचार का वक्त

लाइव प्रसारण के चलते अब जनता तक वे सारी बातें भी पहुंच रही हैं, जिन्हें बाद में संसदीय कार्यवाही से निकाल दिया जा रहा है. दिलचस्प यह है कि सांसदों की बातों को जब रोका जाता है, तो वे इसे अपने प्रति दुर्भावना बताने लगते हैं.

By उमेश चतुर्वेदी | July 9, 2024 9:23 AM

क्या वक्त आ गया है कि संसदीय कार्यवाही के लाइव टीवी प्रसारण पर विचार किया जाए? एक वर्ग का मानना है कि अगर ऐसा नहीं किया जायेगा, तो संसद की गरिमा घटेगी. पूर्व उप-प्रधानमंत्री देवीलाल कहा करते थे कि लोकतंत्र लोक-लाज से चलता है. उसी अंदाज में कह सकते हैं कि महान परंपराओं और गरिमा को स्वीकार किये बिना कोई भी शासन सफल नहीं हो सकता. ब्रिटिश संसद में एक परंपरा है कि संसदीय कार्यवाही से हटाये गये शब्दों को न तो उद्धृत किया जा सकता है और न ही उसे रिपोर्ट किया जा सकता है. जाहिर है कि हटाये गये शब्द वे होते हैं, जो अमर्यादित, तथ्यहीन और गरिमा के विरूद्ध होते हैं.

जब तक टेलीविजन नहीं था, पत्रकारिता के रंगरूटों को संसदीय इम्बार्गो और कार्यवाही की रिपोर्टिंग के मायने गहराई से समझाये जाते थे. संसद या किसी संसदीय समिति के बयान की जानकारी होने के बावजूद उसे तब तक सार्वजनिक नहीं किया जा सकता था, जब तक की समय सीमा संसद या संसदीय समिति की ओर से तय की गयी होती थी. रिपोर्टर संसद की रिपोर्टिंग करते हुए सांसदों की उन बातों को भी सुनते ही थे, जिन्हें अमर्यादित और तथ्यहीन होने के चलते कार्यवाही से हटा दिया जाता था, पर वे उनका उल्लेख रिपोर्टों में नहीं करते थे.

लाइव प्रसारण के चलते अब जनता तक वे सारी बातें भी पहुंच रही हैं, जिन्हें बाद में संसदीय कार्यवाही से निकाल दिया जा रहा है. दिलचस्प यह है कि सांसदों की बातों को जब रोका जाता है, तो वे इसे अपने प्रति दुर्भावना बताने लगते हैं. मौजूदा दौर विजुअल माध्यमों का है. ऐसे में हर सांसद चाहता है कि वह संसद में जो भी बोले, उसका प्रसारण हो. संसद की कार्यवाही का पहला प्रसारण 20 दिसंबर 1989 को दूरदर्शन पर शुरू हुआ. तब चुनिंदा कार्यवाही को दिखाया गया. फिर 18 अप्रैल 1994 से लोकसभा की पूरी कार्यवाही को फिल्माया जाने लगा. उसी साल अगस्त में सीधे प्रसारण के लिए संसद भवन में एक लो-पावर ट्रांसमीटर स्थापित किया गया. दिसंबर 1994 से दोनों सदनों के प्रश्नकाल का दूरदर्शन पर वैकल्पिक सप्ताह में सीधा प्रसारण होने लगा. तीन नवंबर 2003 को जब डीडी न्यूज शुरू हुआ, तो शीतकालीन सत्र से दोनों सदनों के प्रश्नकाल का प्रसारण डीडी चैनलों पर एक साथ होने लगा.

लाइव प्रसारण के इतिहास में दो घटनाएं बहुत याद की जाती हैं. अक्तूबर 1990 में भाजपा की समर्थन वापसी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव रखा. दो दिनों तक चली बहस का दूरदर्शन ने लाइव प्रसारण किया था. सांसदों से अंतरात्मा की आवाज पर वीपी सिंह का समर्थन मांगना बेहद चर्चित रहा. तेरह दिन की वाजपेयी सरकार के विश्वास मत पर मई 1996 के आखिरी हफ्ते में हुई चर्चा में वाजपेयी ने दो शानदार भाषण दिये थे. माना जाता है कि उन भाषणों के बाद वाजपेयी की लोकप्रियता में अपार इजाफा हुआ. दो साल बाद सत्ता में उनकी वापसी में ये दोनों भाषण भी मील के पत्थर माने गये. इसके बाद से ही संसदीय बहसों में शामिल होने वाले सांसद लाइव प्रसारण की इच्छा पालने लगे.

साल 2004 में वाजपेयी सरकार के सत्ता से बाहर होने के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पहली सरकार आयी. तब लोकसभा के अध्यक्ष माकपा के सोमनाथ चटर्जी बने. उन्होंने संसदीय कार्यवाही के प्रसारण के लिए अलग से दो चैनलों का विचार दिया. इसी विचार को मूर्त रूप मिला दिसंबर 2004 में, जब दोनों सदनों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए एक अलग समर्पित सैटेलाइट चैनल की स्थापना की गयी. साल 2006 में लोकसभा टीवी ने निचले सदन की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू किया, लेकिन राज्यसभा टीवी की शुरुआत तब नहीं हो सकी.

मोटे तौर पर राज्यसभा टीवी की शुरुआत उस दौर के नेता प्रतिपक्ष और सभापति के बीच मतभेदों के चलते नहीं हो पायी. जब हामिद अंसारी उपराष्ट्रपति बने, तो उन्होंने राज्यसभा टीवी के लिए अलग से एक चैनल की शुरुआत की. वह साल 2011 था. यह बात और है कि यह चैनल स्वतंत्र रूप से सिर्फ एक दशक ही चल पाया. एक मार्च 2021 को लोकसभा और राज्यसभा के चैनलों को एक कर संसद टीवी बना दिया गया. दिलचस्प यह है कि जब से संसद टीवी बना है, तब से उस पर कुछ ज्यादा ही विवाद उठ रहे हैं. वैसे कुछ लोगों का मानना है कि दोनों चैनलों का विलय राजनीति के एक वर्ग को पसंद नहीं आया, इसलिए भी संसद टीवी के प्रसारण पर अक्सर सवाल उठाये जाते हैं.

लोकसभा टीवी ने अपने प्रसारण के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘जीवंत लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं को निष्पक्ष रूप से प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध है.’ लेकिन सवाल यह है कि क्या तथ्यों से रहित वक्तव्यों के प्रसारण को भी निष्पक्षता के इस दायरे में रखा जा सकता है. मीडिया के तीव्र उभार के दौर में कोई भी घटना अब मीडिया निरपेक्ष नहीं रह सकती, विशेषकर लाइव मीडिया. संसदीय बहसों के संदर्भ में यह मीडिया निरपेक्षता संभव भी नहीं है. ऐसे में क्यों न यह हो कि संसदीय बहसों की पहले रिकॉर्डिंग हो और फिर संसदीय मर्यादाओं के लिहाज से उन्हें संपादित कर उनका प्रसारण किया जाए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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