इस वर्ष का जलवायु सम्मेलन मिस्र की सैरगाह शर्म अल-शैख में हो रहा है. साल 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के सहभागी बने लगभग 200 देशों का यह 27वां सम्मेलन है. इसमें अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और इटली समेत लगभग 90 देशों के राष्ट्राध्यक्ष भाग ले रहे हैं. इस वर्ष विकासोन्मुख देशों के लिए विकसित देशों की आर्थिक और तकनीकी मदद का मुद्दा प्रमुख रहने की संभावना है, जिस पर 2009 के सम्मेलन में सहमति हुई थी.
विकसित देशों ने विकासोन्मुख देशों को अक्षय ऊर्जा अपनाने और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का सामना करने के लिए हर साल 100 अरब डॉलर की सहायता देने का वादा किया था, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देशों का औद्योगीकरण ही मुख्य रूप से जिम्मेदार है. जलवायु न्याय के रूप में दी जाने वाली यह सहायता हर साल बढ़ी जरूर है, लेकिन अभी तक भी 100 अरब डॉलर तक नहीं पहुंची है. पिछले साल भी 85 अरब डॉलर ही जुट पाये थे. अगले साल पहली बार 100 अरब डॉलर मिलने की आशा है.
विश्वव्यापी आर्थिक मंदी और महंगाई के माहौल में विकसित देशों को 100 अरब डॉलर जुटाना भी भारी पड़ रहा है. ऐसे में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले सप्ताह जारी हुई रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की निरंतर बढ़ती भीषणता का सामना करने के लिए विकासोन्मुख देशों को 2030 तक हर साल 340 अरब डॉलर की जरूरत पड़ने लगेगी.
यह आकलन इस वर्ष सोमालिया में पड़े भीषण अकाल, नाइजीरिया और पाकिस्तान में आयी प्रलयकारी बाढ़ और दुनियाभर में भीषण गर्मी व आग जैसी विनाशकारी आपदाओं की बढ़ती तीव्रता के आधार पर किया गया है. इस वर्ष के सम्मेलन के लिए मिस्र को इसीलिए चुना गया है, ताकि जलवायु परिवर्तन की सबसे बुरी मार झेल रहे अफ्रीका और एशिया के गरीब देशों की जरूरतों को रेखांकित किया जा सके.
विकसित देशों ने 2015 के पेरिस जलवायु सम्मेलन में वादा किया था कि वे अपने कार्बन उत्सर्जन को तेजी से कम करेंगे, जिससे वायुमंडल का तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर न जा सके, लेकिन यूक्रेन पर पुतिन के हमले से पैदा हुए ऊर्जा संकट की वजह से पिछले साल भर में कुछ देशों का कार्बन उत्सर्जन अपेक्षित रफ्तार से नहीं घटा है. यूरोप के देशों को रूस की पाइपलाइन से मिलने वाली प्राकृतिक गैस की सप्लाई बाधित होने से तरलीकृत गैस का आयात करना पड़ रहा है.
गैस को तरल बनाने, भरने, और ढोने में बहुत ऊर्जा खर्च होती है. ऐसे में तरलीकृत गैस के प्रयोग से प्राकृतिक गैस की तुलना में दस गुणा उत्सर्जन होता है. ऊर्जा संकट से निपटने के लिए यूरोपीय देशों को कोयले और तेल का प्रयोग भी शुरू करना पड़ रहा है. लड़ाई से भी कार्बन उत्सर्जन हो रहा है. ऊर्जा संकट से महंगाई भी बढ़ी है और अर्थव्यवस्थाएं मंदी की चपेट में आयी हैं, जिससे यूरोपीय देश विकासोन्मुख देशों की जलवायु सहायता भी नहीं बढ़ा पा रहे हैं.
पर्यावरणवादियों का कहना है कि विश्व का सबसे विनाशकारी संकट जलवायु परिवर्तन है, इसलिए दूसरे संकटों को इस पर वरीयता नहीं दी जा सकती. विख्यात अर्थशास्त्री जैफरी सैक्स का सुझाव है कि विकासोन्मुख देशों की जलवायु सहायता को स्थायी बनाने के लिए उत्सर्जन के सामाजिक दायित्व के सिद्धांत पर ऊंची और मध्यम आय वाले देशों पर उत्सर्जन शुल्क लगाया जाना चाहिए. ऊंची आय वाले देश अपने उत्सर्जन पर पांच डॉलर प्रति टन का शुल्क भरें और मध्यम आय वाले ढाई डॉलर प्रति टन.
इसे हर पांच साल बाद दोगुना किया जाना चाहिए. इस सुझाव को मान लिया जाए, तो जलवायु न्याय के रूप में दी जाने वाली सहायता विकसित देशों की सरकारों की सदेच्छा के भरोसे न रहकर संयुक्त राष्ट्र की वित्तीय संस्थाओं की देखरेख में चलने वाली वित्तीय व्यवस्था बन सकती है. इस शुल्क का प्रयोग देशों के अलावा ऐसी वस्तुओं पर भी किया जा सकता है, जिनकी खपत कम करना जलवायु के लिए हितकारी समझा जाए.
मिसाल के तौर पर, हमारा एक चौथाई से ज्यादा उत्सर्जन खाद्य पदार्थों के उत्पादन से होता है. लेकिन गोमांस के उत्पादन में अनाज से 130 गुणा और भेड़-बकरियों के मांस के उत्पादन में अनाज से 70 गुणा कार्बन उत्सर्जन होता है. इसलिए वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए सबसे पहले हमें अपने खान-पान को बदलना होगा. भोजन में मांस और डेयरी की मात्रा घटा कर शाकाहार बढ़ाना होगा. सरकारें जलवायु रक्षा के लिए बड़े जानवरों के मांस पर शुल्क लगा कर भी शाकाहार को बढ़ावा दे सकती हैं, जैसे जन-स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए तंबाकू और शराब पर शुल्क लगाया जाता है.
पुतिन ने जिस तरह प्राकृतिक गैस को यूरोप के खिलाफ हथियार बनाया है, उससे यूरोप ही नहीं, पूरी दुनिया को सबक लेना चाहिए. यूरोपीय देश अब अक्षय ऊर्जा के विकास में जुट गये हैं, जिससे रूस पर निर्भरता खत्म होने के साथ उत्सर्जन भी कम होगा. भारत को भी ऊर्जा की आत्मनिर्भरता पर सोचने की जरूरत है. रूस से रियायती दरों पर मिल रहे तेल के बावजूद भारत का वार्षिक ऊर्जा आयात बिल 5.25 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 10 लाख करोड़ रुपये हो चुका है.
तेल निर्यातक देशों के पास जा रही इस बड़ी दौलत को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में लगाया जाए, तो भारत का कायाकल्प हो सकता है. भारत का प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन यूरोप और अमेरिका की तुलना में बहुत कम है, इसलिए उसे बाहरी दबाव में स्वच्छ ऊर्जा अपनाने की जरूरत नहीं है. परंतु भारतीय शहरों का जलवायु इतना जहरीला हो चुका है कि विज्ञान पत्रिका लांसेट के अनुसार उससे हर साल लगभग 23 लाख लोग मरने लगे हैं, जिनमें बड़ी संख्या बच्चों की है.
कोयले और तेल की जगह सौर, पवन और हाइड्रोजन जैसी अक्षय ऊर्जा का प्रयोग बढ़ा कर प्रदूषण से फैलने वाली बीमारियों पर होने वाले खर्च से भी बचा जा सकता है. इसकी शुरुआत सरकारी उपक्रमों और दफ्तरों, सरकारी वाहनों, नलकूपों, गांव-देहात, आदिवासी और पहाड़ी इलाकों को अक्षय ऊर्जा चालित बना कर की जा सकती है. स्वच्छता अभियान के बाद अब देश को स्वच्छ ऊर्जा अभियान की जरूरत है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शर्म अल-शैख के सम्मेलन में नहीं जा रहे हैं, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि वे देश के जलवायु की बेहतरी के लिए नये उपाय सोच रहे हैं.