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जन-जन में व्याप्त लोक कवि हैं तुलसीदास

रामराज्य के रूप में तुलसी के मानस में एक ऐसी संकल्पना थी, जो मध्यकाल की तमाम विसंगतियों के खिलाफ एक प्रति समाज-राज व्यवस्था की प्रस्तावना करती थी, जिसमें किसी प्रकार के ताप, दुख, दारिद्रय, द्वेष और दीनता की गुंजाइश नहीं थी

अवनिजेश अवस्थी

प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय

भारतीय राज व्यवस्था, समाज व्यवस्था, लोक व्यवस्था और सांस्कृतिक व्यवस्था की जब-जब बात होगी, तब-तब तुलसीदास को अनिवार्य रूप से याद किया जायेगा. पूरे एशिया महाद्वीप में तुलसीदास के अतिरिक्त शायद ही कोई अन्य रचनाकार होगा, जिसकी ख्याति मध्यकाल से लेकर 21वीं सदी तक जन-जन में व्याप्त हो. वह लोक के अद्भुत कवि हैं, जिनके पास भाषा से लेकर भाव तक का संस्कार है. यही संस्कार भारतीय लोक में व्याप्त है.

समग्र विश्व को सियाराम के रूप में देखकर- सिया राममय सब जग जानी, करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी- उसके प्रति नत होने वाले गोस्वामी तुलसीदास के जन्म, जन्म स्थान, बचपन, माता-पिता, और इस असार संसार को छोड़ने की तिथियों के विषय में विद्वानों में यदि मतभेद है, तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं, क्योंकि तुलसी का एकमात्र मंतव्य राम का गुणगान करना था, अपना तो कदापि नहीं.

फिर वे किसी ऐसी परंपरा में खुद को बंद कर कविता करने वाले भी नहीं थे जिसमें ‘शाहे वक्त’ (सुल्तान) की प्रशंसा के साथ कविता शुरू की जाती थी. उनका सुल्तान तो एक ही था- जो कालातीत और समय से परे है. वास्तविकता यह है कि पांच शताब्दियों के बाद भी तुलसी सर्वाधिक लोकप्रिय, सर्वाधिक आवश्यक कवि हैं और सर्वाधिक विवादास्पद भी. लोकप्रियता का आलम यह है कि रामचरितमानस भारतीय भाषाओं में ही नहीं, विश्व की सर्वाधिक भाषाओं में गद्य-पद्य दोनों विधा में कई-कई बार अनूदित हो चुका है.

यह प्रश्न सहज रूप से उठता है कि 500 वर्ष पहले के (500 वर्ष पुराने नहीं) एक कवि को हम किस रूप में याद करें? उसकी दीनता के लिए, मध्यकालीन रूढ़, सामंती संस्कारों के लिए, नारी और शूद्रों के प्रति पूर्वाग्रह रखने के लिए, वर्णाश्रम व्यवस्थावादी और सामंती संस्कारों के पोषक के तौर पर, या एक ऐसे युगदृष्टा क्रांतिदर्शी व्यक्तित्व के रूप में, जिसका सानी इस समूचे वांड्मय में कोई दूसरा नहीं! दरअसल, जिन उक्तियों को उद्धृत करके तुलसी को नारी विरोधी कहा गया है, उसमें से कोई भी स्वयं तुलसीदास की उक्ति नहीं है, न ही ये उनके आराध्य श्री राम के विचार हैं.

नारी के विषय में ऐसे विचार या तो समुद्र के हैं, या कभी अति आत्म दैन्यवश शबरी ऐसा कहती हैं, या कभी तुलसी के समूचे मूल्यों का विरोधी राक्षसराज रावण. तुलसी की यह पंक्ति भी देखी जानी चाहिए- ‘अनुज बधु भगिनी सुत नारी, सुन सठ कन्या सम ए चारी/ इन्हहि कुदृष्टि बिलोकई जोई, ताहि बंधे कछु पाप न होई.’ यहां तुलसी नारी सम्मान की रक्षा में बिना किसी दुविधा के डटकर खड़े हैं.

तुलसीदास ने मध्यकाल में कविता करते हुए नारी की पराधीनता को लक्ष्य करके उसे स्वप्न में ही सुख न पाने वाली कहकर उसकी पीड़ा का अंकन तो किया ही है, पुरुषों के लिए एक नारी व्रत की बात कहकर मध्यकालीन समाज में पुरुषों के विशेषाधिकार के प्रति अपना विरोध भी दर्ज किया है.

यह ठीक है कि तुलसी वर्णाश्रम, वर्ण व्यवस्था के विरोधी नहीं थे, किंतु यदि यह कहा जाये कि उन्होंने पिछड़ी, दलित जातियों के उत्थान की कोई योजना प्रस्तुत नहीं की, तो यह आलोचना के किसी भी मानदंड का अतिक्रमण होगा. तुलसी की भक्ति में सभी समाहित हैं, वर्ण, जाति और संप्रदाय का उसमें कोई भेद नहीं है- ‘हरि को भजे सो हरि का होई.’ जाति-पांति तो उनके काम की ही नहीं है, न उसमें उनकी कोई रुचि है.

‘मेरे जाति-पांति न चहौं काहू की जाति पांति/ मेरे कोऊ काम को न मैं काहू के काम को.’ वे एक तरह से वर्ण व्यवस्थावादियों को ललकारते हुए पूछते हैं- ‘कौन धौं सोमयोगी अजामिल अधम, कौन गजराज धौं वाजपेयी.’ वे निसंकोच कहते हैं कि जो उनके स्वामी का गोत्र है, वही उनका गोत्र है. रामकथा में रावण जन्म और जाति से ब्राह्मण है और निषाद केवट और सुग्रीव, जामवंत, शबरी आदि आदिवासी और अति पिछड़े.

राम कोल-किरात शबरी-भीलनी का आतिथ्य स्वीकार कर उनके जूठे बेर खाने वाले हैं. जब स्वामी राम के लिए ये सब अपने हैं, तो सेवक तुलसीदास का इनसे कैसे विरोध हो सकता है? यह सच है कि तुलसी ने राजनीति शास्त्र के आधुनिक अर्थों में किसी प्रजातांत्रिक व्यवस्था की प्रस्तावना नहीं की, लेकिन उनके राजाराम प्रजा द्वारा चुने हुए से कहीं अधिक प्रजातांत्रिक हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है.

बीसवीं सदी के आरंभ में देश की स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने के साथ महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के राज के प्रतिपक्ष में यदि किसी राज्य व्यवस्था का संकल्प सामने रखा, तो वह कुछ और नहीं तुलसीदास द्वारा प्रतिपादित रामराज्य ही था.

रामराज्य के रूप में तुलसी के मानस में एक ऐसी संकल्पना थी, जो मध्यकाल की तमाम विसंगतियों के खिलाफ एक प्रति समाज-राज व्यवस्था की प्रस्तावना करती थी, जिसमें किसी प्रकार के ताप, दुख, दारिद्रय, द्वेष और दीनता की गुंजाइश नहीं थी. तुलसी का यह रामराज्य स्वर्ग की अलभ्य वस्तु नहीं है, वह इसी धरती पर है और अयोध्या में है. यही अवध राम को बैकुंठ से भी अधिक प्रिय है. यही बात तुलसी को जन-जन का रचनाकार बनाती है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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