कुछ दिन पहले तुर्किये में हुए राष्ट्रपति चुनाव में रेचेप तैय्यप अर्दोआन फिर से निर्वाचित हुए हैं और संसद में भी उनकी पार्टी को बड़ी जीत मिली है. वे पहली बार 2002 में सत्ता में आये थे. उस समय देश की आर्थिक हालत बहुत खराब थी. आज भी वहां की मुद्रा लीरा की कीमत में बड़ी गिरावट हुई है, पर तब उसकी दशा आज से भी बदतर थी. उससे पहले लगभग तीन दशक तक देश में गठबंधन सरकारें सत्ता में रही थीं, जो बहुत थोड़े समय में गिर जाती थीं. सैनिक तख्तापलट के भी असर से देश प्रभावित था.
ऐसे में लेफ्ट, सेंटर और राइट धड़े के मतदाताओं में निराशा और नाराजगी थी. अर्दोआन ने अपनी इस्लामिक पार्टी से बगावत कर नया दल बनाया और मतदाताओं के बड़े हिस्से को आकर्षित करने में सफल रहे. उनकी पार्टी यूरोपीय संघ के विरोध में थी, पर अर्दोआन ने यूरोप से नजदीकी बढ़ाने को अपना एजेंडा बनाया. उन्होंने अपनी नयी पार्टी को विचारधारा के स्तर पर तटस्थ रखने का प्रयास भी किया. इससे हर खेमे के वोटर और नेता उनसे जुड़ने लगे. अपनी इस राजनीति को अर्दोआन ने करीब दस साल तक बरकरार रखा. इस अवधि में देश की आर्थिक प्रगति भी अच्छी तरह हुई.
वर्ष 2011-12 में अनेक अरब देशों में जब राजनीतिक उथल-पुथल का दौर आया, तो उन्होंने अपना असर बढ़ाने का प्रयास किया, पर यह कवायद चार साल में विफल हो गयी. उस समय अमेरिका अर्दोआन को इस्लामिक दुनिया में एक आदर्श के रूप में स्थापित करना चाहता था. लेकिन सीरिया में हस्तक्षेप के असफल होने के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी अपने पैर खींच लिये और अर्दोआन वहां अकेले पड़ गये. जब रूस ने सीरिया में दखल दिया, तो दोनों देशों के संबंध बिगड़ने लगे.
नाटो का सदस्य होने के बावजूद अमेरिका या अन्य नाटो देशों ने तुर्किये की कोई मदद नहीं की. तब अर्दोआन को अहसास हुआ कि सीरिया में कार्रवाई की नीति ठीक नहीं रही और वहां से उनके रवैये में बड़ा बदलाव आता है. उन्होंने पश्चिम से मुंह मोड़ते हुए नया रास्ता बनाने का प्रयास शुरू कर दिया. अर्दोआन ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन से भेंट कर गिला-शिकवा दूर किया और ईरान एवं रूस के साथ मिलकर शांति प्रक्रिया शुरू की. इसके बदले में पुतिन ने तुर्किये की बड़ी मदद की तथा मध्य एशिया में उसकी मौजूदगी के लिए रास्ता बनाया. रूस के सहयोग से अपने देश में भी अर्दोआन का समर्थन बढ़ा.
लेकिन अर्दोआन के सामने बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था को संभालने की रही, जो आज भी कायम है. तुर्किये की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से इंफ्रास्ट्रक्चर और रियल एस्टेट आधारित रही थी तथा सूचना तकनीक एवं ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था का विकास संतोषजनक नहीं था. कुछ समय पहले आये भारी भूकंप ने उनकी गिरती साख को और कमजोर किया. इसके अलावा, उनके ऊपर विपक्ष को दबाने तथा राजनीतिक पैंतरेबाजी के आरोप भी रहे हैं.
लोगों की नाराजगी, खासकर युवाओं के रोष, को भुनाने में विपक्ष ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी और राष्ट्रपति पद के लिए वे एक साझा उम्मीदवार देने में कामयाब रहे. शुरू में अर्दोआन के समर्थक रहे कुर्द समुदाय, जो सीरिया में कुर्द इलाकों में अर्दोआन की सैन्य कार्रवाई के बाद नाराज हो गये, ने भी विपक्ष को समर्थन देने का एलान किया. मजबूत विपक्ष का यह फायदा जनता को मिला कि विपक्ष के अनेक वादों को अर्दोआन को भी अपनाना पड़ा. पहले चरण के मतदान में वे मामूली अंतर से 50 प्रतिशत से अधिक वोट पाने में असफल रहे, पर संसद में उन्हें बड़ी जीत मिली.
अन्य कारणों के साथ विपक्षी उम्मीदवार ने रूस को लेकर जो आक्रामक रवैया अपनाया और अमेरिका के पक्ष में बयान देते रहे, उससे उन्हें नुकसान झेलना पड़ा क्योंकि तुर्किये में अभी रूस के प्रति अच्छा-खासा समर्थन है. दूसरे चरण में जीतकर अर्दोआन तीसरी बार राष्ट्रपति बनने में कामयाब रहे.
अर्दोआन की विदेश नीति का मुख्य आयाम है गैर-पश्चिमी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाना और पश्चिम पर तुर्किये की निर्भरता, खासकर रक्षा के क्षेत्र में, कम करना. वे देश में ही रक्षा उत्पादन बढ़ाने की कोशिश में हैं. आगे भी उनकी कोशिश रहेगी कि चीन, रूस और भारत से उनके रिश्ते मजबूत हों. इन देशों और इनके सहयोगी देशों, मसलन ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य, का बाजार बहुत बड़ा है. अर्दोआन इन बाजारों तक तुर्किये की पहुंच बढ़ाने की पुरजोर कोशिश करेंगे.
उनके इस रुख का असर यह हुआ है कि जीतने के बाद अमेरिका और यूरोपीय देशों ने बढ़-चढ़कर उन्हें बधाई दी है. परिणाम के अगले ही दिन अमेरिकी राष्ट्रपति ने फोन किया और संबंध बेहतर करने पर चर्चा की. पश्चिम को अहसास है कि आगे अर्दोआन अपने देश को पश्चिम से हटाकर पूर्व से जोड़ने पर ध्यान केंद्रित करेंगे. ऐसे में पश्चिम को तुर्किये को अधिक छूट के साथ हथियार मुहैया करने पर मजबूर होना पड़ सकता है. इसी तरह, साइप्रस, अजरबैजान, लीबिया आदि से जुड़े मसलों में भी पश्चिम अर्दोआन को अधिक महत्व देने की कोशिश करेगा. अर्दोआन भी इसका पूरा फायदा उठाने की कोशिश करेंगे.
अर्दोआन के सामने पश्चिम एशिया के मसले एक बड़ी चुनौती हैं. यह अच्छा है कि उन्होंने समय रहते सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से दोस्ती गांठ ली थी. अब सऊदी अरब और ईरान के रिश्ते बेहतर हो रहे हैं तथा अरब देशों ने सीरिया से भी संबंध बहाल कर लिया है. आने वाले समय में यह संभव है कि ये देश तुर्किये पर दबाव डालें कि वह सीरिया से अपनी सेनाएं हटाये. इस मसले पर अरब देशों में एकजुटता बनेगी.
उस स्थिति में पश्चिम अर्दोआन के साथ खड़ा होगा और यह कहा जायेगा कि जब तक सीरिया के सभी शरणार्थी लौट नहीं जाते और एक ठोस योजना तय नहीं होती, तब तक तुर्किये की सेना सीरिया में रहेगी. उस स्थिति में तुर्किये व संयुक्त अरब अमीरात की दोस्ती और अच्छी हो सकती है तथा दोनों देश लीबिया, सोमालिया और कुछ अन्य देशों में साझेदारी से काम करें.
अर्दोआन को इराक से भी सहयोग बढ़ाना होगा ताकि सीरिया पर उनकी निर्भरता खत्म हो सके. तुर्किये और इराक के बीच सीधी रेल लाइन बनाने की योजना भी है. अर्दोआन ने सीरिया, लीबिया, कतर और सोमालिया में अपने सैनिक ठिकाने बनाकर पश्चिम एशिया में एक बढ़त ले ली है. संभव है कि वे ऐसे ठिकाने बढ़ाने की कोशिश करें. मध्य एशिया में भी तुर्किये अपने प्रभाव विस्तार का प्रयास करेगा.