संयम बरतें टीवी चैनल

स्वायत्त संस्थाएं और मीडिया के अपने संगठन निर्धारित प्रावधानों के मुताबिक कार्रवाई करने और गलत तौर-तरीके अपना रहे चैनलों पर लगाम लगाने में पूरी तरह से असफल साबित हुए हैं.

By संपादकीय | September 17, 2020 6:04 AM
an image

स्वतंत्र मीडिया का अस्तित्व संवैधानिक लोकतंत्र की सफलता के लिए अनिवार्य शर्त है. यह मीडिया का दायित्व है कि वह जनता के सरोकारों, समस्याओं और चिंताओं के लिए अभिव्यक्ति का मंच प्रदान करे तथा सरकार और नागरिक के बीच संवाद सूत्र की भूमिका निभाये. लेकिन अनेक खबरिया चैनलों पर समाचारों और बहसों की प्रस्तुति को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने जो टिप्पणी की है, उससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या टेलीविजन चैनल सचमुच जिम्मेदार मीडिया के रूप में काम कर रहे हैं या फिर पत्रकारिकता की मर्यादाओं को तार-तार कर संवैधानिक और लोकतांत्रिक भारत को नुकसान पहुंचा रहे हैं.

एक चैनल के विवादित कार्यक्रम पर रोक लगाने का निर्णय देते हुए खंडपीठ ने अनेक कड़ी टिप्पणियां की है, जैसे- अधिक दर्शक पाने की होड़ में सनसनीखेज प्रस्तुतियां करना और लोगों की छवियों को ध्वस्त करना इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चलन बन गया है तथा इस रवैये को चैनल अपना अधिकार मानते हैं. मीडिया का एक हिस्सा एक समुदाय विशेष के खिलाफ भावनाएं भड़काने की कोशिश भी कर रहा है. सुनवाई के दौरान प्रेस काउंसिल की ओर से यह कहा जाना तथ्यात्मक रूप से सही है कि मीडिया पर निगरानी रखने और सुधार करने के लिए प्रावधान हैं, लेकिन असलियत यह है कि स्वायत्त संस्थाएं और मीडिया के अपने संगठन इन प्रावधानों के मुताबिक कार्रवाई करने और गलत तौर-तरीके अपना रहे चैनलों पर लगाम लगाने में पूरी तरह से असफल साबित हुए हैं.

न्यायालय ने भी कहा है कि अगर ये व्यवस्थाएं प्रभावी होतीं, तो वह सब टीवी पर नहीं दिखता, जो कि दिखाया जा रहा है. बीते कुछ समय से अनेक चैनलों ने विभिन्न मुद्दों पर जिस तरह से रिपोर्टिंग की है और शोर-शराबे व अभद्रता के साथ बहसों का संचालन हुआ है, उसे देखते हुए न्यायाधीशों की चिंताएं और आलोचनाएं बहुत महत्वपूर्ण हो जाती हैं. तकरीबन ढाई दशक पहले जब हमारे देश में निजी टेलीविजन चैनलों का दौर शुरू हुआ, तो ऐसी उम्मीद जतायी गयी थी कि प्रिंट मीडिया की व्यापक मौजूदगी के साथ इस नये माध्यम से जनता को अपनी बात कहने और सरकारों को जवाबदेह बनाने में मदद मिलेगी.

कुछ हद तक और कुछ सालों तक ऐसा हुआ भी, किंतु धीरे-धीरे मुनाफा कमाने और दर्शकों को अपने पाले में खींचने की होड़ ने उन उम्मीदों पर पानी फेरना शुरू कर दिया. पत्रकारिता के इस पतन का असर अखबारों पर भी पड़ा है और डिजिटल तकनीक पर आधारित न्यू मीडिया पर भी. फेक और जंक न्यूज से भरे डिजिटल व सोशल मीडिया तथा आक्रामक रूप से एजेंडे थोपने पर उतारू मुख्यधारा की मीडिया ने समाज और राजनीति को बहुत नुकसान पहुंचाया है.

Exit mobile version