महाराष्ट्र में कई दिनों से जारी राजनीतिक हलचल अब नये चरण में प्रवेश कर गयी है. भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बने एकनाथ शिंदे को विधानसभा अध्यक्ष ने शिव सेना विधायक दल के नेता के रूप में मान्यता दे दी है और उन्हें विश्वास मत भी मिल गया है. अब सवाल यह उठता है कि क्या शिव सेना पर उद्धव ठाकरे का नियंत्रण समाप्त हो चुका है या हो जायेगा.
इस संबंध में कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि विधानसभा में शिंदे के खेमे में पार्टी के अधिकतर विधायक हैं. जहां तक किसी एक विधायक या विधायक समूह की सदस्यता का मामला है, तो उसका अंतिम निर्णय तो अदालत में होगा, पर अभी यह स्थिति है कि पार्टी में औपचारिक टूट नहीं हुई है. विधानसभा से बाहर शिव सेना का संगठन किसके पक्ष में जायेगा, यह जानने के लिए हमें कुछ इंतजार करना होगा.
बहुत अधिक विधायक होने के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस का उपमुख्यमंत्री बनने का मामला भी शिव सेना की आंतरिक हलचलों से जुड़ा हुआ है. योजना में बदलाव इसलिए हुआ कि शिव सेना समर्थकों में उद्धव ठाकरे के प्रति सहानुभूति बढ़ती जा रही थी और लोग शिंदे गुट से इस बात पर नाराज होने लगे थे कि वे अपनी ही सरकार गिरा कर भाजपा की सरकार बनाने में मददगार हो रहे हैं.
महाराष्ट्र में कई लोग इस बात से चिंतित थे कि खुद बालासाहेब ठाकरे की सरपरस्ती में पले-बढ़े शिंदे सेना की कीमत पर भाजपा को मजबूत बना रहे हैं. भाजपा नेतृत्व को जैसे ही ऐसी भावनाओं का अहसास हुआ, उसने अपनी योजना बदल दी और शिंदे मुख्यमंत्री बना दिये गये.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इतने बड़े झटके के बाद उद्धव ठाकरे की वापसी आसान नहीं होगी. अब सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि बालासाहेब ठाकरे के पुत्र के खिलाफ एकनाथ शिंदे की अगुवआई में हुए विद्रोह पर शिव सैनिकों और पार्टी के समर्थकों की प्रतिक्रिया क्या होगी. उल्लेखनीय है कि सेना के काडर शाखा और विभाग के स्तर पर बड़ी मेहनत से तैयार किये गये हैं.
इस प्रक्रिया से सेना अपनी तरह की अन्य पार्टियों, जैसे- कम्युनिस्ट पार्टियों या भाजपा, से कहीं अधिक काडर आधारित संगठन है. यह सवाल भी है कि क्या शिव सेना बिना किसी ठाकरे के नेतृत्व के शिव सेना बनी रह सकेगी. बाल ठाकरे द्वारा 1966 में स्थापना के बाद से ही इस पार्टी की पहचान मराठी उपराष्ट्रवाद- मराठी माणूस- पर आधारित रही है. फिर इसने अपनी छवि हिंदुत्व समर्थक की बनायी और बाल ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से दावा किया कि 1992 में शिव सैनिकों ने ही बाबरी मस्जिद गिरायी थी.
फिर भी सच यह है कि पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्व के मामले में भाजपा से पीछे होती गयी, विशेषकर 2014 के बाद से हिंदुत्व पार्टी के रूप में इसकी पहचान कमजोर हुई है. शिव सेना की कीमत पर भाजपा महाराष्ट्र में मजबूत हुई है. दोनों पार्टियों का तीन दशक पुराना गठबंधन 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद इस पर टूट गया कि नेतृत्व कौन करेगा. इसका नतीजा कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ बने महा विकास अगाड़ी के रूप में सामने आया.
शरद पवार ने उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद लेने के लिए मनाया, जो पार्टी की पूर्ववर्ती परंपरा से अलग था. उद्धव के पिता ने अनेक मुख्यमंत्री बनाये, पर खुद कभी पद नहीं लिया और वे हमेशा सरकार से ऊपर बने रहे. महाराष्ट्र की सड़कों पर शिव सेना ही सरकार थी, भले ही सरकार में कोई भी हो.
पहले भी छगन भुजबल, नारायण राणे, राज ठाकरे जैसे अनेक लोकप्रिय और ताकतवर नेताओं ने शिव सेना छोड़ी है, पर इससे पार्टी पर खास असर नहीं हुआ, लेकिन शिंदे ने वह कर दिखाया, जो पहले कोई नहीं कर सका था. वे अपने साथ 40 सेना विधायकों को ले गये, जबकि उद्धव ठाकरे के पास 15 विधायक ही बचे. चाहे भय कारण रहा हो या समर्पण, शिंदे ने यह दिखा दिया है कि विधानसभा में पार्टी के अधिकतर विधायक उनके साथ हैं, पर अभी यह देखा जाना बाकी है कि क्या पार्टी संगठन का झुकाव भी इसी तरह शिंदे के पक्ष में होगा.
क्या सेना के काडर तथा शाखाओं और विभागों के नेता स्थानीय विधायकों के साथ खड़े होंगे या फिर वे सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का साथ देंगे? विधायक अगले दो साल तक तो उनकी मदद कर देंगे, पर उसके बाद क्या होगा? आगामी सप्ताहों और महीनों में यह पता चल सकेगा कि सेना किस हद तक ठाकरे नेतृत्व से जुड़ी हुई है.
इसकी पहली परीक्षा बृहनमुंबई नगर निगम के चुनाव में होगी, जहां अभी सेना का नियंत्रण है, पर भाजपा भी अपना विस्तार कर रही है. सेना के विभाजन का एक कारक सितंबर में होने वाले लगभग एक दर्जन निगमों का चुनाव है, पर इसमें तेजी आने की वजह हाल में हुए विधान पार्षद के चुनाव को लेकर ठाकरे और शिंदे में हुई तनातनी हो सकती है.
शिव सैनिकों और समर्थकों में भले ही ठाकरे के लिए सहानुभूति हो और उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री अपने आखिरी फैसले में नरम हिंदुत्ववादी रुख अपनाते हुए तीन हवाई अड्डों का नाम बदला हो, बीते तीन साल में उदारवादियों और मुस्लिम समुदाय से उन्हें नये समर्थक भी मिले हैं, कोविड महामारी का प्रभावी सामना करने के लिए उनकी प्रशंसा भी हुई है, लेकिन इन भावनाओं को अपने पक्ष में भुनाने के लिए उनका शिव सेना के समूचे संगठन पर नियंत्रण होना जरूरी है.
उद्धव ठाकरे ने पार्टी की दूसरी पंक्ति के अधिकतर नेताओं को खो दिया है. वे स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से भी जूझ रहे हैं, जिसका असर ऊर्जा के स्तर पर पड़ता है. उनकी मुश्किलों को बढ़ाने में इस धारणा ने भी योगदान दिया है कि उनसे मिलना आसान नहीं होता. अगर वे यह दिखाना चाहते हैं कि असली शिव सेना कौन है, तो उन्हें आने वाले समय में नेतृत्व एवं प्रबंध कौशल का प्रदर्शन करना होगा, जिसका अर्थ यह है कि उन्हें भाजपा जैसी बहुत बड़ी ताकत से भिड़ना होगा.
यह भी देखना होगा कि एकनाथ शिंदे के साथ भाजपा का बर्ताव कैसा रहता है. निश्चित ही भाजपा शिव सेना को कमजोर करना चाहेगी. इन पहलुओं पर सेना समर्थकों की नजर बनी रहेगी. सरकार चलाने में शिंदे और फड़नवीस के बीच क्या समीकरण रहेगा और इसमें शिंदे व उनके समर्थक विधायकों को किस हद तक महत्व मिलता है, यह भी देखना दिलचस्पी होगा. राज ठाकरे के पैंतरे पर भी निगाह रखी जानी चाहिए. (बातचीत पर आधारित).