18.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

विचाराधीन कैदी और लोकतंत्र

हमारे यहां अभियुक्तों को सजा देने की दर बहुत ही कम है. ऐसे में ठोस जांच दरकिनार कर दी जाती है और मुकदमे से पहले जेल में रखना ही सजा बना दिया जाता है.

भारत के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना और सर्वोच्च न्यायालय ने जेलों में पड़े विचाराधीन कैदियों की ओर देश का ध्यान खींचा है तथा एक ऐसे मुद्दे को सामने रखा है, जिससे हमारा लोकतंत्र कमजोर होता है, आम नागरिकों की आजादी छिनती है और अधिकतर जांचों में जमानत देने की जगह जेल भेजना कायदा बनता जा रहा है. प्रधान न्यायाधीश ने एक संबोधन में रेखांकित किया कि हमारे देश में जेलों में बंद 6.10 लाख नागरिकों में लगभग 80 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं.

उन्होंने कहा कि ‘न्याय व्यवस्था में प्रक्रिया ही दंड बन गयी है. मनमाने ढंग से गिरफ्तारियों से लेकर जमानत मिलने में मुश्किलों तक की इस प्रक्रिया में लंबे समय तक जेलों में बंद लोगों के इस मामले पर तुरंत ध्यान दिया जाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि कैदी ब्लैक बॉक्स की तरह हैं. वे ऐसे नागरिक हैं, जिन्हें अक्सर अनदेखा और अनसुना कर दिया जाता है. प्रधान न्यायाधीश ने ऐसे मुद्दे को उठाया है, जिस पर शायद ही कभी चर्चा होती है.

सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह कोई हाल में आयी अस्थायी गिरावट नहीं है, बल्कि भारतीय व्यवस्था की स्थायी विशेषता बन चुकी है. सजा दिलाने के लिए लंबी जांच की बजाय तुरंत हिरासत में लेने के रवैये से भी न्यायिक व्यवस्था पर दबाव बढ़ता है क्योंकि जमानत की अर्जियों की तादाद बहुत अधिक है. चूंकि हिरासत में लेना आम बात है, तो अग्रिम जमानत के लिए भी बहुत सारे लोग अदालत पहुंचते हैं.

इनसे बड़ी अदालतों में बोझ बढ़ता जाता है. इन सबसे ऐसी व्यवस्थागत समस्या पैदा हो गयी है, जिसका समाधान जजों की संख्या बढ़ाकर नहीं किया जा सकता है. हम जानते हैं कि हमारे यहां अभियुक्तों को सजा देने की दर बहुत ही कम है. ऐसे में ठोस जांच दरकिनार कर दी जाती है और मुकदमे से पहले लंबे समय तक जेल में रखना ही सजा बना दिया जाता है. इससे न्याय व्यवस्था का आधारभूत सिद्धांत, जिसमें दोष सिद्ध होने तक अभियुक्त को निर्दोष माना जाता है, ही खारिज हो जाता है.

इस माह की 11 तारीख को अपने 85 पन्ने के आदेश में न्यायाधीश एसके कौल और एमएम सुंदरेश ने समस्या के व्यवस्थागत प्रकृति की ओर संकेत किया है- ‘अदालतें सोचती हैं कि चूंकि सजा होने की संभावना बहुत ही कम है, तो जमानत की अर्जियों पर कड़ा रुख अपनाना चाहिए.

हम जमानत पर विचार करते हुए बहुत सी बातों को नहीं जोड़ सकते, क्योंकि उसका दंड से लेना-देना नहीं है. अगर कोई लंबे समय तक जेल में रहने के बाद बरी हो जाता है, तो वह बेहद गंभीर अन्याय है.’ कामकाज का कोई लेना-देना राजनीति या नेताओं या एजेंडे से नहीं होता. व्यवस्था का हर जगह होना उसका संत्रास है. वह हवा व पानी में घुल-मिल जाता है तथा बहुत से लोगों को जेल में डालकर उनमें से कुछ सबसे कमजोर नागरिकों को भूल जाता है.

इससे कैसे व्यवस्था की रीढ़ टूटती है, हम उसे आसानी से या ठीक से नहीं समझते. एक तो यह बिना मुकदमे के सजा दे देता है, जिसके लिए सबूतों का संज्ञान लिया जाना चाहिए और हर तरह से परखने के बाद ही अभियुक्त को दोषी ठहराना चाहिए. राज्य ने एकदम बुनियादी स्तर पर और रोजमर्रा के काम में ऐसा कर न्यायिक व्यवस्था को खत्म भले न किया हो, पर उसे अप्रासंगिक जरूर कर दिया है.

इतना ही नहीं, यह सब न्यायपालिका के सहयोग से ही हुआ है, जहां लगातार हिरासत में रखने के फैसले दिये जाते हैं और जमानत पाना मुश्किल होता है क्योंकि मामले के बारे में अक्सर न तो ठीक से विचार किया जाता है और कई बार तो उसके बारे में पूछा भी नहीं जाता. अगर हिरासत में रखने की अनुमति चलन बन जाए, तो पुलिस जजों को लेकर निश्चिंत हो जाती है और इसका सीधा व तुरंत असर जांच की गुणवत्ता पर पड़ता है.

न्यायाधीश कौल और सुंदरेश ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2014 में दिये गये एक निर्णय को उद्धृत करते हुए लिखा कि ‘हमारे इस फैसले का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पुलिसकर्मी अभियुक्त को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार नहीं करें और मजिस्ट्रेट लापरवाही से एवं यांत्रिक तौर से उसे पुलिस हिरासत में रखने का आदेश न पारित करें.’ वे आगे लिखते हैं, ‘हिरासत में रखने का आदेश देने का अधिकार एक गंभीर दायित्व है. इससे नागरिकों की स्वतंत्रता पर असर पड़ता है तथा इस अधिकार का प्रयोग बहुत सावधानी एवं सतर्कता से किया जाना चाहिए.

हमारा अनुभव हमें बताता है कि इस अधिकार का प्रयोग उस गंभीरता से नहीं किया जा रहा है, जैसा कि होना चाहिए. बहुत सारे मामलों में हिरासत में रखने का आदेश नियमित, लापरवाही भरा और बिना सोचे-समझे दिया जाता है. असल में, हिरासत का आदेश इतना सामान्य हो गया है कि पुलिस अधिकारी समुचित या पूरा विवरण भी पेश करने की जहमत नहीं उठाते. कभी-कभी इससे जांच एजेंसियों में घमंड भी भर जाता है कि कुछ भी चल सकता है.

इससे जांच के शुरुआती चरण में ही मामला भटक जाता है, जबकि इस अहम मोड़ पर बहुत सावधानी बरतने और समयबद्ध होकर काम करने की जरूरत होती है. ऐसा होने से हिरासत में होने वाली हिंसा के मामले से भी पुलिस का बचाव हो जाता है. कानूनी प्रावधानों के बावजूद यह समस्या भी गंभीर होती जा रही है.

इसलिए यह कोई अचानक नहीं हुआ है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अब औपचारिक रूप से केंद्र सरकार से जमानत पर कानून बनाने को कहा है. न्यायाधीश कौल और सुंदरेश ने रेखांकित किया है, ‘हम सरकार से आग्रह करते हैं कि वह ब्रिटेन जैसे अन्य देशों में बने कानूनों की तरह जमानत देने के बारे में विशेष कानून लाने पर विचार करे.’ निश्चित ही एक उल्लेखनीय पहल होगी. वैधानिक व्यवस्था में विशेष दिशा-निर्देशों को रखा जा सकता है, लेकिन बड़ी समस्या औपनिवेशिक मानसिकता की है, जो अभी भी भारतीय नौकरशाही पर हावी है.

इसके साथ ही अच्छा करने वाले लोगों के सहयोग के लिए निवेश की कमी तथा व्यवस्था के साथ हेर-फेर करने वालों को सजा देने का अभाव जैसी समस्याएं भी हैं. यहां पर अदालतों को हस्तक्षेप करना चाहिए. शुरू से ही मामलों की निगरानी होनी चाहिए और जांच एजेंसियों की मांग की समीक्षा होनी चाहिए. ऐसा करने से हमारी जांच व्यवस्था की कई खामियां दूर हो सकेंगी और एजेंसियां अधिक उत्तरदायी होंगी. साथ ही, इससे पुलिस सतर्क रहेगी और जेलों में भीड़ कम होगी तथा पूरी व्यवस्था के प्रभाव में बेहतर होगी.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें