सदी के सबसे निर्णायक अमेरिकी चुनाव पर पढ़ें बीबीसी के पूर्व संपादक शिवकांत का आलेख

अगर कमला हैरिस जीतती हैं, तो वे अमेरिकी इतिहास की पहली भारत-अफ्रीकी मूल की महिला राष्ट्रपति बनेंगी. वहां के लगभग 45 लाख भारतवंशियों में इसे लेकर खासा उत्साह है. यह देखते हुए डोनाल्ड ट्रंप ने भी ओहायो राज्य के सीनेटर जेडी वांस को अपना उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है क्योंकि उनकी पत्नी ऊषा वांस भारतीय मूल के तेलुगु परिवार की हैं.

By शिवकांत | November 4, 2024 7:10 AM

US Election 2024 : अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव उसके विश्वव्यापी आर्थिक, सामरिक और राजनयिक प्रभाव की वजह से पूरी दुनिया के लिए महत्व रखता है. लेकिन इस बार के चुनाव को अमेरिका के लिए भी सदी का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव समझा जा रहा है. इस चुनाव में विश्व मंच पर अमेरिका की भूमिका और उसकी साख के साथ-साथ अमेरिकी नागरिकों के मौलिक अधिकार और लोकतंत्र भी दांव पर हैं. राष्ट्रपति चुनाव के साथ-साथ अमेरिकी संसद के आम सदन प्रतिनिधि सभा की सभी 435 सीटों और प्रवर सदन या सीनेट की एक-तिहाई सीटों के लिए भी चुनाव हो रहे हैं. विजेता की पार्टी को दोनों सदनों में भी बहुमत हासिल करना होगा, जिसके बिना सरकार चलाना चुनौती साबित होगा. सत्ताधारी डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार उपराष्ट्रपति कमला हैरिस का मुकाबला पूर्व राष्ट्रपति और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप से है. पार्टी ने उन्हें राष्ट्रपति बाइडेन के दौड़ से हटने के कारण उम्मीदवार बनाया है.

अमेरिकी इतिहास की पहली महिला राष्ट्रपति होंगी कमला हैरिस


अगर कमला हैरिस जीतती हैं, तो वे अमेरिकी इतिहास की पहली भारत-अफ्रीकी मूल की महिला राष्ट्रपति बनेंगी. वहां के लगभग 45 लाख भारतवंशियों में इसे लेकर खासा उत्साह है. यह देखते हुए डोनाल्ड ट्रंप ने भी ओहायो राज्य के सीनेटर जेडी वांस को अपना उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है क्योंकि उनकी पत्नी ऊषा वांस भारतीय मूल के तेलुगु परिवार की हैं. भारतवंशियों में डेमोक्रेटिक समर्थक रिपब्लिकन पार्टी से लगभग दोगुना रहे हैं. पर भारत में मोदी सरकार आने और ट्रंप के साथ प्रधानमंत्री मोदी के मधुर संबंधों के कारण अब रिपब्लिकन पार्टी समर्थकों की संख्या बढ़ने लगी है. एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार 61 प्रतिशत भारतवंशियों ने कमला हैरिस को और 32 प्रतिशत ने ट्रंप को वोट देने की इच्छा जाहिर की है. वे मतदान में भी राष्ट्रीय औसत से अधिक संख्या में हिस्सा लेते हैं. इसलिए पेंसिलवेनिया, मिशिगन और जॉर्जिया जैसे कुछ निर्णायक राज्यों में भारतवंशियों का वोट भी निर्णायक साबित हो सकता है.

हैरिस और ट्रंप के बीच कांटे की टक्कर

हैरिस और ट्रंप के बीच कांटे की टक्कर चल रही है. सितंबर की टीवी डिबेट में ट्रंप को हराने के बाद उन्होंने जैसी बढ़त हासिल की थी, उसे देखकर कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि राष्ट्रीय सर्वेक्षणों के औसत के हिसाब से ट्रंप उनसे आगे निकल जायेंगे. राष्ट्रपति बनने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर बहुमत हासिल करना जरूरी नहीं होता. राज्यों में बहुमत पाना होता है. क्योंकि राज्यों द्वारा चुने गये निर्वाचक ही राष्ट्रपति चुनते हैं. निर्वाचकों की संख्या राज्यों की आबादी के अनुपात से तय होती है और जो उम्मीदवार जिस राज्य में बहुमत हासिल करता है, उसे उस राज्य के सारे निर्वाचकों का समर्थन मिल जाता है.
इस चुनाव में ट्रंप राष्ट्रीय बहुमत के सर्वेक्षणों में तो कमला हैरिस से आगे हैं ही, उन सात राज्यों में से पांच में भी आगे चल रहे हैं, जिनमें अधिकतर को जीते बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता. अमेरिका में अग्रिम वोटिंग की भी व्यवस्था है. लोग चुनावी तारीख से हफ्तों पहले चुनाव केंद्रों में जाकर या डाक द्वारा वोट डाल सकते हैं. अभी तक करीब 7.5 करोड़ लोग मतदान कर चुके हैं यानी लगभग एक-तिहाई मतदान पूरा हो चुका है. आम तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी समर्थक अधिक संख्या में अग्रिम मतदान करते हैं, पर इस बार रिपब्लिकन वोटरों की संख्या अधिक है. यह हैरिस के लिए चिंता की बात है. दिलचस्प बात यह भी है कि सट्टा बाजार में ट्रंप 23 से 30 प्रतिशत के अंतर से आगे चल रहे हैं. इसीलिए वे अपनी रैलियों में दावा करते हैं कि यदि चुनाव निष्पक्ष हुआ, तो उनकी जीत को रोका नहीं जा सकता.

हैरिस की चुनौतियां

चुनावी सर्वेक्षण और सट्टा बाजार के अनुमान गलत हो सकते हैं. साल 2016 का चुनाव इसका उदाहरण है. पर हैरिस की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे सत्ता में हैं और बाइडेन सरकार का हिस्सा हैं. पिछले 76 वर्षों से कोई सत्ताधारी उम्मीदवार राष्ट्रपति की स्वीकार्यता 50 प्रतिशत से कम रहते हुए चुनाव नहीं जीत पाया है. बाइडेन की स्वीकार्यता मात्र 39 प्रतिशत है, तो हैरिस की 45 प्रतिशत. इसलिए यदि चुनावी सर्वेक्षण सही साबित हुए और ट्रंप यह चुनाव जीत गये, तो चुनावी प्रक्रिया और अमेरिकी लोकतंत्र की लाज बच सकती है. पर यदि कमला हैरिस मामूली अंतर से जीतीं, तो बार-बार गिनती कराने और अदालती दांव-पेंच के कारण परिणाम घोषित होने में देरी हो सकती है. यह बात लगभग तय है कि ट्रंप हार मानने से इंकार करेंगे और सर्वेक्षणों और सट्टा बाजार का हवाला देते हुए धांधली और जालसाजी के आरोप लगायेंगे. निर्वाचकों को लुभाने और डराने-धमकाने की कोशिशें भी हो सकती हैं, जिससे अमेरिकी चुनाव प्रणाली और लोकतंत्र की जगहंसाई होगी. सुरक्षा प्रबंध किये गये हैं, फिर भी ट्रंप समर्थकों के उपद्रवों की संभावना है.

ट्रंप और हैरिस की नीतियों में भारी अंतर


पिछले पचास वर्षों में ऐसा कोई चुनाव नहीं हुआ, जिसमें दोनों उम्मीदवारों की नीतियों में ऐसा जमीन-आसमान का अंतर रहा हो. कमला हैरिस औरतों को उनके शरीर की स्वायत्तता दिलाने, नागरिकों का मताधिकार सुनिश्चित करने और दवाओं एवं घरों की कीमतें घटा कर उन्हें रोगियों और बेघरों की पहुंच में लाने की बात करती हैं. ट्रंप गर्भपात विरोधी कानून कड़े करने, घुसपैठियों को देश से निकालने, आयकर घटाने और आयात शुल्क बढ़ाने की बात करते हैं. हैरिस ऐसी अर्थव्यवस्था बनाने की बात करती हैं, जिसमें सबके लिए अवसर हों, जबकि ट्रंप संरक्षण की दीवार खड़ी कर उद्योग लौटाने की बात करते हैं. वे न यूक्रेन की सहायता जारी रखना चाहते हैं, न संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन की. जलवायु परिवर्तन को वे झांसा मानते हैं और नाटो समेत ऐसे किसी वैश्विक संगठन या संस्था में योगदान नहीं करना चाहते, जिससे अमेरिका को सीधा लाभ न होता हो. इसके विपरीत हैरिस अमेरिका के सारे दायित्वों के निभाते हुए वैश्विक संबंधों में स्थिरता और संस्थाओं में सुधार की बाइडेन सरकार की नीतियों को जारी रखना चाहती हैं.

भारत-अमेरिका के संबंधों पर क्या होगा असर

जहां तक भारत का सवाल है, अमेरिका के साथ उसके संबंध उस दौर में पहुंच चुके हैं, जहां ट्रंप या हैरिस के आने से कोई विशेष फर्क पड़ने की संभावना नहीं है. ट्रंप सरकार भारत के पेशेवरों के लिए वीजा और माल के लिए अमेरिकी बाजारों में प्रवेश के रास्ते में मुश्किलें खड़ी कर सकती है. डेमोक्रेटिक पार्टी में वामपंथी गुट की प्रमीला जयपाल, इलहान उमर और रशीदा तायब जैसे सांसद भारत की आलोचना करने में मुखर हैं. इसलिए कमला हैरिस की सरकार वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर खालिस्तानी कट्टरपंथियों को प्रश्रय देते हुए मानवाधिकारों, अल्पसंख्यकों और नागरिक संस्थाओं की स्वतंत्रता पर नैतिक सवाल खड़े कर सकती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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