अमेरिकी चुनाव में सामाजिक ध्रुवीकरण

राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियां जो भी रही हों, और उनके नतीजे जो भी रहे हों, उनको मिलता बड़ा समर्थन यही जताता है कि उन्हें अमेरिकी समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण का बहुत लाभ मिला है.

By संपादकीय | November 6, 2020 6:37 AM

प्रो उम्मू सलमा बावा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली

usbava@gmail.com

जब भी विशेषज्ञ किसी चुनाव का विश्लेषण करते हैं, तो वे कुछ मुद्दों को महत्वपूर्ण मानकर चलते हैं कि ये परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं. ऐसा माना जा रहा था कि कोरोना महामारी, जिससे अमेरिका सबसे अधिक संक्रमित है और मतदान के दिन ही संक्रमण के एक लाख से अधिक नये मामले सामने आये थे, चुनाव का सबसे अहम मुद्दा होगी. डेमोक्रेटिक पार्टी को बड़ी जीत मिलेगी क्योंकि इस महामारी को लेकर राष्ट्रपति ट्रंप के रवैये की बड़ी आलोचना होती रही है.

लेकिन मतगणना के दौरान स्पष्ट दिख रहा है कि एक-एक वोट के लिए लड़ाई के बाद ही कोई परिणाम निकल सकेगा. अंतत: बात उन पांच-छह राज्यों में आकर फंस गयी है, जिन्हें स्विंग या बैटलग्राउंड स्टेट कहा जाता है. इन राज्यों के साथ ऐतिहासिक रूप से ऐसा रहा है कि इनका पलड़ा किसी की ओर भी झुक सकता है. अब तक की गिनती और रुझानों के आधार पर कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था के मुद्दे ने चुनाव में प्रभावी भूमिका निभायी है. यदि आप अमेरिका के चुनावी नक्शे को देखें, तो मध्य-पश्चिमी क्षेत्र के राज्य पारंपरिक रूप से रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक रहे हैं.

इन राज्यों की आबादी मुख्य रूप से श्वेत लोगों की है और वे वैचारिक रूप से बहुत रूढ़िवादी हैं. वे आप्रवासन नीतियों और स्वास्थ्य सुधार कार्यक्रमों के आम तौर पर विरोधी हैं. इनके बरक्स अगर आप देश के पूर्व और पश्चिम में तटीय राज्यों को देखें, तो वे ऐतिहासिक रूप से डेमोक्रेट समर्थक हैं. इन्हें उदारवादी माना जाता है और ये आम तौर पर सुधार व बदलाव के पक्षधर होते हैं. इस कारण इन राज्यों में और इनके भीतर बसे शहरों, जैसे कैलिफोर्निया, सिलिकन वैली, न्यूयॉर्क आदि में बहुत विविधता और खुलापन भी है.

चुनाव से पहले के आकलन वास्तविक परिणामों से मेल नहीं खा रहे हैं. इसकी वजह यह हो सकती है कि या तो उनके सैंपल छोटे हों, उनके सर्वेक्षण का दायरा कम रहा हो, या फिर उन्होंने यह ठीक से नहीं देखा कि ट्रंप के लिए व्यापक समर्थन अभी भी बरकरार है. अब तक के नतीजों में डेमोक्रेट उम्मीदवार और पूर्व उपराष्ट्रपति जो बाइडेन को 50 प्रतिशत से थोड़ा ही अधिक समर्थन मिल रहा है तथा राष्ट्रपति ट्रंप लगभग 48 प्रतिशत के साथ बहुत नजदीक हैं. इससे यह भी इंगित होता है कि अमेरिका में किस हद तक ध्रुवीकरण हो चुका है.

इसका एक अन्य पहलू यह है कि ट्रंप की नीतियों की आलोचना को डेमोक्रेटिक पार्टी ने जोर-शोर से लोगों को सामने रखा और इस कारण बड़ी संख्या में लोगों ने मतदान में हिस्सा लिया. अमेरिका में पोस्टल बैलट की भी व्यवस्था है, जिसके तहत मतदाता मतदान के दिन से पहले ही अपना वोट डाक से भेज सकते हैं. इस बार बहुत बड़ी संख्या में ऐसे वोट आये हैं, जिनकी गिनती करने में देरी होने से नतीजे आने में भी देर हो रही है.

ऐसा माना जाता है और सर्वेक्षणों से भी यह बात सामने आयी है कि डाक से वोट देनेवाले अधिकतर मतदाता डेमोक्रेट समर्थक हैं. इस तथ्य से परिचित होने के कारण ही ट्रंप अभियान की ओर से ऐसे वोटों पर सवाल उठाया जा रहा है और अदालत जाने की बातें हो रही हैं, जबकि यह पद्धति कानूनी रूप से कतई गलत नहीं है. बहरहाल, अब तो हर वोट को गिना जाना है और पूरे नतीजे आने में देरी होगी.

फिलहाल, ऐसे रुझान हैं कि अंतत: बाइडेन निर्वाचित हो जायेंगे. लेकिन यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप की नीतियां जो भी रही हों और उनके अच्छे या खराब जो भी नतीजे रहे हों, उनको मिलता बड़ा समर्थन यही जताता है कि अमेरिकी समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण का उन्हें बहुत लाभ मिला है और जैसा आकलनों में बताया जा रहा था कि पूरे अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की लहर चलेगी, वैसा कुछ भी नहीं हुआ है. यह भी कहा जा सकता है कि डेमोक्रेट खेमे का प्रचार अभियान अपनी भावी नीतियों को ठीक से पहुंचाने में कमजोर साबित हुआ है.

इस चुनाव का एक महत्वपूर्ण आयाम रहा है डर की राजनीति. ट्रंप कह रहे थे कि अगर डेमोक्रेट सत्ता में आ जायेंगे, तो विभिन्न करों में बढ़ोतरी हो जायेगी. नस्ल और रोजगार को लेकर भी बहुत सारी बातें हुईं. डर के माहौल को बढ़ावा देने में सबसे आगे ट्रंप ही रहे हैं. इससे उन्हें धनी प्रवासियों, अश्वेतों और लातिनी मूल के कुछ लोगों का वोट मिलना संभव हुआ है. यह भी उल्लेखनीय है कि ट्रंप को अपनी पार्टी की ओर से कोई चुनौती या विरोध का सामना नहीं करना पड़ा था तथा उनकी उम्मीदवारी पर बहुत पहले ही मुहर लग चुकी थी.

लेकिन डेमोक्रेटिक उम्मीदवार का अंतिम निर्णय कुछ महीने पहले ही हो सका था और इसमें एक साल का समय लगा था. इसका पूरा फायदा ट्रंप को मिला और बाइडेन का प्रचार कोविड-19 से पैदा हुई स्थितियों से भी प्रभावित हुआ. ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका ने कई बड़े अंतरराष्ट्रीय समझौतों से स्वयं को अलग कर लिया है और वैश्विक स्तर पर जो उसकी प्रभावी एवं वर्चस्वशाली भूमिका होती है, उसे भी बहुत हद तक त्याग दिया है.

हालांकि ट्रंप ने मध्य-पूर्व में अरब देशों और इजरायल के बीच अनेक अहम संधियों को संभव बनाया है, लेकिन इन परिघटनाओं को भी हमें उस क्षेत्र की बदलती परिस्थितियों के संदर्भ में देखना होगा. लेकिन इन सभी अंतरराष्ट्रीय पहलुओं का प्रभाव अमेरिकी मतदान के समीकरणों पर नहीं पड़ा. यह भी कोई नयी बात नहीं है क्योंकि अमेरिकी चुनाव हमेशा से ही राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और उनमें विदेश नीति कोई विशेष कारक नहीं बन पाती है. अब सवाल यह है कि क्या भावी राजनीति अमेरिकी समाज के बिखरे हुए विभिन्न पहलुओं को फिर से जोड़ सकती है.

चुनाव में तो विभाजनकारी बातों को लाने को समझा जा सकता है, पर असल चुनौती है समाज के सभी लोगों और विचारों को साथ लाकर आगे बढ़ने की कोशिश. बाइडेन ने हालिया बयानों में देश को एक साथ जोड़ने की बात कही है, पर ट्रंप ने एक बार भी ऐसी बात नहीं कही है. वे तो नतीजे आने से पहले ही तमाम तरह के आरोप लगाकर अपनी जीत के दावे कर रहे हैं. हाउस में डेमोक्रेट का बहुमत बना हुआ है और सीनेट में भी उनकी क्षमता बढ़ी है. यदि बाइडेन जीतते हैं, तो उन्हें सबको साथ लेकर चलने में आसानी होगी जो कि अमेरिका के लिए बहुत जरूरी है.

(बातचीत पर आधारित)

Posted by: Pritish Sahay

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