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अमेरिकी चुनाव और ट्रंप के तेवर

यह घरेलू राजनीति का ही दबाव है कि ट्रंप को अपने फैसलों से पीछे हटना पड़ रहा है. जनवरी तक ट्रंप के लिए जो रास्ता आसान लग रहा था, बाइडेन ने उसे मुश्किल जरूर बना दिया है.

By जे सुशील | July 29, 2020 1:07 AM

जे सुशील, अमेरिका में स्वतंत्र शोधार्थी

jey.sushil@gmail.com

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की शुरुआत में डोनाल्ड ट्रंप अपनी जीत को लेकर लगभग आश्वस्त थे. उन दिनों उनके आश्वस्त होने के कारण भी थे. अमेरिका की बेरोजगारी दर दूसरे विश्व युद्ध के बाद के सर्वाधिक निचले स्तर पर थी, यानी कि देश में बेरोजगारों की संख्या सर्वाधिक कम थी. लिबरल और प्रोग्रेसिव सोच वाले लोग भले ही कई मुद्दों पर ट्रंप की आलोचना करते रहे हों परंतु, यह तो सच ही है कि ट्रंप के आने के बाद अमेरिका में रोजगार की स्थिति और भी बेहतर हो गयी थी.

पिछले चार वर्षों में ट्रंप ने मेक्सिको से लगती सीमा पर दीवार उठाने से लेकर चुनिंदा मुस्लिम देश के लोगों के अमेरिका आने पर प्रतिबंध लगाने जैसे जो भी विवादित फैसले लिये हैं, उसकी दुनिया भर में भले ही आलोचना हो रही है, लेकिन इन मुद्दों पर उन्हें अपने देश में समर्थन मिला हुआ था. ट्रंप के प्रशासन में भारत के साथ संबंध भी खराब नहीं हुए थे, बल्कि ट्रंप और मोदी की दोस्ती के चर्चे हर जगह थे.

यहां तक कि दोनों नेताओं ने एक-दूसरे के देशों की यात्रा भी की. कुल मिलाकर माहौल बेहतरीन था, लेकिन मार्च में कोरोना और उसके बाद जॉर्ज फ्लाॅयड हत्याकांड ने पिछले तीन महीनों में अमेरिकी राजनीति में बहुत बड़ा उलटफेर किया है. डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से जो बाइडेन उम्मीदवार हैं. वे लंबे समय से राजनीति में हैं, अनुभवी हैं और सबसे बड़ी बात की देश की जनता के पास ले जाने के लिए उनके पास एक एजेंडा है. इसके ठीक उलट, पिछले कुछ महीनों में ट्रंप का हर फैसला उनके लिए ही घातक ही साबित हुआ है.

कोरोना वायरस को पहले ट्रंप प्रशासन ने वुहान वायरस नाम देने की कोशिश की लेकिन इसका बहुत ज्यादा असर नहीं हुआ. चीन ने न केवल इन शब्दों का विरोध किया, बल्कि कहा जाता है कि चीन की तरफ से एक कांस्पिरेसी थ्योरी भी चलाई गयी कि असल में यह वायरस अमेरिकी बायोलाॅजिकल वारफेयर का हिस्सा है. चूंकि अमेरिका की गुप्तचर संस्था सीआइए पहले से ही बदनाम रही है, ऐसे में इस कांस्पिरेसी थ्योरी को बहुत बल मिला.

जाहिर है कि ट्रंप सरकार इस मामले में चीन से बेहद नाराज है, मगर वह चीन के खिलाफ कोई सीधी कार्रवाई नहीं कर सकती क्योंकि अमेरिका का बहुत सारा व्यापार चीन पर निर्भर है. इसी कारण अमेरिका ने इस बात की खीझ विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) पर निकाली. ट्रंप ने तो ट्विटर के जरिये ही इसकी अगुवाई भी की. आज की तारीख में अमेरिका डब्ल्यूएचओ से अलग है. किसी भी वैश्विक ताकत का एक वैश्विक संगठन से अलग होना उस देश की छवि के लिए सकारात्मक नहीं होता है.

इसलिए ट्रंप का यह फैसला भी गलत ही साबित हुआ. भले ही ट्रंप कोरोना वायरस को चाइना वायरस कह कर संबोधित कर रहे हैं, लेकिन इसके लिए उनकी लगातार आलोचना हो रही है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत-चीन तनाव के बाद अमेरिका ने भारत के पक्ष में बड़ा बयान दिया है, लेकिन उसे भी अमेरिका की खीझ के रूप में ही देखा जा रहा है. अगर घरेलू मोर्चे पर देखें तो जॉर्ज फ्लाॅयड हत्याकांड पर ट्रंप की लाइन एक नस्लभेदी नेता जैसी रही है, और वो लगातार ट्वीट करते रहे हैं कि प्रदर्शनकारी अगर हिंसा करेंगे तो उसका जवाब ताकत से दिया जायेगा.

किसी प्रशासनिक अधिकारी द्वारा किये गये ऐसे ट्वीट को तो सही ठहराया जा सकता है लेकिन देश के राष्ट्रपति के इस तरह ट्वीट करने से जनता में अच्छा संदेश नहीं जाता है. दूसरी बात, कोरोना के कारण अमेरिका की बेरोजगारी दर खतरनाक स्तर पर पहुंच गयी है. बेरोजगारी पर नकेल कसना फिलहाल ट्रंप के लिए मुश्किल है, क्योंकि अगर वे काम-काज के लिए शहरों को खोलते हैं तो कोरोना का कहर बढ़ता है और बंद रखते हैं तो लोग बेरोजगार हो रहे हैं.

ऐसे मुश्किल समय में जब नीतियों, बयानों और फैसलों को लेकर एक संतुलित दृष्टिकोण की जरूरत होती है, ट्रंप के बयान और फैसले लोगों तक ठोस संदेश पहुंचा पाने में असफल साबित हो रहे हैं. यही कारण है कि उन्हें लगातार अपने फैसलों में बदलाव करना पड़ा है. मार्च के महीने में कोरोना को फर्जी बताने वाले ट्रंप को बाद में यह कहना पड़ा कि इस संक्रमण से देश में एक लाख से अधिक मौत हो सकती है. इतना ही नहीं, मास्क का लगातार विरोध करने वाले राष्ट्रपति को अंततः मास्क पहन कर लोगों के सामने आना पड़ा और यह संदेश देना पड़ा कि प्रत्येक व्यक्ति को बाहर निकलते समय मास्क पहनने की जरूरत है.

रोजगार के मुद्दे पर भी उनकी सरकार ने अभी तक कोई ठोस नीति नहीं पेश की है. अलबत्ता उन्होंने न केवल एच1एन1 वीजा पर रोक लगायी है, बल्कि ऐसे वीजाधारक अगर दूसरे देश में थे तो उनके भी अमेरिका आने पर दिसंबर तक रोक लगा दी है. इस कारण भारत समेत कई देशों में लोगों का भविष्य अधर में लटक गया है. छात्रों को लेकर भी ट्रंप सरकार ने इसी तरह का एक फैसला लिया था कि यदि सभी पाठ्यक्रमों की पढ़ाई ऑनलाइन हो रही है तो अंतरराष्ट्रीय छात्रों को अमेरिका छोड़ना होगा. इस मुद्दे को कोर्ट में चुनौती दी गयी और उन्हें यह फैसला वापस लेना पड़ा था.

पिछले सप्ताह ट्रंप ने स्कूलों को खोलने के निर्देश देते हुए चेतावनी दी थी कि जो स्कूल खोले नहीं जायेंगे उनकी सरकारी फंडिंग रोक दी जायेगी. लेकिन अब अपनी इस घोषणा से भी सरकार पीछे हट रही है और कह रही है कि जहां कोरोना का प्रकोप अधिक है वहां स्कूल न खोले जायें. रिपब्लिकन पार्टी के एक समारोह में भी लोगों के शामिल होने की जिद ठान चुके ट्रंप ने अब इस समारोह के ऑनलाइन होने की बात कही है, यानी यहां भी वे अपनी बात से पीछे हटे हैं.

असल में, पिछले कुछ महीनों में ट्रंप और बाइडेन की रेटिंग में बड़ा बदलाव आया है. ट्रंप और बाइडेन की रेटिंग में जहां मार्च तक ट्रंप आगे थे, वहीं अब बाइडेन ने पंद्रह अंकों की बढ़त बना ली है. यह घरेलू राजनीति का ही दबाव है कि ट्रंप को अपने फैसलों से पीछे हटना पड़ रहा है. जनवरी तक ट्रंप के लिए जो रास्ता आसान लग रहा था, बाइडेन ने उसे मुश्किल जरूर बना दिया है, भले ही वह असंभव न हो. ट्रंप के लिए इस समय अंतरराष्ट्रीय मुद्दे मायने नहीं रखते हों, लेकिन इतना तो जरूर है कि घरेलू मुद्दों पर उनका संघर्ष अब कठिन हो चुका है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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