संसार में हम जो भी कार्य-कलाप देखते हैं, हमारे चारों ओर जो कुछ हो रहा है, वह सब केवल मन का खेल है. यह सब कर्म द्वारा नियमित होता है. कोई भी कर्म सर्वप्रथम मन में विचार रूप में जन्मता है. इस विचार पर आंतरिक चिंतन-मनन होता है और फिर उसे कार्य रूप में परिणत करने की इच्छा जागृत होती है.
तब मनुष्य वह कार्य करता है. उसके कर्मों से ही अंतत: उसके चरित्र का निर्माण होता है. जीवन पर अपनी पकड़ बनाये रखने का एक ही उपाय है– उचित और गहन चिंतन. आत्म निरीक्षण की आदत डाले बिना मन के अंदर क्रियाशील सभी विचारों पर उचित नियंत्रण रख पाना असंभव है. अंत:करण में मन, विक्षेप और आवरण तीन दोष होते हैं. जब तक इन दोषों को दूर करके मन को निर्मल नहीं बना लिया जाता, उससे दूषित विचार जन्म लेते रहते हैं.
वैचारिक पवित्रता होने पर ही हमारे आचरण व कर्म में उत्कृष्टता के दर्शन हो सकते हैं. गीता का उपदेश है कि मनुष्य को निरंतर कर्म करते रहना चाहिए. हम ऐसा कोई भी कर्म नहीं कर सकते, जिससे कहीं कुछ भला न हो. ऐसा कोई भी कर्म नहीं है, जिससे कहीं न कहीं कुछ हानि न हो. प्रत्येक कर्म अनिवार्य रूप से गुण-दोष से मिश्रित रहता है. सत और असत, दोनों प्रकार के कर्मों की जड़ हमारे मन में ही विकसित होती है.
मन में अच्छे विचार उत्पन्न होंगे तो हमारे कर्म भी शुभ होंगे और कुविचारों का परिणाम अशुभ कर्मों के रूप में प्रकट होगा. मन में उत्पन्न होनेवाले दूषित विचार हमें दुष्प्रवृत्तियों की ओर प्रेरित करते हैं और हमारे सर्वनाश का कारण बनते हैं. अत: हमें अपने मन में पनपने वाले कुविचारों को समूल उखाड़ फेंकने का सदैव प्रयास करते रहना चाहिए. भारतीय संस्कृति में मन की असीम शक्ति और अपार सामर्थ्य का सदैव अनुशीलन किया जाता है.
संस्कार, परिष्कार और संशोधन द्वारा मन से अवांछनीय तत्वों, दुर्गुण-दोष आदि को हटाकर उसके स्थान पर सद्गुणों को प्रतिष्ठापित करना ही हमारी संस्कृति का मूल आधार है. आत्मशोधन का यह क्रम जीवन भर चलते रहना चाहिए. इससे मानव जीवन देवत्व की ओर अग्रसर होता है. जीवन पवित्र और निर्मल बनता है. अत: आत्मशक्ति का सदुपयोग करें. – श्री सुधांशु जी महाराज