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विदेशी आर्थिक व्यापार में सतर्कता जरूरी

आर्थिक चिंतक सरकार को किसी समझौते में शामिल होने से पहले विभिन्न श्रमिक संगठनों, किसान संगठनों, व्यापारिक प्रतिनिधियों व नागरिक संगठनों की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए एक कमेटी का गठन करना चाहिए.

By के सी | August 30, 2023 8:16 AM

बिशन नेहवाल

आर्थिक चिंतक

भारत अमेरिका के नेतृत्व वाले ‘समृद्धि के लिए हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचा’ (इंडो-पैसिफिक इकोनोमिक फ्रेमवर्क) में शामिल हुआ है. इसके सदस्य देशों में अमेरिका व भारत के अलावा ऑस्ट्रेलिया, ब्रूनेई, फिजी, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, न्यूजीलैंड, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं. आइपीइएफ के चार स्तंभ हैं- आपूर्ति शृंखला, हरित अर्थव्यवस्था, निष्पक्ष अर्थव्यवस्था और व्यापार.

भारत ने इसके तीन स्तंभों- आपूर्ति शृंखला, हरित अर्थव्यवस्था, निष्पक्ष अर्थव्यवस्था- से जुड़ने की हामी भरी थी, पर चौथे स्तंभ, व्यापार को राष्ट्र हित के विपरीत बताते हुए उससे खुद को अलग कर लिया था. गत महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के समय यह मुद्दा उठा था. सुनने में आया है कि भारत इस व्यापार समझौते से जुड़ने के लिए सहमत हो गया है.

संयुक्त किसान मोर्चा समेत अन्य 32 संगठनों वाले नागरिक समाज ने प्रधानमंत्री और वाणिज्य व उद्योग मंत्री पीयूष गोयल को पत्र लिखकर आइपीइएफ के व्यापार स्तंभ में शामिल नहीं होने का आग्रह किया है. किसान संगठनों के अनुसार, भारत के व्यापार स्तंभ में शामिल होने से अमेरिका स्थित कृषि-तकनीकी फर्मों और खुदरा सेवाओं तथा बुनियादी ढांचा सेवाओं के कृषि उत्पादन आपूर्तिकर्ताओं को देश में प्रवेश की खुली सुविधा मिलती है. उपरोक्त फ्रेमवर्क में भारत के शामिल होने को लेकर सभी हितधारकों की अपनी चिंताएं और चुनौतियां हैं, जो कहीं न कहीं भारत के हितों को प्रभावित कर सकती हैं. इसे लेकर हमारी भी कुछ शंकाएं हैं. यह फ्रेमवर्क मित्र सदस्य देशों के बीच मुक्त व्यापार को बढ़ावा देता है.

यदि भारत आइपीइएफ के अंदर कुछ देशों से भारी मात्रा में आयात करता है, तो उसका अन्य सहभागी देशों के साथ व्यापार असंतुलन हो सकता है, जिसका भारतीय वाणिज्यिक घाटे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. इससे उसकी समग्र आर्थिक स्थिरता प्रभावित हो सकती है. फ्रेमवर्क के अंदर व्यापार की वृद्धि होने से भारतीय उद्योगों को विदेशी सामान से अधिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ सकता है, विशेष रूप से ऐसे देशों के साथ जिनकी भारत के मुकाबले उत्पादन लागत कम है और जो अधिक उन्नत प्रौद्योगिकियों का उपयोग करते हैं.

इस कारण भारतीय उद्योगों को बाजार में अपने उत्पादों को बेचने में कठिनाई तो आयेगी ही, कुछ क्षेत्रों में रोजगार की कमी भी हो सकती है. छोटे और मध्यम भारतीय उद्यमों को बड़ी विदेशी कंपनियों से अधिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ सकता है.

पहले से ही अपने बुरे दौर से गुजर रही कृषि को भी अनेक समस्याओं से जूझना पड़ सकता है. किसानों की आय प्रभावित होने के साथ कृषि आपूर्ति शृंखला पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा. आइपीइएफ के माध्यम से ई-कॉमर्स पर कानूनी रूप से बाध्यकारी नियमों को आगे बढ़ाने से भारत की कृषि नीतियां प्रभावित होंगी एवं ई-कॉमर्स के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खाद्य खुदरा क्षेत्र में प्रवेश की भी अनुमति मिल जायेगी. इससे न केवल सरकारों, बल्कि किसानों और उपभोक्ताओं की निर्णय लेने की क्षमता भी नष्ट हो जायेगी.

आइपीइएफ सदस्यों की नयी पौधों की किस्मों के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ (यूपीओवी) पर हस्ताक्षर करने की बाध्यता है, क्योंकि यूपीओवी बौद्धिक संपदा अधिकारों द्वारा पौधों की नयी किस्मों की रक्षा करना चाहता है और किसानों के अधिकारों को मान्यता नहीं देता है. यह किसानों के बीज और रोपण सामग्री पर प्राकृतिक और कानूनी अधिकारों को खतरे में डाल देगी. यह मुक्त व्यापार समझौता बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बीजों पर एकाधिकार सुनिश्चित करेगा और छोटे किसानों के बीज बचाने के अधिकार को भी प्रभावित करेगा.

फ्रेमवर्क के अंदर व्यापार में वृद्धि के साथ भारत वैश्विक मूल्य शृंखला में अधिक एकीकृत हो सकता है. यह आर्थिक विकास के लिए तो लाभकारी हो सकता है, परंतु इससे भारत की वैश्विक व्यापार और आपूर्ति शृंखलाओं में अस्थिरता बढ़ सकती है. इन नुकसानों का सामना करने के लिए सतर्क व्यापार नीतियों, बाजार विविधीकरण, घरेलू उद्योगों का समर्थन और भारत की वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए प्रयास की जरूरत होगी.

व्यापार के प्रति खुलापन और राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित करना भी महत्वपूर्ण होगा. भारत का दृष्टिकोण अब तक अपने राष्ट्रीय हित में कार्य करने का रहा है. इसे आगे भी जारी रहना चाहिए. इस व्यापार समझौते का प्रभाव अलग-अलग क्षेत्रों पर भले ही भिन्न हो सकता है, पर इसके व्यापक प्रभावों को समझने और उसके उपायों के लिए स्थानीय परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाना आवश्यक है. भारत एक लोकतांत्रिक मान्यताओं वाली उभरती अर्थव्यवस्था है, जिसे अपने संसाधनों का उपयोग राष्ट्र हित में करना चाहिए. इसलिए सरकार को भी किसी समझौते में शामिल होने से पहले विभिन्न श्रमिक संगठनों, किसान संगठनों, व्यापारिक प्रतिनिधियों व नागरिक संगठनों की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए एक कमेटी का गठन करना चाहिए.

(ये लेखकों के निजी विचार हैं)

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