प्रो सतीश कुमार
टिप्पणीकार
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकल से ग्लोबल की बात कही है. यह सोच तो उल्टी गिनती जैसी लग रही है. पिछले 70 वर्षों में भारत ग्लोबल से लोकल की लकीर पर रेंगता रहा. हमारे देश में बनी चीजें ग्लोबल मार्केट की प्रतिस्पर्धा में दम तोड़ती गयीं और हम समय की धारा में कब लोकल से ग्लोबल बन गये, पता ही नहीं चला. कोकाकोला और पेप्सी गांव की दुकानों में बिकने लगीं. भागलपुर की रेशमी साड़ी, जो माचिस की डिबिया में समा जाती थी, पश्मीना का शॉल और कानपुर का जूता समय के साथ दम तोड़ते गये. बहुत कुछ अंग्रेजों की वजह खत्म हुआ और फिर नेहरू जी के पश्चिम प्रेम ने लोकल पर हमेशा के लिए ताला लगा दिया. आज यह महामारी दुनिया को अपने अस्तित्व का बोध करा रही है. भारत के लिए भी यह एक सीख है.
साल 1999 में आयी इमैनुएल वलस्तीन की पुस्तक का शीर्षक था- ‘दुनिया वैसी नहीं रहेगी जैसी दिखती है’. वलस्तीन अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विद्वान हैं. उनके शीर्षक के पीछे आण्विक हथियारों का भय था और एक साल पहले ही भारत और पाकिस्तान ने परमाणु परीक्षण किया था. लेकिन उनकी बात पूरी सही निकली, कारण कुछ और बना. सभी यह मानते हैं कि दुनिया अब पहले जैसी नहीं होगी, न ही आर्थिक व्यवस्था और न ही सामाजिक संबंध. इन दोनों के साथ राजनीति और कूटनीति भी बदल जायेगी. प्रधानमंत्री की सोच में कोई कमी नहीं है. लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या बड़े औद्योगिक घराने ऐसा होने देंगे. राजनीति और व्यापारिक घरानों की आपसी लेन-देन क्या इसे सफल होने देगी? भारत में रेहड़ी-फेरीवालों की संख्या लाखों में है, जिनकी चर्चा प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में तीन बार की. क्या उनको इस योजना का लाभ मिल सकता है?
दुनिया पर हावी दो विचारधाराओं- पूंजीवाद और समाजवाद- ने किसी तीसरे मॉडल को पनपने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी. एक में राज्य को अभूतपूर्व शक्ति मिली और दूसरे ने राज्य को एक बीमारी के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया. समाज की रचना और उसकी सार्थकता दोनों ही व्यवस्थाओं में गौण होती चली गयी. एक में राज्य को सब कुछ करने की निष्कंटक छूट, तो दूसरे में व्यक्ति को अपने हद तक करने की आजादी मिल गयी. सामाजिक ढांचा बन ही नहीं पाया. आजादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनीतिक सोच भी इन्हीं दो धाराओं में सिमट गयी. प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू रूस की केंद्रीकृत व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे. जितनी उनकी चली, उतना उन्होंने भारत को सोवियतमुखी बनाने की कोशिश की. राजनीतिक आधार के लोकतांत्रिक होने से बहुत कुछ अमेरिका की आर्थिक सोच से जुड़ गया. जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर और अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन द्वारा आधुनिक लिबरल वर्ल्ड आॅर्डर बनाया गया, तो कई देशों के साथ भारत भी उसमें शामिल हो गया. गांधी के विचारों का हनन तो आजादी के बाद ही शुरू हो गया था.
जिस ग्राम स्वराज को शक्ति देकर रामराज्य की बात गांधी ने की थी, उसकी बड़ी ही निर्ममता से हत्या कर दी गयी. गांव की रोजगार व्यवस्था टूट कर शहरों की दौड़ लगाने लगी तथा लाखों लोग मजदूर बनकर महानगरों में चले गये. पर्यावरण के न्यूनतम मानक को भी ध्वस्त कर दिया गया. गांधी ने आजादी के पहले ही कहा था कि भारत कभी भी अंग्रेजों के आर्थिक ढांचे का अनुसरण नहीं करेगा, क्योंकि उसके लिए भारत को पृथ्वी जैसे तीन ग्रहों की जरूरत पड़ेगी. आज जब महामारी ने भौतिकवादी सोच पर आघात किया है, तो सोचना स्वाभाविक है कि समाजवाद और पूंजीवाद से हटकर अपनी देशज व्यवस्था का अनुसरण करना होगा. भारत की राजनीतिक व्यवस्था में राज्य और व्यक्ति के बीच समाज होता है, जो राज्य के प्रति आदर और सम्मान पैदा करता है तथा राज्य को व्यक्ति के विकास के लिए अनुशासित करता है. इस ढांचे में द्वंद्व नहीं, बल्कि लगाव विकसित किया जाता है.
कोरोना के बाद रास्ता क्या होगा? क्या जिस रफ्तार से पूंजीवादी व्यवस्था चल रही है, उसी पर चलना ठीक होगा? चीन बेल्ट-रोड परियोजना के नाम पर गरीब देशों के संसाधन लूट रहा है, विश्व में युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर रहा है. अमेरिका जैसे अनेक पश्चिमी देश पेरिस सम्मेलन का अनुपालन करने में कोताही कर रहे हैं. हथियारों का संवर्द्धन किया जा रहा है, कई देश आतंकवाद का सहारा ले रहे है. महासंकट में भी पश्चिमी दुनिया विखंडित दिखायी दी. गेहूं के सबसे बड़ा उत्पादक देश रूस ने भी निर्यात करने से मना कर दिया. भूमंडलीकरण के सबसे बड़े हितैषी फ्रांस के राष्ट्रपति ने फूड को राष्ट्रवाद से जोड़ दिया. ऐसा इसलिए हुआ कि पश्चिम की सोच केवल लूट-खसोट पर टिकी हुई थी, जबकि भारत का वसुधैव कुटुंबकम किसी स्वार्थ और लिप्सा पर आधारित नहीं है. गांधी का ग्राम स्वराज भी यही था, जहां किसी चीज के लिए शहरों का मुहताज नहीं होना होगा, इसलिए पलायन की नौबत नहीं आयेगी. प्रधानमंत्री का पैकेज भारत की तस्वीर बदलने के लिए है या महज एक राजनीतिक जुमला, इसका फैसला तो समय ही करेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)