विश्वकर्मा की परंपरा के अनूठे वाहक विश्वेश्वरैया

Vishwakarma Puja: सीमेंट की कमी पूरी करने के लिए उन्होंने ‘मोर्टार’ तैयार किया, जो सीमेंट से भी ज्यादा मजबूत था. लेकिन मोर्टार से भी कहीं ज्यादा मजबूत थी उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और कहते हैं कि इसका ही फल था कि उनके बनाये बांधों, जलाशयों, फैक्टरियों, विश्वविद्यालयों और बाढ़ व कटाव से सुरक्षा व सिंचाई की प्रणालियों वगैरह की तरह उन्हें भी लंबी उम्र मिली.

By कृष्ण प्रताप सिंह | September 17, 2024 7:05 AM
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Vishwakarma Puja: ऋग्वेद में भगवान विश्वकर्मा को देवताओं का वास्तुकार, शिल्पशास्त्र का प्रणेता और शिल्पकारों (कारीगरों) का संरक्षक बताया गया है. इस लिहाज से उनकी पूजा के अवसर पर देश के पहले सिविल इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की याद बहुत स्वाभाविक है, जिन्होंने शिल्पशास्त्र के प्रति अपने समर्पण से निर्माण व सृजन की उनकी परंपरा को इतना आगे बढ़ाया कि उन्हें आधुनिक भारत को पुनर्निर्मित करने का श्रेय दिया जाने लगा. गोरों की पराधीनता के कठिन दौर में जहां एक ओर उन्हें ‘आधुनिक भारत के भगीरथ’ के रूप में प्रसिद्धि मिली, वहीं ‘सर’ की उपाधि भी. स्वतंत्रता के बाद 1955 में उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया. कम ही लोग जानते हैं कि उनका पहले का ज्यादातर जीवन विकट संघर्षों की कथा है.


मैसूर (अब कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुके में 15 सितंबर, 1860 को धर्मपरायण माता वेंकाचम्मा की कोख से उनका जन्म हुआ. पिता श्रीनिवास शास्त्री आयुर्वेद के ज्ञाता, वैद्य व संस्कृत के विद्वान थे, पर घर में गरीबी का राज था. छुटपन में ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया. दृढ़निश्चयी विश्वेश्वरैया ने हिम्मत नहीं हारी. कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया और उससे मिलने वाले रुपयों से अपनी पढ़ाई की राह के कांटे बुहार डाले. इस मेहनत का पहला मीठा फल उन्हें 1880 में मिला, जब मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध बेंगलुरु के सेंट्रल कालेज से बीए में उन्हें सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ. पूना के साइंस कालेज में इंजीनियरिंग की परीक्षा में भी उन्होंने पहला स्थान पाया. उनकी कहानी को अक्षरों में ही नहीं, उनके दूरदर्शी और कालजयी निर्माणों में भी पढ़ा जा सकता है. कावेरी नदी पर बना अपने वक्त का एशिया का सबसे बड़ा कृष्णराज सागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील वर्क्स, मैसूर संदल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, स्टेट बैंक ऑफ मैसूर और हैदराबाद सिटी वगैरह इसकी चंद मिसालें हैं. बांधों में इस्पात के मजबूत दरवाजे लगवाने और ‘ब्लॉक सिस्टम’ नाम से सिंचाई की नयी प्रणाली शुरू करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.


सीमेंट की कमी पूरी करने के लिए उन्होंने ‘मोर्टार’ तैयार किया, जो सीमेंट से भी ज्यादा मजबूत था. लेकिन मोर्टार से भी कहीं ज्यादा मजबूत थी उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और कहते हैं कि इसका ही फल था कि उनके बनाये बांधों, जलाशयों, फैक्टरियों, विश्वविद्यालयों और बाढ़ व कटाव से सुरक्षा व सिंचाई की प्रणालियों वगैरह की तरह उन्हें भी लंबी उम्र मिली. शतायु होने पर भी बुढ़ापे की अशक्तता उन्हें छू तक नहीं पायी. एक बार उनसे किसी ने पूछा कि वे बढ़ती उम्र को हावी होने से कैसे रोकते हैं, तो उन्होंने हंसते हुए कहा था, ‘जब भी बुढ़ापा मेरे घर का दरवाजा खटखटाता है, मैं दरवाजा खोले बगैर घर के भीतर से ही उससे कह देता हूं कि विश्वेश्वरैया घर पर नहीं है. इस तरह उससे मेरी मुलाकात ही नहीं हो पाती और वह मुझ पर हावी नहीं हो पाता.’ शाकाहारी और हर किस्म के नशे से दूर विश्वेश्वरैया को काम की गुणवत्ता और समय की पाबंदी से कोई भी समझौता मंजूर नहीं था. अशिक्षा को वे गरीबी, बेकारी व बीमारी वगैरह का सबसे बड़ा कारण तथा उद्योग-धंधों को देश का प्राण मानते थे. साल 1928 में तत्कालीन सोवियत संघ में पंचवर्षीय योजनाएं शुरू किये जाने से आठ साल पहले विश्वेश्वरैया ने अपनी पुस्तक ‘रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया’ में लिख दिया था कि समयबद्ध और तयशुदा लक्ष्यों वाली योजनाओं के बगैर किसी भी देश का पुनर्निर्माण नहीं किया जा सकता. साल 1935 में आयी ‘प्लांड इकोनॉमी फॉर इंडिया’ में भी उन्होंने इस पर बल दिया था.


एक बार वे ट्रेन से यात्रा कर रहे थे, तो उनकी साधारण वेशभूषा के कारण उनके सहयात्री, जिनमें कई अंग्रेज भी थे, उनका मजाक उड़ाने लगे. उन्होंने अचानक जंजीर खींचकर ट्रेन रोक दी, तो ये सहयात्री उन पर लाल-पीले भी होने लगे. उन्होंने सहयात्रियों को बताया कि आगे रेल की पटरी उखड़ी या टूटी हुई है और ट्रेन उस पर से गुजरी, तो जाने कितने यात्री हताहत हो जायेंगे. उनमें से कुछ ने आगे जाकर देखा, तो उनकी बात सच्ची निकली, पटरी सचमुच उखड़ी हुई थी. थोड़ी ही देर पहले उन्हें बुरा-भला कह चुके एक अंग्रेज ने सबकी जान बचाने के लिए उनका कृतज्ञ होते हुए पूछा कि वे हैं कौन और उन्होंने उसे अपना नाम बताया, तो माफी मांगने लगा. इस पर उनका जवाब था, ‘इस कोच में किसने मुझे क्या कहा, मुझे कुछ भी याद नहीं, क्योंकि मैंने उसे याद रखने की जरूरत ही नहीं समझी.’ किसी ने पूछा कि आपने कैसे जाना कि आगे रेल की पटरी टूटी हुई है, तो उन्होंने बताया कि इसके लिए मैंने ट्रेन की गति और ध्वनि में आये असामान्य परिवर्तनों को अपने इंजीनियरिंग के अनुभवों की कसौटी पर कसा.’


प्रसंगवश, देश के आठ विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद डॉक्टरेट प्रदान किया था और 1962 में 14 अप्रैल को उनके निधन के छह साल बाद 1968 में उनके जन्मदिन को ‘अभियंता दिवस’ घोषित किया गया, जिसका उद्देश्य देश के इंजीनियरों की प्रतिभा को सराहना और उसके रास्ते की बाधाएं दूर करना है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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